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॥ विष्णुपुराणम् ॥ चतुर्थः अंशः ॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच यावच्च ब्रह्मलोकात्स ककुद्मी रैवतो नाभ्येति तावत्पुण्यजनसंज्ञा राक्षसास्तामस्य पुरीं कुशस्थलीं नजघ्नुः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-जिस समय रैवत ककुद्यी ब्रह्मलोकसे लौटकर नहीं आये थे उसी समय पुण्यजन नामक राक्षसोंने उनकी पुरी कुशस्थलीका ध्वंस कर दिया ॥ १ ॥ तच्चास्य भ्रातृशतं पुण्यजनत्रासाद्दिशो भेजे ॥ २ ॥ उनके सौ भाई पुण्यजन राक्षसोंके भवसे दसों दिशाओंमें भाग गये ॥ २ ॥ तदन्वयाश्च क्षत्रियाःसर्वदिक्ष्वभवन् ॥ ३ ॥ उन्हींके वंशमें उत्पन्न हुए क्षत्रियगण समस्त दिशाओंमें फैले ॥ ३ ॥ धृष्टस्यापि धार्ष्टकं क्षत्रमभवत् ॥ ४ ॥ धृष्टके वंशमें धाटक नामक क्षत्रिय हुए ॥ ४ ॥ नाभागस्यात्मजो नाभागसंज्ञोभवत् ॥ ५ ॥ तस्याप्यम्बरीषः ॥ ६ ॥ अम्बरीषस्यापि विरूपोऽभवत् ॥ ७ ॥ विरूपात्पृषदश्वो जज्ञे ॥ ८ ॥ ततश्च रथीतरः ॥ ९ ॥ नाभागके नाभाग नामक पुत्र हुआ, नाभागका अम्बरीष और अम्बरीषका पुत्र विरूप हुआ । विरूपसे पृषदश्वका जन्म हुआ तथा उससे रथीतर हुआ ॥ ५-९ ॥ आत्रायं श्लोकः - एते क्षत्रप्रसूता वै पुनश्चाङ्गिरसाः स्मृता । रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः ॥ १० ॥ रथीतरके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है-'रथीतरके वंशज क्षत्रिय सन्तान होते हुए भी आंगिरस कहलाये; अत: वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए' ॥ १० ॥ क्षुतवतश्च मनोरिक्ष्वाकुः पुत्रो जज्ञे घ्राणतः ॥ ११ ॥ छींकनेके समय मनुकी प्राणेन्द्रियसे इक्ष्वाकु नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥ ११ ॥ तस्य पुत्रशतप्रधाना विकुक्षिनिमिदण्डाख्यास्त्रयः पुत्रा बभूवुः ॥ १२ ॥ शकुनिप्रमुखाः पञ्चाशत्पुत्राः उत्तरापथरक्षितारो बभूवुः ॥ १३ ॥ चत्वारिंशदष्टौ च दक्षिणापथभूपालाः ॥ १४ ॥ उनके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड नामक तीन पुत्र प्रधान हुए तथा उनके शकुनि आदि पचास पुत्र उत्तरापथके और शेष अड़तालीस दक्षिणापथके शासक हुए ॥ १२-१४ ॥ स चेक्ष्वाकुरष्टकायाश्श्राद्धमुत्पाद्य श्राद्धार्हं मांसमानयेति विकुक्षिमाज्ञापयामास ॥ १५ ॥ इक्ष्वाकुने अष्टकाश्राद्धका आरम्भ कर अपने पुत्र विकुक्षिको आज्ञा दी कि श्राद्धके योग्य मांस लाओ ॥ १५ ॥ स तथे ति गृहीताज्ञो विधृतशारासनो वनमभ्येत्यानेकशो मृगान् हत्वा श्रान्तोऽतिक्षुत्परीतो विकुक्षिरेकं शशमभक्षयत् । शेषं च मांसमानीय पित्रेनिवेदयामास ॥ १६ ॥ उसने 'बहुत अच्छा' कह उनकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और धनुष-बाण लेकर वनमें आ अनेकों मृगोंका वध किया, किन्तु अति थका-माँदा और अत्यन्त भूखा होनेके कारण विकुक्षिने उनमेंसे एक शशक (खरगोश) खा लिया और बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको निवेदन किया ॥ १६ ॥ इक्ष्वाकुकुलाचार्यो वशिष्ठस्तत्प्रोक्षणाय चोदितः प्राह । अलमनेनामेध्येनामिषेण दुरात्मना तव पुत्रेणैतन्मांसमुपहतं यतोऽनेन शशो भक्षितः ॥ १७ ॥ उस मांसका प्रोक्षण करनेके लिये प्रार्थना किये जानेपर इक्ष्वाकुके कुल-पुरोहित वसिष्ठजीने कहा-"इस अपवित्र मांसकी क्या आवश्यकता है ? तुम्हारे दुरात्मा पुत्रने इसे भ्रष्ट कर दिया है, क्योंकि उसने इसमेंसे एक शशक खा लिया है" ॥ १७ ॥ ततश्चासौ विकुक्षिर्गुरूणैवमुक्तः शशादसंज्ञामवाप पित्रा च परित्यक्तः ॥ १८ ॥ गुरुके ऐसा कहनेपर, तभीसे विकुक्षिका नाम शशाद पड़ा और पिताने उसको त्याग दिया ॥ १८ ॥ पितर्युपरते चासावखिलामेतां पृथ्वीं धर्मतः शशास ॥ १९ ॥ पिताके मरनेके अनन्तर उसने इस पृथिवीका धर्मानुसार शासन किया ॥ १९ ॥ शशादस्य तस्य पुरञ्जयोनाम पुत्रोभवत् ॥ २० ॥ उस शशादके पुरंजय नामक पुत्र हुआ ॥ २० ॥ तस्येदं चान्यत् ॥ २१ ॥ पुरंजयका भी यह एक दूसरा नाम पड़ा- ॥ २१ ॥ पुरा हि त्रेतायां देवासुरयुद्धमतिभीषणमभवत् ॥ २२ ॥ पूर्वकालमें त्रेतायुगमें एक बार अति भीषण देवासुरसंग्राम हुआ ॥ २२ ॥ तत्र चातिबलिभिरसुरैरमराः पराजितास्ते भगवन्तं विष्णुमाराधयाञ्चक्रुः ॥ २३ ॥ उसमें महाबलवान् दैत्यगणसे पराजित हुए देवताओंने भगवान् विष्णुको आराधना की ॥ २३ ॥ प्रसन्नश्च देवानामनादिनिधनोऽखिलजमत्परायणो नारायणः प्राह ॥ २४ ॥ तब आदि-अन्त-शून्य, अशेष जगत्प्रतिपालक, श्रीनारायणने देवताओंसे प्रसन्न होकर कहा- ॥ २४ ॥ ज्ञातमेतन्मया युष्माभिर्यदभिलषितं तदर्थमिदं श्रूयताम् ॥ २५ ॥ "आपलोगोंका जो कुछ अभीष्ट है वह मैंने जान लिया है । उसके विषय में यह बात सुनिये-- ॥ २५ ॥ पुरञ्जयो नाम राजर्षेः शशादस्य तनयः क्षत्रियवरो यस्तस्य शरीरेऽहमंशेन स्वयमेवावतीर्य तानशेषनसुरान्निहनिष्यामि तद्भवद्भिः पुरञ्जयोऽसुरवधार्थमुद्योगं कार्यतामिति ॥ २६ ॥ राजर्षि शशादका जो पुरंजय नामक पुत्र है उस क्षत्रिय श्रेष्ठके शरीरमें मैं अंशमात्रसे स्वयं अवतीर्ण होकर उन सम्पूर्ण दैत्योंका नाश करूँगा । अतः तुमलोग पुरंजयको दैत्योंके वधके लिये तैयार करो" ॥ २६ ॥ एतच्च श्रुत्वा प्रणम्य भगवन्तं विष्णुममराः पुरञ्जयसकाशमाजग्मुरूचुश्चैनम् ॥ २७ ॥ यह सुनकर देवताओंने विष्णुभगवानको प्रणाम किया और पुरंजयके पास आकर उससे कहा- ॥ २७ ॥ भो भो क्षत्रियवर्यास्माभिरभ्यर्थितेन भवतास्माकमरातिवधोद्यतानां कर्तव्यं साहाय्यमिच्छामस्तद्भवतास्माकमभ्यागतानां प्रणयभङ्गो न कार्य इत्युक्तः पुरंजयः प्राह ॥ २८ ॥ "हे क्षत्रिय श्रेष्ठ ! हमलोग चाहते हैं कि अपने शत्रुओंके वधमें प्रवृत्त हमलोगोंकी आप सहायता करें । हम अभ्यागत जोंका आप मानभंग न करें । " यह सुनकर पुरंजयने कहा- ॥ २८ ॥ त्रैलोक्यनाथो योयं युष्माकमिद्रः शतक्रतुरस्य यद्यहं स्कन्धाधिरूढो युष्माकमरातिभिःसह योत्स्ये तदहं भवतां सहायः स्याम् ॥ २९ ॥ "ये जो त्रैलोक्यनाथ शतक्रतु आपलोगोंके इन्द्र हैं यदि मैं इनके कन्धेपर चढ़कर आपके शत्रुओंसे युद्ध कर सकूँतो आपलोगोंका सहायक हो सकता हूँ" ॥ २९ ॥ इत्याकर्ण्य समस्तदेवैरिन्द्रेण च बाढमित्येवं समन्वीप्सितम् ॥ ३० ॥ यह सुनकर समस्त देवगण और इन्द्रने 'बहुत अच्छा'-ऐसा कहकर उनका कथन स्वीकार कर लिया ॥ ३० ॥ ततश्च शतक्रतोर्वृषरूपधारीणः ककुदि स्थितोऽतिरोषसमन्वितो भगवतश्चराचरगुरोरच्युतस्य तेजसाप्यायितो देवासुरसङ्ग्रामे समस्तानेवासुरान्निजघान ॥ ३१ ॥ फिर वृषभ-रूपधारी इन्द्रकी पीठपर चढ़कर चराचरगुरु भगवान् अच्युतके तेजसे परिपूर्ण होकर राजा पुरंजयने रोषपूर्वक सभी दैत्योंको मार डाला ॥ ३१ ॥ यतश्च वृषभककुदि स्थितेन राज्ञा दैतेयबलं निषूदितमतश्चासौ ककुत्स्थसंज्ञामवाप ॥ ३२ ॥ उस राजाने बैलके ककुद् (कन्धे)-पर बैठकर दैत्यसेनाका वध किया था, अत: उसका नाम ककुत्स्थ पड़ा ॥ ३२ ॥ ककुत्स्थस्याप्यनेनाः पुत्रोऽभवत् ॥ ३३ ॥ ककुत्स्थके अनेना नामक पुत्र हुआ ॥ ३३ ॥ पुथुनेनसः ॥ ३४ ॥ पुथोर्विष्टराश्वः ॥ ३५ ॥ तस्यापि चान्द्रो युवनाश्वः ॥ ३६ ॥ चान्द्रस्य तस्य युवनाश्वस्य शावस्तः यः पुरीं शावस्तीं निवेशयामास ॥ ३७ ॥ अनेनाके पृथु, पृथुके विष्टराश्व, उनके चान्द्र युवनाश्व तथा उस चान्द्र युवनाश्वके शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने शावस्ती पुरी बसायी थी ॥ ३४-३७ ॥ शावस्तस्य बृहदश्वः ॥ ३८ ॥ तस्यापि कुवालायाश्वः ॥ ३९ ॥ योऽसावुदकस्य महर्षेरपकारिणं धुन्धुनामानमसुरं वैष्णवेन तेजसाप्यायितः पुत्रसहस्रैरेकविंशद्भिः परिवृतो जघान धुन्धुमारसंज्ञामवाप ॥ ४० ॥ शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्वके कुवलयाश्वका जन्म हुआ, जिसने वैष्णवतेजसे पूर्णता लाभ कर अपने इक्कीस सहसा पुत्रोंके साथ मिलकर महर्षि उदकके अपकारी धुन्धु नामक दैत्यको मारा था; अतः उनका नाम धुन्धुमार हुआ ॥ ३८-४० ॥ तस्य च तनयास्समस्ता एव धुन्धुमुखनिश्वासाग्निना विप्लुष्टा विनेशुः ॥ ४१ ॥ उनके सभी पुत्र धुन्धुके मुखसे निकले हुए नि:श्वासाग्निसे जलकर मर गये ॥ ४१ ॥ दृढाश्वचन्द्राश्वकपिलाश्वाश्च त्रयः केवलं शेषिताः ॥ ४२ ॥ उनमेंसे केवल दृढाश्व, चन्द्राश्व और कपिलाश्व-ये तीन ही बचे थे ॥ ४२ ॥ वृढाश्वाद्धर्यश्वः ॥ ४३ ॥ तस्माच्च निकुम्भः ॥ ४४ ॥ निकुम्भस्यामिताश्वः ॥ ४५ ॥ ततश्च कृशाश्वः ॥ ४६ ॥ तस्माच्च प्रसेनजित् ॥ ४७ ॥ प्रसेनजितो युवनाश्वोऽभवत् ॥ ४८ ॥ दृढाश्वसे हर्यश्व, हर्यश्वसे निकुम्भ, निकुम्भसे अमिताश्व, अमिताश्वसे कृशाश्व, कृशाश्वसे प्रसेनजित् और प्रसेनजित्से युवनाश्वका जन्म हुआ ॥ ४३-४८ ॥ तस्य चापुत्रस्यातिनिर्वेदान्मुनीनामाश्रममण्डले निवसतो दयाभिर्मुनिभिरपत्योत्पादनायेष्टिः कृता ॥ ४९ ॥ युवनाश्व नि:सन्तान होनेके कारण खिन्न चित्तसे मुनीश्वरोंके आश्रमोंमें रहा करता था; उसके दुःखसे द्रवीभूत होकर दयालु मुनिजनोंने उसके पुत्र उत्पन्न होनेके लिये यज्ञानुष्ठान किया ॥ ४९ ॥ तस्यां च मध्यारात्रौ निवृत्तायां मन्त्रपूतजलपूर्णं कलशं वेदिमध्ये निवेश्य ते मुनयः सुषुपुः ॥ ५० ॥ आधी रातके समय उस यज्ञके समाप्त होनेपर मुनिजन मन्त्रपूत जलका कलश वेदीमें रखकर सो गये ॥ ५० ॥ सुप्तेषु तेषु अतीव तृट्परीतः स भूपालस्तमाश्रमं विवेश ॥ ५१ ॥ सुप्तांश्च तानृषीन्नैवोत्थापयामास ॥ ५२ ॥ उनके सो जानेपर अत्यन्त पिपासाकुल होकर राजाने उस स्थानमें प्रवेश किया । और सोये होनेके कारण उन ऋषियोंको उन्होंने नहीं जगाया ॥ ५१-५२ ॥ तच्च कलशमपरिमेयमाहात्म्यमन्त्रपूतं पपौ ॥ ५३ ॥ तथा उस अपरिमित माहात्म्यशाली कलशके मन्त्रपूत जलको पी लिया ॥ ५३ ॥ प्रबुद्धाश्च ऋषयः पप्रच्छुः केनैतन्मन्त्रपूतं वारि पीतम् ॥ ५४ ॥ जागनेपर ऋषियोंने पूछा-'इस मन्त्रपूत जलको किसने पिया है ? ॥ ५४ ॥ अत्र हि राज्ञो युवनास्वश्य पत्नी महाबलपराक्रमं पुत्रं जनयिष्यति । इत्याकर्ण्य स राजा अजानता मया पीतमित्याह ॥ ५५ ॥ इसका पान करनेपर ही युवनाश्वकी पत्नी महाबलविक्रमशील पुत्र उत्पन्न करेगी । ' यह सुनकर राजाने कहा-"मैंने ही बिना जाने यह जल पी लिया है" ॥ ५५ ॥ गर्भश्च युवनाश्वस्योदरे अभवत् क्रमेण च ववृधे ॥ ५६ ॥ अतः युवनाश्वके उदरमें गर्भ स्थापित हो गया और क्रमशः बढ़ने लगा ॥ ५६ ॥ प्राप्तसमयश्च दक्षिण कुक्षिमवनिपतेर्निर्भिद्य निश्चक्राम ॥ ५७ ॥ यथासमय बालक राजाकी दायीं कोख फाड़कर निकल आया ॥ ५७ ॥ स चासौ राजा ममार ॥ ५८ ॥ किन्तु इससे राजाकी मृत्यु नहीं हुई ॥ ५८ ॥ जातो नामैष कं धास्यतीति ते मुनयः प्रोचुः ॥ ५९ ॥ उसके जन्म लेनेपर मुनियोंने कहा-"यह बालक क्या पान करके जीवित रहेगा ?" ॥ ५९ ॥ अथागत्य देवराजोब्रजीत् मामयं धास्यतीति ॥ ६० ॥ उसी समय देवराज इन्द्रने आकर कहा-"यह मेरे आश्रय-जीवित रहेगा ॥ ६० ॥ ततो मान्धातृनामा सोभवत् । वक्रे चास्य प्रदेशिनी न्यस्ता देवेन्द्रेण न्यस्ता तां पपौ ॥ ६१ ॥ तां चामृतस्त्राविणीमास्वाद्याह्नैव स व्यवर्धत ॥ ६२ ॥ अतः उसका नाम मान्धाता हुआ । देवेन्द्रने उसके मुख में अपनी तर्जनी (अँगूठेके पासकी) अँगुली दे दी और वह उसे पीने लगा । उस अमृतमयी अंगुलीका आस्वादन करनेसे वह एक ही दिनमें बढ़ गया ॥ ६१-६२ ॥ ततस्तु मान्धाता चक्रवर्ती सप्तद्वीपां महीं बुभुजे ॥ ६३ ॥ तभीसे चक्रवर्ती मान्धाता सप्तद्वीपा पृथिवीका राज्य भोगने लगा ॥ ६३ ॥ तत्रायं श्लोकः ॥ ६४ ॥ इसके विषयमें यह श्लोक कहा जाता है ॥ ६४ ॥ यावत्सूर्य उदेत्यस्तं यावच्च प्रतितिष्ठति । सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ६५ ॥ 'जहाँसे सूर्य उदय होता है और जहाँ अस्त होता है वह सभी क्षेत्र युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका है' ॥ ६५ ॥ मान्धाता शतबिन्दोर्दुहितरं बुन्दुमतीमुपयेमे ॥ ६६ ॥ पुरुकुत्समम्बरीषं मुचुकुन्दं च तस्यां पुत्रत्रयमुत्पादयामास ॥ ६७ ॥ पञ्चाशद्दुहितरस्तस्यामेव तस्य नृपतेर्बभूवुः ॥ ६८ ॥ मान्धाताने शतबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमतीसे विवाह किया और उससे पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये तथा उसी (बिन्दुमती)से उनके पचास कन्याएँ हुई ॥ ६६-६८ ॥ तस्मिन्नन्तरे बह्वृचश्च सौभरिर्नाम महर्षिरन्तर्जले द्वादशाब्दं कालमुवास ॥ ६९ ॥ उसी समय बच सौभरि नामक महर्षिने बारह वर्षतक जलमें निवास किया ॥ ६९ ॥ तत्र चान्तर्जले संमदो नामातिबहुप्रजोतिमात्रप्रमाणो मीनाधिपतिरासीत् ॥ ७० ॥ उस जलमें सम्मद नामक एक बहुत-सी सन्तानोंवाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था ॥ ७० ॥ तस्य च पुत्रपौत्रदौहित्राः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वयोः पक्षपुच्छशिरसां चोपरि भ्रमन्तस्तेनैव सदाहर्निशमतिनिर्वृत्ता रेमिरे ॥ ७१ ॥ उसके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि उसके आगे-पीछे तथा इधर-उधर पक्ष, पुच्छ और सिरके ऊपर घूमते हुए अति आनन्दित होकर रात-दिन उसीके साथ क्रीडा करते रहते थे ॥ ७१ ॥ स चापत्यस्पर्शोपचीयमानप्रहर्षप्रकर्षो बहुप्रकारं तस्य ऋषेः पश्यतस्तैरात्मजपुत्रपौत्रदौहित्रादिभिः सहानुदिनं सुरां रेमे ॥ ७२ ॥ तथा वह भी अपनी सन्तानके सुकोमल स्पर्शसे अत्यन्त हर्षयुक्त होकर उन मुनिश्वरके देखते-देखते अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अहर्निश क्रीडा करता रहता था ॥ ७२ ॥ अथान्तर्जलावस्थितःसौभरिरेकाग्रतःसमाधिमपहायानुदिनं तस्य मत्स्यस्यात्मजपुत्रपौत्रदौहित्रादिभिःसहातीरमणीयतातामवेक्ष्याचिन्तयत् ॥ ७३ ॥ इस प्रकार जलमें स्थित सौभरि ऋषिने एकाग्रतारूप समाधिको छोड़कर रात-दिन उस मत्स्यराजकी अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अति रमणीय क्रीडाओंको देखकर विचार किया- ॥ ७३ ॥ अहो धन्योयमीदृशमनभिमतं योन्यन्तरमवाप्यैभिरात्मजपुत्रपौत्रदौहित्रादिभिः सह रममाणोऽतीवास्माकं स्पृहामुत्पादयति ॥ ७४ ॥ 'अहो ! यह धन्य है, जो ऐसी अनिष्ट योनिमें उत्पन्न होकर भी अपने इन पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदयमें डाह उत्पन्न करता है । ७४ ॥ वयमप्येवं पुत्रादिभिः सह ललितं रंस्यामहे इत्येवमभिकाङ्क्षन् स तस्मादन्तर्जलान्निष्क्रम्य सन्तानाय निवेष्टुकामः कन्यार्थं मान्धातारं राजानमगच्छत् ॥ ७५ ॥ हम भी इसी प्रकार अपने पुत्रादिके साथ अति ललित क्रीडाएँ करेंगे । ' ऐसी अभिलाषा करते हुए वे उस जलके भीतरसे निकल आये और सन्तानार्थ गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी कामनासे कन्या ग्रहण करनेके लिये राजा मान्धाताके पास आये ॥ ७५ ॥ आगमनश्रवणसमनन्तरं चोत्थाय तेन राज्ञा सम्यगर्घ्यादिना सम्पूजितः कृतासनपरिग्रहः सौभरिरुवाच राजानम् ॥ ७६ ॥ मुनिवरका आगमन सुन राजाने उठकर अर्घ्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया । तदनन्तर सौभरि मुनिने आसन ग्रहण करके राजासे कहा ॥ ७६ ॥ सौभरिरुवाच - निवेष्टुकामोऽस्मि नरेन्द्र कन्यां प्रयच्छ मे मा प्रणयं विभाङ्क्षीः । न ह्यर्थिनः कार्यवशादुपेताः ककुत्स्थवंशे विमुखा प्रयान्ति ॥ ७७ ॥ सौभरिजी बोले-हे राजन् ! मैं कन्या-परिग्रहका अभिलाषी हूँ, अतः तुम मुझे एक कन्या दो; मेरा प्रणय भंग मत करो । ककुत्स्थवंशमें कार्यवश आया हुआ कोई भी प्रार्थी पुरुष कभी खाली हाथ नहीं लौटता ॥ ७७ ॥ अन्येपि सन्त्येव नृपाः पृतिव्यां मान्धातरेषां तनयाः प्रसूताः । किं त्वर्थिनामर्थितदानदीक्षा- कृतव्रतं श्लाघ्यमिदं कुलं ते ॥ ७८ ॥ हे मान्धाता ! पृथिवीतलमें और भी अनेक राजालोग हैं और उनके भी कन्याएँ उत्पन्न हुई हैं; किंतु याचकोंको माँगी हुई वस्तु दान देनेके नियममें दृढप्रतिज्ञ तो यह तुम्हारा प्रशंसनीय कुल ही है ॥ ७८ ॥ शतार्धसंख्यास्तव सन्ति कन्या- स्तासां ममैकां नृपते प्रयच्छ । यत्प्रार्थनाभङ्गभयाद्बिभेमि तस्मादहं राजवरादिदुःखात् ॥ ७९ ॥ हे राजन् ! तुम्हारे पचास कन्याएँ हैं, उनमेंसे तुम मुझे केवल एक ही दे दो । हे नृपश्रेष्ठ ! मैं इस समय प्रार्थनाभंगकी आशंकासे उत्पन्न अतिशय दु:खसे भयभीत हो रहा हूँ ॥ ७९ ॥ श्रीपराशर उवाच इति ऋषिवचनमाकर्ण्य स राजा जरार्जरित देहमृषिमालोक्य प्रत्याख्यानकातरस्तस्माच्च शापभीतो बिभ्यत्किञ्चिदधोमुखश्चिरं दध्यौ च ॥ ८० ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऋषिके ऐसे वचन सुनकर राजा उनके जराजीणं देहको देखकर शापके भयसे अस्वीकार करनेमें कातर हो उनसे डरते हुए कुछ नीचेको मुख करके मनही-मन चिन्ता करने लगे ॥ ८० ॥ सौभरिरुवाच नरेद्रकस्मात्सुमुपैषि चीन्ता- मह्यमुक्तं न मयात्र किञ्चित् । यावश्यदेया तनया तयैव कृतार्थता नो यदि किं न लब्धा ॥ ८१ ॥ सौभरिजी बोले-हे नरेन्द्र ! तुम चिन्तित क्यों होते हो ? मैंने इसमें कोई असहा बात तो कही नहीं है; जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनी ही है उससे ही यदि हम कृतार्थ हो सकें तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर सकते हो ? ॥ ८१ ॥ श्रीपराशर उवाच अथ तस्य भगवतः शापभीतः स प्रश्रयस्तमुवाचासौ राजा ॥ ८२ ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब भगवान् सौभरिके शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्रतापूर्वक उनसे कहा ॥ ८२ ॥ राजोवाच भगवन् अस्मत्कुलस्थितिरियं य एव कन्याभिरुचितोऽभिजनवान्वरस्तस्मै कन्या प्रदीयते भगवद्याच्ञा चास्मन्मनोरथानामप्यतिगोचरवर्तिनी कथमप्येषा संजाता तदेवमुपस्थिते न विद्मः किं कुर्म इत्येतन्मया चिन्त्यत इत्यभिहिते च तेन भूभुजा मुनिरचिन्तयत् ॥ ८३ ॥ राजा बोले-भगवन् ! हमारे कुलकी यह रीति है कि जिस सत्कुलोत्पन्न वरको कन्या पसन्द करती है वह उसीको दी जाती है । आपकी प्रार्थना तो हमारे मनोरथोंसे भी परे है । न जाने, किस प्रकार यह उत्पन्न हुई है ? ऐसी अवस्थामें मैं नहीं जानता कि क्या करूँ ? बस, मुझे यही चिन्ता है । महाराज मान्धाताके ऐसा कहनेपर मुनिवर सौभरिने विचार किया- ॥ ८३ ॥ अयमन्योऽस्मत्प्रत्याख्यानोपायो वृद्धोयमनभिमतः स्त्रीणां किमुत कन्याकानामित्यमुना सञ्चिन्त्यैतदभिहितमेवमस्तु तथा करिष्यामीति सञ्चिन्त्य मान्धातारमुवाच ॥ ८४ ॥ "मुझको टाल देनेका यह एक और ही उपाय है । 'यह बूढ़ा है, प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी इसे पसन्द नहीं कर सकतीं, फिर कन्याओंकी तो बात ही क्या है ?' ऐसा सोचकर ही राजाने यह बात कही है । अच्छा, ऐसा ही सही, मैं भी ऐसा ही उपाय करूँगा । ' यह सब सोचकर उन्होंने मान्धातासे कहा- ॥ ८४ ॥ यद्येवं तदादिश्यतामस्माकं प्रवेशाय । कन्यान्तःपुरवर्षवरो यदि कन्यैव काचिन्मामभिलषति तदाहं दारसङ्ग्रहं करिष्यामि अन्यथा चेत्तदलमस्माकमेतेनातीतकालारम्भणेनेत्युक्त्वा विरराम ॥ ८५ ॥ "यदि ऐसी बात है तो कन्याओंके अन्तःपुर रक्षक नपुंसकको वहाँ मेरा प्रवेश करानेके लिये आज्ञा दो । यदि कोई कन्या ही मेरी इच्छा करेगी तो ही मैं स्त्री-ग्रहण करूँगा नहीं तो इस ढलती अवस्थामें मुझे इस व्यर्थ उद्योगका कोई प्रयोजन नहीं है । " ऐसा कहकर वे मौन हो गये । ८५ ॥ ततश्च मान्धात्रा मुनिशापशङ्कितेन कन्यान्तःपुरवर्षवरःसमाज्ञप्तः ॥ ८६ ॥ तब मुनिके शापकी आशंकासे मान्धाताने कन्याओंके अन्तःपुर-रक्षकको आज्ञा दे दी ॥ ८६ ॥ तेन सह कन्यान्तःपुरं प्रविशान्नेव भगवानखिलसिद्धगन्धर्वेभ्योतिशयेन कमनीयं रूपमकरोत् ॥ ८७ ॥ उसके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश करते हुए भगवान् सौभरिने अपना रूप सकल सिद्ध और गन्धर्वगणसे भी अतिशय मनोहर बना लिया ॥ ८७ ॥ प्रवेश्य च तमृषिमन्तःपुरे वर्षधरस्ताः कन्याः प्राह ॥ ८८ ॥ उन ऋषिवरको अन्तःपुरमें ले जाकर अन्तःपुररक्षकने उन कन्याओंसे कहा- ॥ ८८ ॥ भवतीनां जनयिता महाराजःसमाज्ञापयति ॥ ८९ ॥ अयमस्मान् ब्रह्मर्षिः कन्यार्थं समभ्यागतः ॥ ९० ॥ मया चास्य प्रतिज्ञातं यद्यस्मत्कन्या या काचिद्भगवन्तं वरयति तत्कन्याच्छन्दे नाहं परिपंथानं करिष्यामीत्याकर्म्य सर्वा एव ताः कन्याः सानुरागाः सप्रमदाः करेणव इवेभमृगयूथपतिं तमृषिमहमहमिकया वरयाम्बभूवुरूचुश्च ॥ ९१ ॥ "तुम्हारे पिता महाराज मान्धाताकी आज्ञा है कि ये ब्रह्मर्षि हमारे पास एक कन्याके लिये पधारे हैं और मैंने इनसे प्रतिज्ञा की है कि मेरी जो कोई कन्या श्रीमान्को वरण करेगी उसकी स्वच्छन्दतामें मैं किसी प्रकारकी बाधा नहीं डालूँगा । " यह सुनकर उन सभी कन्याओंने यूथपति गजराजका वरण करनेवाली हथिनियोंके समान अनुराग और आनन्दपूर्वक 'अकेली मैं ही-अकेली मैं ही वरण करती हूँ' ऐसा कहते हुए उन्हें वरण कर लिया । वे परस्पर कहने लगी- ॥ ८९-९१ ॥ अलं भगिन्योहमिमं वृणोमि वृणोम्यहं नैष तवानुरूपः । ममैष भर्ता विधिनैव सृष्ट - स्सृष्टाहमस्योपशमं प्रयाहि ॥ ९२ ॥ 'अरी बहिनो ! व्यर्थ चेष्टा क्यों करती हो ? मैं इनका वरण करती हूँ, ये तुम्हारे अनुरूप हैं भी नहीं । विधाताने ही इन्हें मेरा भर्ता और मुझे इनकी भार्या बनाया है । अतः तुम शान्त हो जाओ ॥ ९२ ॥ वृतो मयायं प्रथमं मयायं गृहं विशन्नेव विहन्यसे किम् । मया मयोतिक्षितिपात्मजानां तदर्थमत्यर्थकलिर्बभूव ॥ ९३ ॥ अन्तःपुरमें आते ही सबसे पहले मैंने ही इन्हें वरण किया था, तुम क्यों मरी जाती हो ?' इस प्रकार 'मैंने । वरण किया है-पहले मैंने वरण किया है' ऐसा कह-कहकर उन राजकन्याओंमें उनके लिये बड़ा कलह मच गया ॥ ९३ ॥ यदा मुनिस्ताभिरतीवहार्दाद्- वृतःस कन्याभिरनिन्द्यकीर्तिः । तदा स कन्याधिकृतो नृपाय यथावजाचष्ट विनम्रमूर्तिः ॥ ९४ ॥ जब उन समस्त कन्याओंने अतिशय अनुरागवश उन अनिन्द्यकीर्ति मुनिवरको वरण कर लिया तो कन्या रक्षकने नम्रतापूर्वक राजासे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का त्यों कह सुनाया ॥ ९४ ॥ श्रीपराशर उवाच तदवगमात्किङ्किमेतत्कथमेतत्किं किं करोमि किं मयाभिहितमित्याकुलमतिरनिच्छन्नपि कथमपि राजानुमेने ॥ ९५ ॥ कृतानुरूपविवाहश्च महर्षिःसकला एव ताः कन्याःस्वमाश्रममनयत् ॥ ९६ ॥ श्रीपराशरजी बोले-यह जानकर राजाने यह क्या कहता है ?''यह कैसे हुआ ?''मैं क्या करूँ ?''मैंने क्यों उन्हें [अन्दर जानेके लिये] कहा था ?' इस प्रकार सोचते हुए अत्यन्त व्याकुल चित्तसे इच्छा न होते हुए भी जैसेतैसे अपने वचनका पालन किया और अपने अनुरूप विवाह-संस्कारके समाप्त होनेपर महर्षि सौभरि उन समस्त कन्याओंको अपने आश्रमपर ले गये । ९५-९६ ॥ तत्र चाशेषशिल्पकल्पप्रणेतारं धातारमिवान्यं विश्वकर्माणमाहूय सकलकन्यानामेकैकस्याः प्रोत्फुल्लपङ्कजाः कूजत्कलहंसकारण्डवादिविहङ्गमाभिरामजलाशयाःसोपधानाः । सावकाशाःसाधुशय्यापरिच्छदाः प्रासादाः क्रियन्तामित्यादिदेश ॥ ९७ ॥ वहाँ आकर उन्होंने दूसरे विधाताके समान अशेषशिल्प-कल्प-प्रणेता विश्वकर्माको बुलाकर कहा कि इन समस्त कन्याओंमेंसे प्रत्येकके लिये पृथक्-पृथक् महल बनाओ, जिनमें खिले हुए कमल और कूजते हुए सुन्दर हंस तथा कारण्डव आदि जल-पक्षियोंसे सुशोभित जलाशय हों, सुन्दर उपधान (मसनद), शय्या और परिच्छद (ओढ़नेके वस्त्र) हों तथा पर्याप्त खुला हुआ स्थान हो ॥ ९७ ॥ तच्च तथैवानुष्ठितमशेषशिल्पविसेषाचार्यस्त्वष्टा दर्शितवान् ॥ ९८ ॥ तब सम्पूर्ण शिल्प-विद्याके विशेष आचार्य विश्वकर्माने भी उनकी आज्ञानुसार सब कुछ तैयार करके उन्हें दिखलाया ॥ ९८ ॥ ततः परमर्षिणा सौभरिणाज्ञप्तस्तेषु गृहेष्वनिवार्यानन्दनामामहानिधिरासाञ्चक्रे ॥ ९९ ॥ तदनन्तर महर्षि सौभरिकी आज्ञासे उन महलोंमें अनिवार्यानन्द नामकी महानिधि निवास करने लगी ॥ ९९ ॥ ततोऽनवरतेन भक्ष्यभोज्यलेह्याद्युपभोगैरागतानुगतभृत्यादीनहर्निशमशेषगृहेषु ताः क्षितिशदुहिरतो भोजयामासुः ॥ १०० ॥ तब तो उन सम्पूर्ण महलोंमें नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य और लेहा आदि सामग्रियोंसे वे राजकन्याएँ आये हुए अतिथियों और अपने अनुगत भृत्यवर्गीको तृप्त करने लगीं ॥ १०० ॥ एकदातु दुहितृस्नेहाकृष्टहृदयःस महीपतिरतिदुःखितास्ता उत सुखिता वा इति विचिन्त्य तस्य महर्षेराश्रमसमीपमुपेत्य स्फुरदंशुमालाललामां स्फटिकमयप्रासादमालामतिरम्योपवनजलाशयां ददर्श ॥ १०१ ॥ एक दिन पुत्रियोंके स्नेहसे आकर्षित होकर राजा मान्धाता यह देखनेके लिये कि वे अत्यन्त दु:खी हैं या सुखी ? महर्षि सौभरिके आश्रमके निकट आये, तो उन्होंने वहाँ अति रमणीय उपवन और जलाशयोंसे युक्त स्फटिकशिलाके महलोंकी पंक्ति देखी जो फैलती हुई मयूखमालाओंसे अत्यन्त मनोहर मालूम पड़ती थी ॥ १०१ ॥ प्रविश्य चैकं प्रासादमात्मजां परिष्वज्य कृतासनपरिग्रहः प्रवृद्धस्नेहनयनाम्बुगर्भनयनोऽब्रवीत् ॥ १०२ ॥ तदनन्तर वे एक महलमें जाकर अपनी कन्याका स्नेहपूर्वक आलिंगन कर आसनपर बैठे और फिर बढ़ते हुए प्रेमके कारण नयनोंमें जल भरकर बोले- ॥ १०२ ॥ अप्यत्र वत्से भवत्याःसुखमुत किञ्चिदसुखमपि ते महर्षिःस्नेहवानुत न, स्मर्यतेस्मद्गुहवास इत्युक्ता तं तनया पितरमाह ॥ १०३ ॥ "बेटी ! तुमलोग यहाँ सुखपूर्वक हो न ? तुम्हें किसी प्रकारका कष्ट तो नहीं है ? महर्षि सौभरि तुमसे स्नेह करते हैं या नहीं ? क्या तुम्हें हमारे घरकी भी याद आती है ?" पिताके ऐसा कहनेपर उस राजपुत्रीने कहा- ॥ १०३ ॥ तातातिरमणीयः प्रासादोऽत्रातिमनोज्ञमुपवनमेते कलवाक्यविहङ्गमाभिरुताः प्रोत्फुल्लपद्माकरजलाशया मनोऽनुकूलभक्ष्यभोज्यानुलेपनवस्त्रभूषणादिभोगो मृदूनि शयनासनानि सर्वसम्पत्समेतं मे गार्हस्थ्यम् ॥ १०४ ॥ "पिताजी ! यह महल अति रमणीय है, ये उपवनादि भी अतिशय मनोहर हैं, खिले हुए कमलोंसे युक्त इन जलाशयोंमें जलपक्षिगण सुन्दर बोली बोलते रहते हैं, भक्ष्य, भोज्य आदि खाद्य पदार्थ, उबटन और वस्त्राभूषण आदि भोग तथा सुकोमल शव्यासनादि सभी मनके अनुकूल हैं; इस प्रकार हमारा गार्हस्थ्य यद्यपि सर्वसम्पत्तिसम्पन्न है ॥ १०४ ॥ तथापि केन वा जन्मभूमिर्न स्मर्यते ॥ १०५ ॥ तथापि अपनी जन्मभूमिकी याद भला किसको नहीं आती ? ॥ १०५ ॥ त्वत्प्रसादादिदमशेषमतिशोभनम् ॥ १०६ ॥ आपकी कृपासे यद्यपि सब कुछ मंगलमय है ॥ १०६ ॥ किं त्वेकं ममैतद्दुःखकारणं यदस्मद्गृहान्महर्षिरयंमद्भर्ता न निष्क्रामति ममैव केवलमतिप्रीत्या समीपपरिवर्ती नान्यासामस्मद्भगिनीनाम् ॥ १०७ ॥ तथापि मुझे एक बड़ा दुःख है कि हमारे पति ये महर्षि मेरे घरसे बाहर कभी नहीं जाते । अत्यन्त प्रीतिके कारण ये केवल मेरे ही पास रहते हैं, मेरी अन्य बहिनोंके पास ये जाते ही नहीं हैं ॥ १०७ ॥ एवं च मम सोदर्योतिदुःखिता इत्येवमतिदुःखकारणमित्युक्तस्तया द्वितीयं प्रासादमुपेत्य स्वतनयां परिष्वज्योपविष्टस्तथैव पृष्टवान् ॥ १०८ ॥ इस कारणसे मेरी बहिनें अति दुःखी होंगी । यही मेरे अति दुःखका कारण है । " उसके ऐसा कहनेपर राजाने दूसरे महलमें आकर अपनी कन्याका आलिंगन किया और आसनपर बैठनेके अनन्तर उससे भी इसी प्रकार पूछा ॥ १०८ ॥ तयापि च सर्वमेतत्तत्प्रासादाद्युपभोगसुखं भृशमाख्यातं ममैव केवलमतिप्रीत्या पार्श्वपरिवर्ती, नान्यासामस्मद्भगिनीनामित्येवमादि श्रुत्वा समस्तप्रासादेषु राजा प्रविवेश तनयां तनयां तथैवावृच्छत् ॥ १०९ ॥ उसने भी उसी प्रकार महल आदि सम्पूर्ण उपभोगोंके सुखका वर्णन किया और कहा कि अतिशय प्रीतिके कारण महर्षि केवल मेरे ही पास रहते हैं और किसी बहिनके पास नहीं जाते । इस प्रकार पूर्ववत् सुनकर राजा एक-एक करके प्रत्येक महलमें गये और प्रत्येक कन्यासे इसी प्रकार पूछा ॥ १०९ ॥ सर्वाभिश्च ताभिस्तथैवाभिहितः परितोषविस्मयनिर्भरविवशहृदयो भगवन्तं सौभरिमेकान्तावस्थितमुपेत्य कृतपृजोब्रवीत् ॥ ११० ॥ और उन सबने भी वैसा ही उत्तर दिया । अन्तमें आनन्द और विस्मयके भारसे विवशचित्त होकर उन्होंने एकान्तमें स्थित भगवान् सौभरिकी पूजा करनेके अनन्तर उनसे कहा- ॥ ११० ॥ दृष्टस्ते भगवन् सुमहानेष सिद्धिप्रभावो नैवंविधमन्यस्य कस्यचिदस्माभिर्विभूतिभिर् विलासितमुपलक्षितं यदेतद्भगवतस्तपसः फलमित्यभिपूज्य तमृषिं तत्रैव तेन ऋषिवर्येण सह किञ्चित्कालमभिमतोपभोगान् बुभुजे स्वपुरं च जगाम् ॥ १११ ॥ "भगवन् ! आपकी ही योगसिद्धिका यह महान् प्रभाव देखा है । इस प्रकारके महान् वैभवके साथ और किसीको भी विलास करते हुए हमने नहीं देखा; सो यह सब आपकी तपस्याका ही फल है । " इस प्रकार उनका अभिवादन कर वे कुछ कालतक उन मुनिवरके साथ ही अभिमत भोग भोगते रहे और अन्तमें अपने नगरको चले आये ॥ १११ ॥ कालेन गच्छता तस्य तासु राजतनयासु पुत्रशतं सार्धमभवत् ॥ ११२ ॥ कालक्रमसे उन राजकन्याओंसे सौभरि मुनिके डेढ़ सौ पुत्र हुए ॥ ११२ ॥ अनुदिनानुरूढस्नेहप्रसरश्च स तत्रातीव ममताकृष्टहृदयोऽभवत् ॥ ११३ ॥ इस प्रकार दिन-दिन स्नेहका प्रसार होनेसे उनका हृदय अतिशय ममतामय हो गया ॥ ११३ ॥ अप्येतेऽस्मत्पुत्राः कलभाषिणः पद्भ्यां गच्छेयुः अप्येते यौवनिनो भवेयुः, अपि कृतदारानेतान् पश्येयमप्येषां पुत्रा भवेयुः अप्येतत्पुत्रान्पुत्रसमन्वितान्पश्यामीत्यादिमनोरथाननुदिनं कालसम्पत्तिप्रवृद्धानुपेक्ष्यैतच्चिन्तयामास ॥ ११४ ॥ वे सोचने लगे- क्या मेरे ये पुत्र मधुर बोलीसे बोलेंगे ? अपने पाँवोंसे चलेंगे ? क्या ये युवावस्थाको प्राप्त होंगे ? उस समय क्या मैं इन्हें सपत्नीक देख सकूँगा ? फिर क्या इनके पुत्र होंगे और मैं इन्हें अपने पुत्र-पौत्रोंसे युक्त देखूगा ?' इस प्रकार कालक्रमसे दिनानुदिन बढ़ते हुए इन मनोरथोंकी उपेक्षा कर वे सोचने लगे- ॥ ११४ ॥ अहो मे मोहस्यातिविस्तारः ॥ ११५ ॥ 'अहो ! मेरे मोहका कैसा विस्तार है ॥ ११५ ॥ मनोरथानां न समाप्तिरस्ति वर्षायुतेनापि तथाब्दलक्षैः । पूर्णेषु पूर्णेषु मनोरथाना- मुत्पत्तयःसन्ति पुनर्नवानाम् ॥ ११६ ॥ इन मनोरथोंकी तो हजारों-लाखों वर्षों में भी समाप्ति नहीं हो सकती । उनमेंसे यदि कुछ पूर्ण भी हो जाते हैं तो उनके स्थानपर अन्य नये मनोरथोंकी उत्पत्ति हो जाती है ॥ ११६ ॥ पद्भ्यां गता यौवनिनश्च जाता दारैश्च संयोगमिताः प्रसूताः । दृष्टाः सुतास्तत्तनयप्रसूतिं द्रष्टुं पुनर्वाञ्च्छति मेऽन्तरात्मा ॥ ११७ ॥ मेरे पुत्र पैरोसे चलने लगे, फिर वे युवा हुए, उनका विवाह हुआ तथा उनके सन्तानें हुई-यह सब तो मैं देख चुका; किन्तु अब मेरा चित्त उन पौत्रोंके पुत्र-जन्मको भी देखना चाहता है ! ॥ ११७ ॥ द्रक्ष्यामि तेषामिति चेत्प्रसूतिं मनोरथो मे भविता ततोऽन्यः । पूर्णेऽपि तत्राप्यपरस्य जन्म निवार्यते केन मनोरथस्य ॥ ११८ ॥ यदि उनका जन्म भी मैंने देख लिया तो फिर मेरे चित्तमें दूसरा मनोरथ उठेगा और यदि वह भी पूरा हो गया तो अन्य मनोरथकी उत्पत्तिको ही कौन रोक सकता है ? ॥ ११८ ॥ आमृत्युतो नैव मनोरथाना- मन्तोऽस्ति विज्ञातमिदं मयाद्य । मनोरथासक्तिपरस्य चित्तं न जायते वै परमार्थसङ्गि ॥ ११९ ॥ मैंने अब भली प्रकार समझ लिया है कि मृत्युपर्यन्त मनोरथोंका अन्त तो होना नहीं है और जिस चित्तमें मनोरथोंकी आसक्ति होती है वह कभी परमार्थमें लग नहीं सकता ॥ ११९ ॥ स मे समाधिर्जलवासमित्र- मत्स्यस्य सङ्गात्सहसैव नष्टः । परिग्रहःसङ्गकृतो मयायं परिग्रहोत्था च ममातिलिप्सा ॥ १२० ॥ अहो ! मेरी वह समाधि जलवासके साथी मत्स्यके संगसे अकस्मात् नष्ट हो गयी और उस संगके कारण ही मैंने स्त्री और धन आदिका परिग्रह किया तथा परिग्रहके कारण ही अब मेरी तृष्णा बढ़ गयी है ॥ १२० ॥ दुःखं यदैवैकशरीरजन्म शतार्धसंख्याकमिदं प्रसूतम् । परिग्रहेण क्षितिपात्मजानां सुतैरनेकैर्बहुलीकृतं तत ॥ १२१ ॥ एक शरीरका ग्रहण करना ही महान् दुःख है और मैंने तो इन राजकन्याओंका परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया है । तथा अनेक पुत्रोंके कारण अब वह बहुत ही बढ़ गया है ॥ १२१ ॥ सुतात्मजैस्तत्तनयैश्च भूयो भूयश्च तेषां च परिग्रहेण । विस्तारमेष्यत्यदिदुःखहेतुः परिग्रहो वै ममताभिधानः ॥ १२२ ॥ अब आगे भी पुत्रोंके पुत्र तथा उनके पुत्रोंसे और उनका पुनः पुनः विवाहसम्बन्ध करनेसे वह और भी बढ़ेगा । यह ममतारूप विवाहसम्बन्ध अवश्य बड़े ही दुःखका कारण है ॥ १२२ ॥ चीर्णं तपो यत्तु जलाश्रयेण तस्यार्धिरेषा तपसोऽन्तरायः । मत्स्यस्य सङ्गादभवच्च यो मे सुतादिरागो मुषितोऽस्मि तेन ॥ १२३ ॥ जलाशयमें रहकर मैंने जो तपस्या की थी उसकी फलस्वरूपा यह सम्पत्ति तपस्याको बाधक है । मत्स्यके संगसे मेरे चित्तमें जो पुत्र आदिका राग उत्पन्न हुआ था उसीने मुझे ठग लिया ॥ १२३ ॥ निःसङ्गता मुक्तिपदं यतीनां सङ्गादशेषाः प्रभवन्ति दोषाः । आरूढयोगो विनिपात्यतेऽध- स्सङ्गेन योगी किमुताल्पबुद्धिः ॥ १२४ ॥ नि:संगता ही यतियोंको मुक्ति देनेवाली है, सम्पूर्ण दोष संगसे ही उत्पन्न होते हैं । संगके कारण तो योगारूद यति भी पतित हो जाते हैं, फिर मन्दमति मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? ॥ १२४ ॥ अहं चरिष्यामि तदात्मनोऽर्थे परिग्रहग्राहगृहीतबुद्धिः । यदा हि भूयः परिहीनदोषो जनस्य दुःखैर्भविता न दुःखी ॥ १२५ ॥ परिग्रहरूपी ग्राहने मेरी बुद्धिको पकड़ा हुआ है । इस समय मैं ऐसा उपाय करूँगा जिससे दोषोंसे मुक्त होकर फिर अपने कुटुम्बियोंके दुःखसे दुःखी न होऊँ ॥ १२५ ॥ सर्वस्य धातारम चिन्त्यरूप- मणोरणीयांसमतिप्रमाणम् । सितासितं चेश्वरमीश्वराणा- माराधयिष्ये तपसैव विष्णुम् ॥ १२६ ॥ अब मैं सबके विधाता, अचिन्त्यरूप, अणुसे भी अणु और सबसे महान् सत्त्व एवं तमःस्वरूप तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् विष्णुकी तपस्या करके आराधना करूँगा ॥ १२६ ॥ तस्मिन्नशेषौजसि सर्वरूपि- ण्यव्यक्तविस्पष्टतनावनन्ते । ममाचलं चित्तमपेतदोषं सदास्तु विष्णावमवाय भूयः ॥ १२७ ॥ उन सम्पूर्ण तेजोमय, सर्वस्वरूप, अव्यक्त, विस्पष्टशरीर, अनन्त श्रीविष्णुभगवान्में मेरा दोषरहित चित्त सदा निश्चल रहे जिससे मझे फिर जन्म न लेना पड़े ॥ १२७ ॥ समस्तभूतादमलादनन्ता- त्सर्वेश्वरादन्यदनादिमध्यात् । यस्मान्न किञ्चित्तमहं गुरूणां परं गुरुं संश्रयमेमि विष्णुमा ॥ १२८ ॥ जिस सर्वरूप, अमल, अनन्त, सर्वेश्वर और आदि-मध्यशून्यसे पृथक् और कुछ भी नहीं है उस गुरुजनोंके भी परम गुरु भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ' ॥ १२८ ॥ श्रीपराशर उवाच इत्यात्मानमात्मनैवाभिधायासौ सौभरिरपहाय पुत्रगृहासनपरिच्छदादिकमशेषमर्थजातं सकलभार्यासमन्वितो वनं प्रविवेश ॥ १२९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार मन-ही-मन सोचकर सौभरि मुनि पुत्र, गृह, आसन, परिच्छद आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको छोड़कर अपनी समस्त स्त्रियोंके सहित वनमें चले गये ॥ १२९ ॥ तत्राप्यनुदिनं वैखानसनिष्पाद्यमशेषक्रियाकलापं निष्पाद्य क्षपितसकलपापः परिपक्वमनोवृत्तिरात्मन्यग्नीन्समारोप्य भिक्षुरभवत् ॥ १०३ ॥ वहाँ वानप्रस्थोंके योग्य समस्त क्रियाकलापका अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण पापोंका क्षय हो जानेपर तथा मनोवृत्तिके राग-द्वेषहीन हो जानेपर, आहवनीयादि अग्नियोंको अपनेमें स्थापित कर संन्यासी हो गये ॥ १३० ॥ भगवत्यासज्याखिलं कर्मकलापं हित्वानन्तमजमनादिनिधनमविकारमरणादिधर्ममवाप परमनन्तं परवतत्मच्युतं पदम् ॥ १३१ ॥ फिर भगवान्में आसक्त हो सम्पूर्ण कर्मकलापका त्याग कर परमात्मपरायण पुरुषोंके अच्युतपद (मोक्ष)-को । प्राप्त किया, जो अजन्मा, अनादि, अविनाशी, विकार और मरणादि धर्मोंसे रहित, इन्द्रियादिसे अतीत तथा अनन्त है ॥ १३१ ॥ इत्येतन्मान्धातृदुहितृसम्बन्धादाख्यातम् ॥ १३२ ॥ यश्चैतत्सौभरिचरितमनुस्मरति पठति पाठयति शृणोति श्रावयति धरत्यवधारयति लिखति लेखयति शिक्षयत्यध्यापयत्युपदिशति वा तस्य षट् जन्मानि दुःसन्ततिरसद्धर्मो वाङ्मनसयोरसन्मार्गाचरणमशेषहेतुषु वा ममत्वं न भवति ॥ १३३ ॥ इस प्रकार मान्धाताकी कन्याओंके सम्बन्धमें मैंने इस चरित्रका वर्णन किया है । जो कोई इस सौभरि-चरित्रका स्मरण करता है, अथवा पढ़तापढ़ाता, सुनता-सुनाता, धारण करता कराता, लिखतालिखवाता तथा सीखता-सिखाता अथवा उपदेश करता है उसके छ: जन्मोंतक दुःसन्तति, असद्धर्म और वाणी अथवा मनकी कुमार्गमें प्रवृत्ति तथा किसी भी पदार्थमें ममता नहीं होती ॥ १३२-१३३ ॥ इति श्रिविष्णुमहापुराणे चतुर्थेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः (२) इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ |