![]() |
॥ विष्णुपुराणम् ॥ चतुर्थः अंशः ॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
भजनभजमानदिव्यान्धक देवावृधमहाभोज वृष्णिसंज्ञाःसत्वतस्य पुत्रा बभूवुः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-सत्वतके भजन, भजमान, दिव्य, अन्धक, देवावृध महाभोज और वृष्णि नामक पुत्र हुए ॥ १ ॥ भजमानस्य निमिकृकणवृष्मयस्तथान्ये द्वैमात्राः शतजित्सहस्रजिद् अयुतजित्संज्ञास्त्रयः ॥ २ ॥
भजमानके निमि, ककण और वृष्णि तथा इनके तीन सौतेले भाई शतजित्, सहस्त्रजित् और अयुतजित्-ये छः पुत्र हुए ॥ २ ॥ देवावृधस्यापि बभ्रुः पुत्रोऽभवत् ॥ ३ ॥
देवावृधके बभु नामक पुत्र हुआ ॥ ३ ॥ तयोश्चायं श्लोको गीयते ॥ ४ ॥
इन दोनों (पिता पुत्रों) के विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है- ॥ ४ ॥ यथैव शृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ।
बभ्रुः श्रोष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधःसमः ॥ ५ ॥ 'जैसा हमने दूरसे सुना था वैसा ही पास जाकर भी देखा; वास्तवमें बधु मनुष्योंमें श्रेष्ठ है और देवावृध तो देवताओंके समान है ॥ ५ ॥ पुरुषाः षट् च षष्टिश्च षट् सहस्राणि चाष्ट च ।
तेऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि ॥ ६ ॥ बभु और देवावृध [-के उपदेश किये हुए मार्गका अवलम्बन करने]-से क्रमश: छः हजार चौहत्तर (६०७४) मनुष्योंने अमरपद प्राप्त किया था ॥ ६ ॥ महाभोजस्त्वतिधर्मात्मा तस्यान्वये भोजाः मृत्ति कावरपुरनिवासिनो मार्तिकावरा बभूवुः ॥ ७ ॥
महाभोज बड़ा धर्मात्मा था, उसकी सन्तानमें भोजवंशी तथा मृत्तिकावरपुर निवासी मार्तिकावर नृपतिगण हुए ॥ ७ ॥ वृष्णे सुमित्रो युधाजिच्च पुत्रावभूताम् ॥ ८ ॥
ततश्चानमित्रस्तथानमित्रान्निघ्नः ॥ ९ ॥ निघ्नस्य प्रसेन सत्राजितौ ॥ १० ॥ वृष्णिके दो पुत्र सुमित्र और युधाजित् हुए, उनमेंसे सुमित्रके अनमित्र, अनमित्रके निघ्न तथा निम्नसे प्रसेन और सत्राजितका जन्म हुआ ॥ ८-१० ॥ तस्य च सत्राजितो भगवानादित्यः सखाभवत् ॥ ११ ॥
उस सत्राजित्के मित्र भगवान् आदित्य हुए ॥ ११ ॥ एकदा त्वम्भोनिधितीरसंश्रयः सूर्यं सत्राजित्तुष्टाव तन्मनस्कतया च भास्वानभिष्टूयमानोऽग्रतस्तस्थौ ॥ १२ ॥
एक दिन समुद्र-तटपर बैठे हुए सत्राजित्ने सूर्यभगवान्की स्तुति की । उसके तन्मय होकर स्तुति करनेसे भगवान् भास्कर उसके सम्मुख प्रकट हुए ॥ १२ ॥ ततस्त्वस्पष्टमूर्तिधरं चैनमालोक्य सत्राजित्सूर्यमाह ॥ १३ ॥
उस समय उनको अस्पष्ट मूर्ति धारण किये हुए देखकर सत्राजित्ने सूर्यसे कहा- ॥ १३ ॥ यथैव व्योम्नि वह्निपिण्डोपमं त्वामहमपश्यं तथैवाद्याग्रतो गतमप्यत्र भगवता किञ्चिन्न प्रसादीकृतं विशेषमुपलक्षयामीत्येवमुक्ते भगवता सूर्येण निजकण्ठादुन्मुच्य स्यमन्तकं नाम महामणिवरमवतार्यैकान्ते न्यस्तम् ॥ १४ ॥
"आकाशमें अग्निपिण्डके समान आपको जैसा मैंने देखा है वैसा ही सम्मुख आनेपर भी देख रहा हूँ । यहाँ आपको प्रसादस्वरूप कुछ विशेषता मुझे नहीं दीखती । " सत्राजित्के ऐसा कहनेपर भगवान् सूर्यने अपने गलेसे स्यमन्तक नामकी उत्तम महामणि उतारकर अलग रख दी ॥ १४ ॥ ततस्तमाताम्रोज्ज्वलं ह्रस्ववपुषमीषदा पिङ्गलनयनमादित्यमद्राक्षीत् ॥ १५ ॥
तब सत्राजित्ने भगवान् सूर्यको देखा-उनका शरीर किंचित् ताम्रवर्ण, अति उज्ज्वल और लघु था तथा उनके । नेत्र कुछ पिंगलवर्ण थे ॥ १५ ॥ कृतप्रणिपातस्तवादिकं च सत्राजितमाह भगवानादित्यः सहस्रदीधितिः वरमस्मत्तोऽभिमतं वृणीष्वेति ॥ १६ ॥
तदनन्तर सत्राजितके प्रणाम तथा स्तुति आदि कर चुकनेपर सहस्रांशु भगवान् आदित्यने उससे कहा-"तुम अपना अभीष्ट वर माँगो" ॥ १६ ॥ स च तदेव मणिरत्नमयाचत ॥ १७ ॥
सत्राजित्ने उस स्यमन्तकमणिको ही माँगा ॥ १७ ॥ स चापि तस्मै तद्दत्त्वा दीधितिपतिर्वियति स्वधिष्ण्यमारुरोह ॥ १८ ॥
तब भगवान् सूर्य उसे वह मणि देकर अन्तरिक्षमें अपने स्थानको चले गये ॥ १८ ॥ सत्राजिदऽप्यमलमणिरत्न सनाथकण्ठतया सूर्य इव तेजोभिः अशेषदिगन्तराण्युद्भासयन् द्वारकां विवेश ॥ १९ ॥
फिर सत्राजित्ने उस निर्मल मणिरत्नसे अपना कण्ठ । सुशोभित होने के कारण तेजसे सूर्यके समान समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हुए द्वारका प्रवेश किया ॥ १९ ॥ द्वारकावासी जनस्तु तमायान्तमवेक्ष्य भगवन्तमादिपुरुषं पुरुषोत्तममवनिभारावतरणायांशेन मानुषरूपधारिणं प्रणिपत्याह ॥ २० ॥
द्वारकावासी लोगोंने उसे आते देख, पृथिवीका भार उतारनेके लिये अंशरूपसे अवतीर्ण हुए मनुष्यरूपधारी आदिपुरुष भगवान् पुरुषोत्तमसे प्रणाम करके कहा- ॥ २० ॥ भगवन् भवन्तं द्रष्ट्रं नूनमयमादित्य आयातीत्युक्तो भगवानुवाच ॥ २१ ॥
"भगवन् ! आपके दर्शनोंके लिये निश्चय ही ये भगवान् सूर्यदेव आ रहे हैं" उनके ऐसा कहनेपर भगवान्ने उनसे कहा- ॥ २१ ॥ भगवान्नायमादित्यः सत्राजितोऽयमादित्यदत्तस्यमन्तकाख्यं महामणिरत्नं बिभ्रदत्रोपयाति ॥ २२ ॥
"ये भगवान सूर्य नहीं हैं, सत्राजित् है । यह सूर्यभगवान्से प्राप्त हुई स्यमन्तक नामकी महामणिको धारणकर यहाँ आ रहा है ॥ २२ ॥ तदेनं विश्रब्धाः पश्यतेत्युक्तास्ते तथैव ददृशुः ॥ २३ ॥
तुमलोग अब विश्वस्त होकर इसे देखो । " भगवान्के ऐसा कहनेपर द्वारकावासी उसे उसी प्रकार देखने लगे ॥ २३ ॥ स च तं स्यमन्तकमणिमात्मनिवेशने चक्रे ॥ २४ ॥
सत्राजित्ने वह स्यमन्तकमणि अपने घरमें रख दी ॥ २४ ॥ प्रतिदिनं तन्मणिरत्नमष्टौ कनकभारान् स्त्रवति ॥ २५ ॥
वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी ॥ २५ ॥ तत्प्रभावाच्च सकलस्यैव राष्ट्रस्य उपसर्गानावृष्टिव्यालाग्निचोर दुर्भिक्षादिभयं न भवति ॥ २६ ॥
उसके प्रभावसे सम्पूर्ण राष्ट्रमें रोग, अनावृष्टि तथा सर्प, अग्नि, चोर या दुर्भिक्ष आदिका भय नहीं रहता था ॥ २६ ॥ अच्युतोऽपि तद्दिव्यं रत्नमुग्रसेनस्य भूपतेर्योग्यमेतदिति लिप्सां चक्रे ॥ २७ ॥
भगवान् अच्युतको भी ऐसी इच्छा हुई कि यह दिव्य रत्न तो राजा उग्रसेनके योग्य है ॥ २७ ॥ गोत्रभेदभयाच्छक्तोऽपि न जहार ॥ २८ ॥
किन्तु जातीय विद्रोहके भयसे समर्थ होते हुए भी उन्होंने उसे छोना नहीं ॥ २८ ॥ सत्राजिदप्यच्युतो मामेतद्याचयिष्यतीत्यवगम्य रत्नलोभाद्भ्रात्रे प्रसेनाय तद्रत्नमदात् ॥ २९ ॥
सत्राजित्को जब यह मालूम हुआ कि भगवान् मुझसे यह रत्न माँगनेवाले हैं तो उसने लोभवश उसे अपने भाई प्रसेनको दे दिया ॥ २९ ॥ तच्च शुचिना ध्रियमाणमशेषमेव सुवर्णस्त्रवादिकं गुणजातमुत्पादयति अन्यथा धारयन्तमेव हन्तीत्यजानन्नसावपि प्रसेनस्तेन कण्ठसक्तेन स्यमन्तकेन अश्वमारुह्याटव्यां मृगयामगच्छत् ॥ ३० ॥
किन्तु इस बातको न जानते हुए कि पवित्रतापूर्वक धारण करनेसे तो यह मणि सुवर्ण-दान आदि अनेक गुण प्रकट करती है और अशुद्धावस्थामें धारण करनेसे घातक हो जाती है, प्रसेन उसे अपने गलेमें बाँधे हुए घोड़ेपर चढ़कर मृगयाके लिये वनको चला गया ॥ ३० ॥ तत्र च सिंहाद्वधमवाप ॥ ३१ ॥
वहाँ उसे एक सिंहने मार डाला ॥ ३१ ॥ साश्वं च तं निहत्य सिंहोऽप्यमलमणिरत्नमास्याग्रेणादंय गन्तुमभ्युद्यतः ऋक्षाधिपतिना जाम्बवता दृष्टो घातितश्च ॥ ३२ ॥
जब वह सिंह घोड़ेके सहित उसे मारकर उस निर्मल मणिको अपने मुंहमें लेकर चलनेको तैयार हुआ तो उसी समय ऋक्षराज जाम्बवान्ने उसे देखकर मार डाला ॥ ३२ ॥ जाम्बवानप्यमलमणिरत्नमादाय स्वबिले प्रविवेश ॥ ३३ ॥
तदनन्तर उस निर्मल मणिरत्नको लेकर जाम्बवान् अपनी गुफामें आया ॥ ३३ ॥ सुकुमारसंज्ञाय बालकाय च क्रीडनकमकरोत् ॥ ३४ ॥
