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॥ विष्णुपुराणम् ॥

तृतीयः अंशः

॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥

और्व उवाच
ब्रह्मेन्द्ररुद्रनासत्यसूर्याग्निवसुमारुतान् ।
विश्वेदेवान्पितृगणान्वयांसि मनुजान्पशुन् ॥ १ ॥
सरीसृपानृषिगणान्यच्चान्यद्‍भूत संज्ञितम् ।
श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन्प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥ २ ॥
और्व बोले-हे राजन् ! श्रद्धासहित श्राद्धकर्म करनेसे मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि, वसुगण, मरुद्‌गण, विश्वेदेव, पितृगण, पक्षी, मनुष्य, पशु, सरीसृप, ऋषिगण तथा भूतगण आदि सम्पूर्ण जगत्को प्रसन्न कर देता है ॥ १-२ ॥

मासि मास्यसिते पक्षे पञ्चदश्यां नरेश्वर ।
तथाष्टकासु कुर्वीत काम्यान्कालाञ्छृणुष्व मे ॥ ३ ॥
हे नरेश्वर ! प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी पंचदशी (अमावास्या) और अष्टका (हेमन्त और शिशिर ऋतुओंके चार महीनोंकी शुक्लाष्टमियों)- पर श्राद्ध करे । [यह नित्य श्राद्धकाल है] अब काम्यश्राद्धका काल बतलाता हूँ, श्रवण करो ॥ ३ ॥

श्राद्धार्हमागतं द्रव्यं विशिष्टमथ वा द्विजम् ।
श्राद्धं कुर्वीत विज्ञाय व्यतीपातेऽयने तथा ॥ ४ ॥
जिस समय श्राद्धयोग्य पदार्थ या किसी विशिष्ट ब्राह्मणको घरमें आया जाने, अथवा जब उत्तरायण या दक्षिणायनका आरम्भ या व्यतीपात हो तब काम्यश्राद्धका अनुष्ठान करे ॥ ४ ॥

विषुवे चापि सम्प्राप्ते ग्रहणे शशिसूर्ययोः ।
समस्तेष्वेव भूपाल राशिष्वर्के च गच्छति ॥ ५ ॥
नक्षत्रग्रहपीडासु दुष्टस्वप्नावलोकने ।
इच्छाश्राद्धानि कुर्वीत नवसस्यागमे तथा ॥ ६ ॥
विषुवसंक्रान्तिपर, सूर्य और चन्द्रग्रहणपर, सूर्यके प्रत्येक राशिमें प्रवेश करते समय, नक्षत्र अथवा ग्रहकी पीडा होनेपर, दु:स्वप्न देखनेपर और घरमें नवीन अन्न आनेपर भी काम्यश्राद्ध करे ॥ ५-६ ॥

अमावास्या यदा मैत्रविशाखास्वातियोगिनी ।
श्रीद्धैः पितृगणस्तृप्तिं तथाप्नोत्यष्टवार्षिकीम् ॥ ७ ॥
जो अमावास्या अनुराधा, विशाखा या स्वातिनक्षत्रयुक्ता हो उसमें श्राद्ध करनेसे पितृगण आठ वर्षतक तृप्त रहते हैं ॥ ७ ॥

अमवास्या यदा पुष्ये रौद्रे चर्क्षे पुनर्वसौ ।
द्वादशाब्दं तदा तृप्तिं प्रयान्ति पितरोऽर्चिताः ॥ ८ ॥
तथा जो अमावास्या पुष्य, आर्द्रा या पुनर्वसु नक्षत्रयुक्ता हो उसमें पूजित होनेसे पितृगण बारह वर्षतक तृप्त रहते हैं ॥ ८ ॥

वासवाजैकपादर्क्षे पितॄणां तृप्तिमिच्छताम् ।
वारुणे वाप्यमावास्या देवानामपि दुर्लभा ॥ ९ ॥
जो पुरुष पितृगण और देवगणको तृप्त करना चाहते हों उनके लिये धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा अथवा शतभिषानक्षत्रयुक्त अमावास्या अति दुर्लभ है ॥ ९ ॥

नवस्वृक्षेष्वमावास्या यदैतेष्ववनीपते ।
तदा हि तृप्तिदं श्राद्धं पितॄणां शृणु चापरम् ॥ १० ॥
गीतं सनत्कुमारेण यथैलाय महात्मने ।
पृच्छते पितृभक्ताय प्रश्रयावनताय च ॥ ११ ॥
हे पृथिवीपते । जब अमावास्या इन नौ नक्षत्रोंसे युक्त होती है उस समय किया हुआ श्राद्ध पितृगणको अत्यन्त तृप्तिदायक होता है । इनके अतिरिक्त पितृभक्त इलापुत्र महात्मा पुरूरवाके अति विनीत भावसे पूछने पर श्रीसनत्कुमारजीने जिनका वर्णन किया था वे अन्य तिथियाँ भी सुनो ॥ १०-११ ॥