और उसे सुकुमार नामक अपने बालकके लिये खिलौना बना लिया ॥ ३४ ॥ अनागच्छति तस्मिन्प्रसेने कृष्णो मणिरत्नमभिलषितवान्स च प्राप्तवान्नूनमेतदस्य कर्मेत्यखिल एव यदुलोकः परस्परं कर्माकर्ण्याकथयत् ॥ ३५ ॥
प्रसेनके न लौटनेपर सब यादवोंमें आपसमें यह कानाफूसी होने लगी कि "कृष्ण इस मणिरलको लेना चाहते थे, अवश्य ही इन्होंने उसे ले लिया हैनिश्चय यह इन्हींका काम है" ॥ ३५ ॥ विदितलोकापवादवृत्तान्तश्च भगवान् सर्वयदुसैन्यपरिवारपरिवृतः प्रसेनाश्वपदवीमनुससार ॥ ३६ ॥
ददर्श चाश्वसमवेतं प्रसेनं सिंहेन विनिहतम् ॥ ३७ ॥ इस लोकापवादका पता लगनेपर सम्पूर्ण यादवसेनाके सहित भगवान्ने प्रसेनके घोड़ेके चरण-चिह्नोंका अनुसरण किया और आगे जाकर देखा कि प्रसेनको घोड़ेसहित सिंहने मार डाला है ॥ ३६-३७ ॥ अखिलजनमध्ये सिंहपददर्शनकृतपरिशुद्धः सिंहपदमनुससार ॥ ३८ ॥
ऋक्षपतिनिहतं च सिंहमप्यल्पे भूमिभागे दृष्ट्वा ततश्च तद्रत्नगौरवादृक्षस्यापि पदान्यनुययौ ॥ ३९ ॥ फिर सब लोगोंके बीच सिंहके चरण-चिहन देख लिये जानेसे अपनी सफाई हो जानेपर भी भगवान्ने उन चिलोंका अनुसरण किया और थोड़ी ही दूरीपर ऋक्षराजद्वारा मारे हुए सिंहको देखा; किन्तु उस रलके महत्त्वके कारण उन्होंने जाम्बवान्के पदचिहनोंका भी अनुसरण किया ॥ ३८-३९ ॥ गिरितटे च सकलमेव तद्यदुसैन्यमवस्थाप्य तत्पदानुसारी ऋक्षबिलं प्रविवेश ॥ ४० ॥
और सम्पूर्ण यादव-सेनाको पर्वतके तटपर छोड़कर ऋक्षराजके चरणोंका अनुसरण करते हुए स्वयं उनकी गुफामें घुस गये ॥ ४० ॥ अन्तः प्रविष्टश्च धात्र्याः सुकुमारकमुल्लालयन्त्या वाणीं शुश्राव ॥ ४१ ॥
भीतर जानेपर भगवान्ने सुकुमारको बहलाती हुई धात्रीकी यह वाणी सुनी- ॥ ४१ ॥ सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥ ४२ ॥ सिंहने प्रसेनको मारा और सिंहको जाम्बवान्ने; हे सुकुमार ! तू रो मत यह स्यमन्तकमणि तेरी ही है ॥ ४२ ॥ इत्याकर्ण्योपलब्धस्यमन्तकोऽतः प्रविष्टः कुमारक्रीडनकीकृतं च धात्र्या हस्ते तेजोभिर्जाज्वल्यमानं स्यमन्तकं ददर्श ॥ ४३ ॥
यह सुननेसे स्यमन्तकका पता लगनेपर भगवान्ने भीतर जाकर देखा कि सुकुमारके लिये खिलौना बनी हुई स्यमन्तकमणि धात्रीके हाथपर अपने तेजसे देदीप्यमान हो रही है ॥ ४३ ॥ तं च स्यमन्तकाभिलषित चक्षुषमपूर्वपुरुषमागतं समवेक्ष्य धात्री त्राहित्राहीति व्याजहार ॥ ४४ ॥
स्यमन्तकमणिकी ओर अभिलाषापूर्ण दृष्टिसे देखते हुए एक विलक्षण पुरुषको वहाँ आया देख धात्री 'त्राहि-त्राहि' करके चिल्लाने लगी ॥ ४४ ॥ तदार्तरवश्रवणानन्तरं चामर्षपूर्णहृदयः स जाम्बवानाजगाम ॥ ४५ ॥
उसकी आर्त्त-वाणीको सुनकर जाम्बवान् क्रोधपूर्ण हृदयसे वहाँ आया ॥ ४५ ॥ तयोश्च परस्परमुद्धतामर्षयोर्युद्धं एकविंशतिदिनान्यभवत् ॥ ४६ ॥
फिर परस्पर रोष बढ़ जानेसे उन दोनोंका इक्कीस दिनतक घोर युद्ध हुआ ॥ ४६ ॥ ते च यदुसैनिकास्तत्र सप्ताष्टदिनानि तन्निष्क्रान्तिमुदिक्षमाणास्तस्थुः ॥ ४७ ॥
पर्वतके पास भगवान्की प्रतीक्षा करनेवाले यादव-सैनिक सात-आठ दिनतक उनके गुफासे बाहर आनेकी बाट देखते रहे ॥ ४७ ॥ अनिष्क्रमणे च मधुरिपुरसाववश्यमत्र बिलेऽत्यन्तं नाशमवाप्तो भविष्यत्यन्यथा तस्य जीवतः कथमेतावन्ति दिनानि शत्रुजये व्याक्षेपो भविष्यतीति कृताध्यवसाया द्वारकामागम्य हतः कृष्ण इति कथयामासुः ॥ ४८ ॥
किन्तु जब इतने दिनोंतक वे उसमेंसे न निकले तो उन्होंने समझा कि अवश्य ही श्रीमधुसूदन इस गुफामें मारे गये, नहीं तो जीवित रहनेपर शत्रुके जीतने में उन्हें इतने दिन क्यों लगते ?' ऐसा निश्चय कर वे द्वारकामें चले आये और वहाँ कह दिया कि श्रीकृष्ण मारे गये ॥ ४८ ॥ तद्बान्धवाश्च तत्कालोचितं अखिलमुत्तरक्रियाकलापं चक्रुः ॥ ४९ ॥
उनके बन्धुओंने यह सुनकर समयोचित सम्पूर्ण औज़दैहिक कर्म कर दिये ॥ ४९ ॥ ततश्चास्य युद्ध्यमानस्याति श्रद्धादत्तविशिष्टोपपात्रयुक्तान्नतोयादिना श्रीकृष्णस्य बलप्राणपुष्टचिरभूत् ॥ ५० ॥
इधर, अति श्रद्धापूर्वक दिये हुए विशिष्ट पात्रोंसहित इनके अन्न और जलसे युद्ध करते समय श्रीकृष्णचन्द्रके बल और प्राणकी पुष्टि हो गयी ॥ ५० ॥ इतरस्य अनुदिनमतिगुरुपुरुषभेद्यमानस्य अतिनिष्ठुर प्रहारपातपीजिताखिलावयवस्य निराहारतया बलहानिरभूत् ॥ ५१ ॥
तथा अति महान् पुरुषके द्वारा मर्दित होते हुए उनके अत्यन्त निष्ठुर प्रहारोंके आघातसे पीडित शरीरवाले जाम्बवान्का बल निराहार रहनेसे क्षीण हो गया ॥ ५१ ॥ निर्जितश्च भगवता जाम्बवानप्रणिपत्य व्याजहार ॥ ५२ ॥
अन्तमें भगवान्से पराजित होकर जाम्बवान्ने उन्हें प्रणाम करके कहा- ॥ ५२ ॥ सुरासुरगन्धर्व यक्षराक्षलसादिभिः अप्यखिलैर्भवान्न जेतुं शक्यः किमुतावनिगोचरैः अल्पवीर्यैर्नरैर्नरावयवभूतैश्च तिर्यग्योन्यनुसृतिभिः किं पुनरस्मद्विधैरवश्यं भवताऽस्मत्स्वामिना रामेणेन नारायणस्य सकलजगत्परायणस्यांशेन भगवता भवितव्यमित्युक्तस्तस्मै भगवानखिलावनिभारावतरणार्थं अवतरणमाचचक्षे ॥ ५३ ॥
प्रीत्यभिव्यञ्जितकरतलस्पर्शनेन चैनमपगतयुद्धखेदं चकार ॥ ५४ ॥ "भगवन् ! आपको तो देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि कोई भी नहीं जीत सकते, फिर पृथिवीतलपर रहनेवाले अल्पवीर्य मनुष्य अथवा मनुष्योंके अवयवभूत हम-जैसे तिर्यक्-योनिगत जीवोंकी तो बात ही क्या है ? अवश्य ही आप हमारे प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके समान सकल लोकप्रतिपालक भगवान् नारायणके ही अंशसे प्रकट हुए हैं । " जाम्बवान्के ऐसा कहनेपर भगवान्ने पृथिवीका भार उतारनेके लिये अपने अवतार लेनेका सम्पूर्ण वृत्तान्त उससे कह दिया और उसे प्रीतिपूर्वक अपने हाथसे छूकर युद्धके श्रमसे रहित कर दिया ॥ ५३-५४ ॥ स च प्रणिपत्य पुनरप्येनं प्रसाद्य जाम्बवतीं नाम कन्यां गृहागतायार्घ्यभूतां ग्राहयामास ॥ ५५ ॥
स्यमन्तकमणिरत्नमपि प्रणिपत्य तस्मै प्रददौ ॥ ५६ ॥ तदनन्तर जाम्बवान्ने पुनः प्रणाम करके उन्हें प्रसन्न किया और घरपर आये हुए भगवान्के लिये अय॑स्वरूप अपनी जाम्बवती नामकी कन्या दे दी तथा उन्हें प्रणाम करके मणिरल स्यमन्तक भी दे दिया ॥ ५५-५६ ॥ अच्युतोऽप्यतिप्रणतात् तस्मादग्राह्यमपि तन्मणिरत्नमात्मसंशोधनाय जग्राह ॥ ५७ ॥
सह जाम्बवत्या स द्वारकामाजगाम ॥ ५८ ॥ भगवान् अच्युतने भी उस अति विनीतसे लेनेयोग्य न होनेपर भी अपने कलंक शोधनके लिये वह मणिरल ले लिया और जाम्बवतीके सहित द्वारकामें आये ॥ ५७-५८ ॥ भगवदागमनोद्भूत हर्षोत्कर्षस्य द्वारकावासिजनस्य कृष्णवलोकनात् तत्क्षणमेवातिपरिणतवयसोऽपि नवयौवनमिवाभवत् ॥ ५९ ॥
उस समय भगवान् कृष्णचन्द्रके आगमनसे जिनके हर्षका वेग अत्यन्त बढ़ गया है उन द्वारकावासियोंमेंसे बहुत ढली हुई अवस्थावालोंमें भी उनके दर्शनके प्रभावसे तत्काल ही मानो नवयौवनका संचार हो गया ॥ ५९ ॥ दिष्ट्यादिष्ट्येति सकलयादवाः स्त्रियश्च सभाजयामासुः ॥ ६० ॥
तथा सम्पूर्ण यादवगण और उनकी स्त्रियाँ 'अहोभाग्य ! अहोभाग्य ! !' ऐसा कहकर उनका अभिवादन करने लगीं ॥ ६० ॥ भगवानपि यथानुभूतमशेषं यादवसमाजे यथावदाच्चक्षे ॥ ६१ ॥
स्यमन्तकं च सत्राजिताय दत्त्वा मिथ्याभिशस्तिपरिशुद्धिमवाप ॥ ६२ ॥ जाम्बवतीं चान्तःपुरं निवेशयामास ॥ ६३ ॥ भगवान्ने भी जो-जो बात जैसेजैसे हुई थी वह ज्यों-की-त्यों यादव-समाजमें सुना दी और सत्राजित्को स्यमन्तकमणि देकर मिथ्या कलंकसे छुटकारा पा लिया । फिर जाम्बवतीको अपने अन्तःपुरमें पहुंचा दिया ॥ ६१-६३ ॥ सत्राजितोपि मयास्याभूतमलिनमारोपितमिति जातसन्त्रासात्स्वसुतां सत्यभामां भगवते भार्यार्थं ददौ ॥ ६४ ॥