सनत्कुमार उवाच
वैशाखमासस्य च या तृतीया
    नवम्यसौ कर्तिकशुक्लपक्षे ।
नभस्यमासस्य च कृष्णपक्ष
    त्रयोदशी पञ्चदशी च माघे ॥ १२ ॥
एता युगाद्याः कथिताः पुराणे-
    ष्वनन्तपुण्यास्तिथयश्चतस्त्रः ।
उपप्लवे चन्द्रमसो रवेश्च
    त्रिष्वष्टकास्वप्ययनद्वये च ॥ १३ ॥
पानीयमप्यत्र तिलैर्विमिश्रं
    दद्यात्पितृभ्यः प्रयतो मनुष्यः ।
श्राद्धं कृतं तेन समासहस्रं
    रहस्यमेतत्पितरो वदन्ति ॥ १४ ॥
श्रीसनत्कुमारजी बोले- वैशाखमासकी शुक्ला तृतीया, कार्तिक शुक्ला नवमी, भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी तथा माघमासकी अमावास्या-इन चार तिथियोंको पुराणों में 'युगाद्या' कहा है । ये चारों तिथियाँ अनन्त पुण्यदायिनी हैं । चन्द्रमा या सूर्यके ग्रहणके समय, तीन अष्टकाओंमें अथवा उत्तरायण या दक्षिणायनके आरम्भमें जो पुरुष एकाग्रचित्तसे पितृगणको तिलसहित जल भी दान करता है वह मानो एक सहस्त्र वर्षके लिये श्राद्ध कर देता है-यह परम रहस्य स्वयं पितृगण ही कहते हैं ॥ १२-१४ ॥

माघेऽसिते पञ्चदशी कदाचि-
    दुपैति योगं यदि वारुणेन ।
ऋक्षेण कालःस परः पितॄणां
    न ह्यल्पपुण्यैर्नृप लभ्यतेसौ ॥ १५ ॥
यदि कदाचित् माघकी अमावास्याका शतभिषानक्षत्रसे योग हो जाय तो पितृगणकी तृप्तिके लिये यह परम उत्कृष्ट काल होता है । हे राजन् ! अल्प पुण्यवान् पुरुषोंको ऐसा समय नहीं मिलता ॥ १५ ॥

काले धनिष्ठा यदि नाम तस्मि-
    न्भवेत्तु भूपाल तदा पितृभ्यः ।
दत्तं जलान्नं प्रददाति तृप्तिं
    वर्षायुतं तत्कुलजैर्मनुष्यैः ॥ १६ ॥
और यदि उस समय (माघकी अमावास्यामें) धनिष्ठानक्षत्रका योग हो तब तो अपने ही कुलमें उत्पन्न हुए पुरुषद्वारा दिये हुए अन्नोदकसे पितृगणकी दस सहस वर्षतक तृप्ति रहती है । ॥ १६ ॥

तत्रैव चेद्‍भाद्रपदानुपूर्वा
    काले यथावत्क्रियते पितृभ्यः ।
श्राद्धं परां तृप्तिमुपेत्य तेन
    युगं सहस्रं पितरःस्वपन्ति ॥ १७ ॥
तथा यदि उसके साथ पूर्वाभाद्रपदनक्षत्रका योग हो और उस समय पितृगणके लिये श्राद्ध किया जाय तो उन्हें परम तृप्ति प्राप्त होती है और वे एक सहस्त्र युगतक शयन करते रहते हैं ॥ १७ ॥

गङ्‍गां शतद्‍रूं यमुनां विपाशां
    सरस्वतीं नैमिशगोमतीं वा ।
तत्रावगाह्यार्चनमादरेण
    कृत्वा पितॄणां दुरितानि हन्ति ॥ १८ ॥
गंगा, शतद्रू, यमुना, विपाशा, सरस्वती और नैमिषारण्यस्थिता गोमतीमें स्नान करके पितृगणका आदरपूर्वक अर्चन करनेसे मनुष्य समस्त पापोंको नष्ट कर देता है ॥ १८ ॥

गायन्ति चैतत्पितरः कदानु
    वर्षामघातृप्तिमवाप्य भूयः ।
माघासितान्ते शुभतीर्थतोयै-
    र्यास्याम तृप्तिं तनयादिदत्तैः ॥ १९ ॥
पितृगण सर्वदा यह गान करते हैं कि वर्षाकाल (भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी)-के मघानक्षत्रमें तृप्त होकर फिर माघकी अमावास्याको अपने पुत्र-पौत्रादिद्वारा दी गयी पुण्यतीर्थोकी जलांजलिसे हम कब तृप्ति लाभ करेंगे ॥ १९ ॥

चित्तं च वित्तं च नृणां विशुद्धं
    शस्तं च कालः कथितो विधिश्च ।
पात्रं यथोक्तं परमा च भक्ति-
    र्नृणां प्रयच्छन्त्यभिवाञ्छितानि ॥ २० ॥
विशुद्ध चित्त, शुद्ध धन, प्रशस्त काल, उपर्युक्त विधि, योग्य पात्र औरपरम भक्ति-ये सब मनुष्यको इच्छित फल देते हैं ॥ २० ॥

पितृगीतान्तथैवात्र श्लोकांस्तञ्छृणु पार्थिव ।
श्रुत्वा तथैव भवता भाव्यं तत्रादृतात्मना ॥ २१ ॥
हे पार्थिव ! अब तुम पितृगणके गाये हुए कुछ श्लोकोंका श्रवण करो, उन्हें सुनकर तुम्हें आदरपूर्वक वैसा ही आचरण करना चाहिये ॥ २१ ॥

अपि धन्यः कुले जायादस्माकं मतिमान्नरः ।
अकुर्वन्वित्तशाठ्यं यः पिण्डान्नो निर्वपिष्यति ॥ २२ ॥
[पितृगण कहते हैं-] 'हमारे कुलमें क्या कोई ऐसा मतिमान् धन्य पुरुष उत्पन्न होगा जो वित्तलोलुपताको छोड़कर हमें पिण्डदान देगा ॥ २२ ॥

रत्‍नं वस्त्रं महायानं सर्वभोगादिकं वसु ।
विभवे सति विप्रेभ्यो योऽस्मानुद्दिश्य दास्यति ॥ २३ ॥
जो सम्पत्ति होनेपर हमारे उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको रत्न, वस्त्र, यान और सम्पूर्ण भोगसामग्री देगा ॥ २३ ॥

अन्नेन वा यथाशक्त्या कालेऽस्मिन्भक्तिनम्रधीः ।
भोजयिष्यति विप्राग्र्यांस्तन्मात्रविभवो नरः ॥ २४ ॥
अथवा अन्न-वस्त्र मात्र वैभव होनेसे जो श्राद्धकालमें भक्ति-विनम्र चित्तसे उत्तम ब्राह्मणोंको यथाशक्ति अन्न ही भोजन करायेगा ॥ २४ ॥

असमर्थोन्नदानस्य धान्यमामं स्वशक्तितः ।
प्रदास्यति द्विजाग्रेभ्यः स्वल्पाल्पां वापि दक्षिणाम् ॥ २५ ॥
या अन्नदानमें भी असमर्थ होनेपर जो ब्राह्मण श्रेष्ठोंको कच्चा धान्य और थोड़ी-सी दक्षिणा ही देगा ॥ २५ ॥

तत्राप्यसामर्थ्ययुतः कराग्राग्रस्थितांस्तिलान् ।
प्रणम्य द्विजमुख्याय कस्मैचिद्‍भूप दास्यति ॥ २६ ॥
और यदि इसमें भी असमर्थ होगा तो किन्हीं द्विजश्रेष्ठको प्रणाम कर एक मुट्ठी तिल ही देगा ॥ २६ ॥

तिलैः सप्ताष्टभिर्वापि समवेतं जलाञ्जलिम् ।
भक्तिनम्रः समुद्दिश्य भुव्यस्माकं प्रदास्यति ॥ २७ ॥
अथवा हमारे उद्देश्यसे पृथिवीपर भक्ति-विनम्र चित्तसे सात-आठ तिलोंसे युक्त जलांजलि ही देगा ॥ २७ ॥

यतः कुताश्चित्सम्प्राप्य गोभ्यो वापि गवाह्निकम् ।
अभावे प्रीणयन्नस्माञ्च्छ्रद्धायुक्तः प्रदास्यति ॥ २८ ॥
और यदि इसका भी अभाव होगा तो कहीं-न-कहींसे एक दिनका चारा लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उद्देश्यसे गौको खिलायेगा ॥ २८ ॥

सर्वाभावे वनं गत्वा कक्षमूलप्रदर्शकः ।
सूर्यादिलोकपालानामिदमुच्चेर्वदिष्यति ॥ २९ ॥
तथा इन सभी वस्तुओका अभाव होनेपर जो बनमें जाकर अपने कक्षमूल (बगल) को दिखाता हुआ सूर्य आदि दिक्पालोंसे उच्च स्वरसे यह कहेगा ॥ २९ ॥

न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्य-
    च्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितॄन्नतोस्मि ।
तृप्यन्तु भक्तया पितरो मयैतौ
    कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ॥ ३० ॥
'मेरे पास श्राद्धकर्मके योग्य न वित्त है, न धन है और न कोई अन्य सामग्री है, अतः मैं अपने पितृगणको नमस्कार करता हूँ, वे मेरी भक्तिसे ही तृप्ति लाभ करें । मैंने अपनी दोनों भुजाएँ आकाशमें उठा रखी हैं" ॥ ३० ॥

और्व उवाच
इत्येतत्पितृभिर्गीतं भावाभावप्रयोजनम् ।
यः करोति कृतं तेन श्राद्धं भवति पार्थिव ॥ ३१ ॥
और्व बोले-हे राजन् ! धनके होने अथवा न होनेपर पितृगणने जिस प्रकार बतलाया है वैसा ही जो पुरुष आचरण करता है वह उस आचारसे विधिपूर्वक श्राद्ध ही कर देता है ॥ ३१ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे चतुर्दशोऽध्यायः (१४)
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥



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