सत्राजित्ने भी यह सोचकर कि मैंने ही कृष्णचन्द्रको मिथ्या कलंक लगाया था, डरते डरते उन्हें पत्नीरूपसे अपनी कन्या सत्यभामा विवाह दी ॥ ६४ ॥ तां चाक्रूरकृतवर्म शतधन्वप्रमुखा यादवाः प्राग्वरयाम्बभूवुः ॥ ६५ ॥
उस कन्याको अक्रूर, कृतवर्मा और शतधन्वा आदि यादवोंने पहले वरण किया था ॥ ६५ ॥ ततस्तत्प्रदानादवज्ञातमेवात्मानं मन्यमानाः सत्राजिते वैरानुबन्धं चक्रुः ॥ ६६ ॥
अतः श्रीकृष्णचन्द्रके साथ उसे विवाह देनेसे उन्होंने अपना अपमान समझकर सत्राजित्से वैर बाँध लिया ॥ ६६ ॥ अक्रूरकृतवर्मप्रमुखाश्च शतधन्वानमूचुः ॥ ६७ ॥
तदनन्तर अक्रूर और कृतवर्मा आदिने शतधन्वासे कहा- ॥ ६७ ॥ अयमतीव दुरात्मा सत्राजिद् योऽस्माभिर्भवता च प्रार्थितोऽप्यात्मजामस्मान् भवन्तं चाविगणय्य कृष्णाय दत्तवान् ॥ ६८ ॥
"यह सत्राजित् बड़ा ही दुष्ट है, देखो, इसने हमारे और आपके माँगनेपर भी हमलोगोंको कुछ भी न समझकर अपनी कन्या कृष्णचन्द्रको दे दी ॥ ६८ ॥ तदलमनेन जीवता घातयित्वैनं तन्महारत्नं स्यमन्तकाख्यं त्वया किं न गृह्यते वयमभ्युपपत्स्यामो यद्यच्युतस्तवोपरि वैरानुबन्धं करिष्यतीत्येवं उक्तस्तथेत्यसावप्याह ॥ ६९ ॥
अतः अब इसके जीवनका प्रयोजन ही क्या है; इसको मारकर आप स्यमन्तक महामणि क्यों नहीं ले लेते हैं ? पीछे, यदि अच्युत आपसे किसी प्रकारका विरोध करेंगे तो हमलोग भी आपका साथ देंगे । " उनके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने कहा-"बहुत अच्छा, ऐसा ही करेंगे" ॥ ६९ ॥ जतुगृहदग्धानां पाण्डुतनयानां विदितपरमार्थोऽपि भगवान् दुर्योधनप्रयत्न शौथिल्यकरणार्थं पार्थानुकूल्यकरणाय वारणावतं गतः ॥ ७० ॥
इसी समय पाण्डवोंके लाक्षागृहमें जलनेपर, यथार्थ बातको जानते हुए भी भगवान् कृष्णचन्द्र दुर्योधनके प्रयत्नको शिथिल करनेके उद्देश्यसे कुलोचित कर्म करनेके लिये वारणावत नगरको गये ॥ ७० ॥ गते च तस्मिन् सुप्तमेव सत्राजितं शतधन्वा जघान मणिरत्नं चाददात् ॥ ७१ ॥
उनके चले जानेपर शतधन्वाने सोते हुए सत्राजित्को मारकर वह मणिरत्न ले लिया ॥ ७१ ॥ पितृवधामर्षपूर्णा च सत्यभामा शीघ्रं स्यन्दनमारूढा वारणावतं गत्वा भगवतेऽहं प्रतिपादितेत्यक्षान्तिमता शतधन्वनास्मत्पिता व्यापादितस्तच्च स्यंमन्तकमणिरत्नमपहृतं यस्यावभासनेनापहृततिमिरं त्रैलोक्यं भविष्यति ॥ ७२ ॥
पिताके वधसे क्रोधित हुई सत्यभामा तुरन्त ही रथपर चढ़कर वारणावत नगरमें पहुंची और भगवान् कृष्णसे बोली-"भगवन् ! पिताजीने मुझे आपके करकमलोंमें सौंप दिया-इस बातको सहन न कर सकनेके कारण शतधन्वाने मेरे पिताजीको मार दिया है और उस स्यमन्तक नामक मणिरत्नको ले लिया है जिसके प्रकाशसे सम्पूर्ण त्रिलोकी भी अन्धकारशून्य हो जायगी ॥ ७२ ॥ तदीयं त्वदीयापहासना तदालोच्य यदत्र युक्तं तत्क्रियतामिति कृष्णमाह ॥ ७३ ॥
इसमें आपहीकी हँसी है इसलिये सब बातोंका विचार करके जैसा उचित समझें, करें" ॥ ७३ ॥ तया चैवमुक्ताः परीतुष्टान्तः करणोऽपि कृष्णः सत्यभामाममर्षताम्रनयनः प्राह ॥ ७४ ॥
सत्यभामाके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने मनही-मन प्रसन्न होनेपर भी उनसे क्रोधसे आँखें लाल करके कहा- ॥ ७४ ॥ सत्ये ममैवैषापहासना नाहमेतां तस्य दुरात्मनःसहिष्ये ॥ ७५ ॥
न ह्यनुल्लङ्घ्य परपादपं तत्कृतनीडाश्रयिणो विहङ्गमा वध्यन्ते तदलममुनास्मत्पुरतः शोकप्रोरितवाक्य परिकरेणेत्युक्त्वा द्वारकामभ्येत्येकान्ते बलदेवं वासुदेवः प्राह ॥ ७६ ॥ "सत्ये ! अवश्य इसमें मेरी ही हँसी है, उस दुरात्माके इस कुकर्मको मैं सहन नहीं कर सकता, क्योंकि यदि ऊँचे वृक्षका उल्लंघन न किया जा सके तो उसपर घोंसला बनाकर रहनेवाले पक्षियोंको नहीं मार दिया जाता । [अर्थात् बड़े आदमियोंसे पार न पानेपर उनके आश्रितोंको नहीं दबाना चाहिये । ] इसलिये अब तुम्हें हमारे सामने इन शोक-प्रेरित वाक्योंके कहनेकी और आवश्यकता नहीं है । [तुम शोक छोड़ दो, मैं इसका भली प्रकार बदला चुका दूँगा । ]" सत्यभामासे इस प्रकार कह भगवान् वासुदेवने द्वारकामें आकर श्रीबलदेवजीसे एकान्तमें कहा- ॥ ७५-७६ ॥ मृगयागतं प्रसेनमटव्यां मृगपतिर्जघान ॥ ७७ ॥
वनमें आखेटके लिये गये हुए प्रसेनको तो सिंहने मार दिया था ॥ ७७ ॥ सत्राजितोऽप्यधुना शतधन्वना निधनं प्रापितः ॥ ७८ ॥
अब शतधन्वाने सत्राजित्को भी मार दिया है ॥ ७८ ॥ तदुभयविनाशात्तन्मणिरत्नमावाभ्यां सामान्यं भविष्यति ॥ ७९ ॥
इस प्रकार उन दोनोंके मारे जानेपर मणिरल स्यमन्तकपर हम दोनोंका समान अधिकार होगा ॥ ७९ ॥ तदुत्तिष्ठारुह्यतां रथः शतधन्वनिधनायोद्यमं कुर्वित्यभिहितस्तथेति समन्विप्सितवान् ॥ ८० ॥
इसलिये उठिये और रथपर चढ़कर शतधन्वाके मारनेका प्रयत्न कीजिये । ' कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर बलदेवजीने भी बहुत अच्छा' कह उसे स्वीकार किया ॥ ८० ॥ कृतोद्यमौ च तावुभावुपलभ्य शतधन्वा कृतवर्माणमुपेत्य पार्ष्णिपूरमकर्मनिमित्तमचोदयत ॥ ८१ ॥
कृष्ण और बलदेवको [अपने वधके लिये] उद्यत जान शतधन्वाने कृतवर्माके पास जाकर सहायताके लिये प्रार्थना की ॥ ८१ ॥ आह चैनं कृतवर्मा ॥ ८२ ॥
तब कृतवर्माने इससे कहा- ॥ ८२ ॥ नाहं बलदेववासुदेवाभ्यां सह विरोधायालमित्युक्तश्चाक्रूरमचोदयत् ॥ ८३ ॥
असावप्याह ॥ ८४ ॥ 'मैं बलदेव और वासुदेवसे विरोध करनेमें समर्थ नहीं हूँ । ' उसके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने अरसे सहायता माँगी, तो अक्रूरने भी कहा- ॥ ८३-८४ ॥ न हि कश्चिद्भगवता पादप्रहार परिकम्पितजगत्त्रयेण सुररिषुवनिता वैधव्यकारिणा प्रबलरिपुचक्राप्रतिहतचक्रेण चक्रिणा मदमुदित नयनावलोकनाखिलनिशातनेन अतिगुरुवैरिवारणापकर्षणा विकृतमहिमोरुसीरेण सीरिणा च सह सकलजगद् वन्द्यानाममरवराणामपि योद्धुं समर्थः किमुताहं ॥ ८५ ॥
'जो अपने पाद-प्रहारसे त्रिलोकीको कम्पायमान कर देते हैं, देवशत्रु असुरगणकी स्त्रियोंको वैधव्यदान देते हैं तथा अति प्रबल शत्रु-सेनासे भी जिनका चक्र अप्रतिहत रहता है उन चक्रधारी भगवान् वासुदेवसे तथा जो अपने मदोन्मत्त नयनोंकी चितवनसे सबका दमन करनेवाले और भयंकर शत्रुसमूहरूप हाथियोंको खींचनेके लिये अखण्ड महिमाशाली प्रचण्ड हल धारण करनेवाले हैं उन श्रीहलधरसे युद्ध करने में तो निखिल-लोक-वन्दनीय देवगणमें भी कोई समर्थ नहीं है फिर मेरी तो बात ही क्या है ? ॥ ८५ ॥ तदन्यः शरणमभिलष्यतामित्युक्तः शतधनुराह ॥ ८६ ॥
इसलिये तुम दूसरेकी शरण लो' अक्रूरके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने कहा- ॥ ८६ ॥ यद्यस्मत्परित्राणासमर्थं भवानात्मनमधिगच्छति तदयमस्मत्तस्तावन्मणिः सङ्गृह्य रक्ष्यतामिति ॥ ८७ ॥
'अच्छा, यदि मेरी रक्षा करने में आप अपनेको सर्वथा असमर्थ समझते हैं तो मैं आपको यह मणि देता हूँ इसे लेकर इसीकी रक्षा कीजिये' ॥ ८७ ॥ एकमुक्तः सोऽप्याह ॥ ८८ ॥
इसपर अक्रूरने कहा- ॥ ८८ ॥ यद्यन्त्ययामप्यवस्थायां न कस्मैचिद्भवान् कथयिष्यति तदहमेतं ग्रहीष्यामीति ॥ ८९ ॥
'मैं इसे तभी ले सकता हूँ जब कि अन्तकाल उपस्थित होनेपर भी तुम किसीसे भी यह बात न कहो ॥ ८९ ॥ तथेत्युक्ते चाक्रूरस्तन्मणिरत्नं जग्राह ॥ ९० ॥
शतधन्वाने कहा-'ऐसा ही होगा । ' इसपर अक्रूरने वह मणिरत्न अपने पास रख लिया ॥ ९० ॥ शतधनुरप्यतुलवेगां शतयोजनवाहिनीं वडवामारुह्यपक्रान्तः ॥ ९१ ॥
तदनन्तर शतधन्वा सौ योजनतक जानेवाली एक अत्यन्त वेगवती घोड़ीपर चढ़कर भागा ॥ ९१ ॥ शैव्यसुग्रीवमेघपुष्प बलाहकाश्वचतुष्टययुक्त रथस्थितौ बलदेववासुदेवौ तमनुप्रयातौ ॥ ९२ ॥
और शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक चार घोड़ोंवाले रथपर चढ़कर बलदेव और वासुदेवने भी उसका पीछा किया ॥ ९२ ॥ सा च बडवा शतयोजनप्रमाणमार्गमतीता पुनरपि वाह्यमाना मिथिलावनोद्देशे प्राणानुत्ससर्ज ॥ ९३ ॥
सौ योजन मार्ग पार कर जानेपर पुनः आगे ले जानेसे उस घोड़ीने मिथिला देशके वनमें प्राण छोड़ दिये ॥ ९३ ॥ शतधनुरपि तां परित्यज्य पदातिरेवाद्रवत् ॥ ९४ ॥
तब शतधन्वा उसे छोड़कर पैदल ही भागा ॥ ९४ ॥ कृष्णोपि बलभद्रमाह ॥ ९५ ॥
उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने बलभद्रजीसे कहा- ॥ ९५ ॥ तावदत्र स्यन्दने भवता स्थेयमहमेनमधमाचारं पदातिरेव पदातिमनुगम्य यावद्घातयामि अत्र हि भूभागे दृष्टदोषाःसभया अतो नैतेऽश्वा भवतेमं भूमिभागमुल्लङ्घनीयाः ॥ ९६ ॥
'आप अभी रथमें ही रहिये मैं इस पैदल दौड़ते हुए दुराचारीको पैदल जाकर ही मारे डालता हूँ । यहाँ [घोड़ीके मरने आदि] दोषोंको देखनेसे घोड़े भयभीत हो रहे हैं, इसलिये आप इन्हें और आगे न बढ़ाइयेगा ॥ ९६ ॥ तथेत्युक्त्वा बलदेवो रथ एव तस्थौ ॥ ९७ ॥
तब बलदेवजी 'अच्छा' ऐसा कहकर रथमें ही बैठे रहे ॥ ९७ ॥ कृष्णोपि द्विक्रोशमात्रं भूमिभागमनुसृत्य दूरस्थितस्यैव चक्रं क्षिप्त्वा शतधनुषः शिरश्चिच्छेद ॥ ९८ ॥
श्रीकृष्णचन्द्रने केवल दो ही कोसतक पीछाकर अपना चक्र फेंक दूर होनेपर भी शतधन्वाका सिर काट डाला ॥ ९८ ॥ तच्छरीराम्बरादिषु च बहुप्रकारमन्विच्छन्नपि स्यमन्तकमणिं नावाप यदा तदोपगम्य बलभद्रमाह ॥ ९९ ॥
किन्तु उसके शरीर और वस्त्र आदिमें बहुत कुछ ढूँढनेपर भी जब स्यमन्तकमणिको न पाया तो बलभद्रजीके पास जाकर उनसे कहा- ॥ ९९ ॥ वृथैवास्माभिः शतधनुर्घातितः न प्राप्तमशिलजगत्सारभूतं तन्महारत्नं स्यमन्तकाख्यं इत्याकर्ण्योद्भूतकोपो बलदेवो वासुदेवमाह ॥ १०० ॥
"हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा, क्योंकि उसके पास सम्पूर्ण संसारकी सारभूत स्यमन्तकमणि तो मिली ही नहीं । ' यह सुनकर बलदेवजीने [यह समझकर कि श्रीकृष्णचन्द्र उस मणिको छिपानेके लिये ही ऐसी बातें बना रहे हैं] क्रोधपूर्वक भगवान् वासुदेवसे कहा- ॥ १०० ॥ धिक्त्वां यस्त्वमेवमर्थलिप्सुरेतच्च ते भ्रातृत्वान्मया क्षान्तं तदयं पन्थाःस्वेच्छया गम्यतां न मे द्वारकया न त्वया न चाशेषबन्धुभिः कार्यमलमलमेभिः ममाग्रतोऽलीकशपथैरित्याक्षिप्य तत्कथां कथञ्चित्प्रसाद्यमानोपि न तस्थौ ॥ १०१ ॥
स विदेहपुरीं प्रविवेश ॥ १०२ ॥ 'तुमको धिक्कार है, तुम बड़े ही अर्थलोलुप हो; भाई होनेके कारण ही मैं तुम्हें क्षमा किये देता हूँ । तुम्हारा मार्ग खुला हुआ है, तुम खुशीसे जा सकते हो । अब मुझे तो द्वारकासे, तुमसे अथवा और सब सगे-सम्बन्धियोंसे कोई काम नहीं है । बस, मेरे आगे इन थोथी शपोंका अब कोई प्रयोजन नहीं । ' इस प्रकार उनकी बातको काटकर बहुत कुछ मनानेपर भी वे वहाँ न रुके और विदेहनगरको चले गये ॥ १०१-१०२ ॥ जनकराजश्चार्घ्यपूर्वकमेनं गृहं प्रवेशयामास ॥ १०३ ॥
स तत्रैव च तस्थौ ॥ १०४ ॥ विदेहनगरमें पहुँचनेपर राजा जनक उन्हें अर्घ्य देकर अपने घर ले आये और वे वहीं रहने लगे ॥ १०३-१०४ ॥ वासुदेवोऽपि द्वारकामाजगाम ॥ १०५ ॥
इधर भगवान् वासुदेव द्वारकामें चले आये ॥ १०५ ॥ यावच्च जनकराजगृहे बलभद्रोऽवतस्थे तावद्धार्तराष्ट्रो दुर्योधनः तत्सकाशाद्गदाशिक्षामशिक्षयत् ॥ १०६ ॥
जितने दिनोंत्तक बलदेवजी राजा जनकके यहाँ रहे उतने दिनतक धृतराष्ट्रका पुत्र दुर्योधन उनसे गदायुद्ध सीखता रहा ॥ १०६ ॥ वर्षत्रयान्ते च बभ्रूग्रसेनप्रभृतिभिः यादवैः न तद्रत्नं कृष्णेनापहृतमिति कृतावगतिर्विदेहनगरीं गत्वा बलदेवःसम्प्रत्याय्य द्वारकामानीतः ॥ १०७ ॥
अनन्तर बभ्र और उग्रसेन आदि यादवोंके, जिन्हें यह ठीक मालूम था कि 'कृष्णने स्यमन्तकमणि नहीं ली है', विदेहनगरमें जाकर शपथपूर्वक विश्वास दिलानेपर बलदेवजी तीन वर्ष पश्चात् द्वारकामें चले आये ॥ १०७ ॥ अक्रूरोप्युत्तममणिसमुद्भूतसुवर्णेन भगवद्ध्यानपरोऽनवरतं यज्ञानियाज ॥ १०८ ॥
अक्रूरजी भी भगवद्ध्यान-परायण रहते हुए उस मणिरत्नसे प्राप्त सुवर्णके द्वारा निरन्तर यज्ञानुष्ठान करने लगे ॥ १०८ ॥ सवनगतौ हि क्षत्रियवैश्यौ निघ्नन्ब्रह्महा भवतीत्येवम्प्रकारं दीक्षाकवचं प्रविष्ट एव तस्थौ ॥ १०९ ॥
यज्ञ-दीक्षित क्षत्रिय और वैश्योंके मारनेसे ब्रह्महत्या होती है, इसलिये अक्रूरजी सदा यज्ञदीक्षारूप कवच धारण ही किये रहते थे ॥ १०९ ॥ द्विषष्टिवर्षाण्येव तन्मणिप्रभावात् तत्रोपसर्ग दुर्भिक्षमारिकामरणादिकं नाभूत् ॥ ११० ॥
उस मणिके प्रभावसे बासठ वर्षतक द्वारकामें रोग, दुर्भिक्ष, महामारी या मृत्यु आदि नहीं हुए ॥ ११० ॥ अथाक्रूरपक्षीयैः भोजैः शत्रुघ्ने सात्वतस्य प्रपौत्रे व्यापादिते भोजैः सहाक्रूरो द्वारकामपहायापक्रान्तः ॥ १११ ॥
फिर अक्रूर-पक्षीय भोजवंशियोंद्वारा सात्वतके प्रपौत्र शत्रुघ्नके मारे जानेपर भोजोंके साथ अक्रूर भी द्वारकाको छोड़कर चले गये ॥ १११ ॥ तदपक्रान्तिदिनादारभ्य तत्रोपसर्ग दुर्भिक्षव्यालानावृष्टिमारिकाद्युपद्रवा बभूवुः ॥ ११२ ॥
उनके जाते ही, उसी दिनसे द्वारकामें रोग, दुर्भिक्ष, सर्प, अनावृष्टि और मरी आदि उपद्रव होने लगे ॥ ११२ ॥ अथ यादव बलभद्रोग्रसेनसमवेतो मन्त्रममन्त्रयद् भगवानुरगारिकेतनः ॥ ११३ ॥
तब गरुडध्वज भगवान् कृष्ण बलभद्र और उग्रसेन आदि यदुवंशियोंके साथ मिलकर सलाह करने लगे ॥ ११३ ॥ किमिदमेकदैव प्रचुरोपद्रवागमनं एतदालोच्यतां इत्युक्तेन्धकनामा यदुवृद्धः प्राह ॥ ११४ ॥
'इसका क्या कारण है जो एक साथ ही इतने उपद्रवोंका आगमन हुआ, इसपर विचार करना चाहिये । ' उनके ऐसा कहनेपर अन्धक नामक एक वृद्ध यादवने कहा- ॥ ११४ ॥ अस्याक्रूरस्य पिता श्वफल्को यत्र यत्राभूत्तत्रतत्र दुर्भिक्षमारिकानावृष्ट्यादिकं नाभूत् ॥ ११५ ॥
'अक्रूरके पिता श्वफल्क जहाँ-जहाँ रहते थे वहाँ-वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी और अनावृष्टि आदि उपद्रव कभी नहीं होते थे ॥ ११५ ॥ काशीराजस्य विषये त्वनावृष्ट्या च श्वफल्को नीतः ततश्च तत्क्षणाद्देवो ववर्ष ॥ ११६ ॥
एक बार काशिराजके देशमें अनावृष्टि हुई थी । तब श्वफल्कको वहाँ ले जाते ही तत्काल वर्षा होने लगी ॥ ११६ ॥ काशीराजपत्न्याश्च गर्भे कन्यारत्नं पूर्वमासीत् ॥ ११७ ॥
उस समय काशिराजकी रानीके गर्भमें एक कन्यारत्न थी ॥ ११७ ॥ सा च कन्या पूर्णेऽपि प्रसूतिकाले नैव निश्चक्राम ॥ ११८ ॥
वह कन्या प्रसूतिकालके समाप्त होनेपर भी गर्भसे बाहर न आयी ॥ ११८ ॥ एवं च तस्य गर्भस्य द्वादशवर्शण्यनिष्क्रामतो ययुः ॥ ११९ ॥
इस प्रकार उस गर्भको प्रसव हुए बिना बारह वर्ष व्यतीत हो गये ॥ ११९ ॥ काशीराजश्च तामात्मजां गर्भस्थामाह ॥ १२० ॥
तब काशिराजने अपनी उस गर्भस्थिता पुत्रीसे कहा- ॥ १२० ॥ पुत्रि कस्मान्न जायसे निष्क्रम्यतामास्यं ते द्रष्टुमिच्छामि एतां च मातरं किमिति चिरं क्लेशयिष्यसीत्युक्ता गर्भस्थैव व्याजहार ॥ १२१ ॥
'बेटी ! तू उत्पन्न क्यों नहीं होती ? बाहर आ, मैं तेरा मुख देखना चाहता हूँ ॥ १२१ ॥ तात यद्येकैकां गां दिने दिने ब्राह्मणाय प्रयच्छसि तदहमन्यैस्त्रिभिः वर्षैः अस्माद्गर्भात्ततोऽवश्यं निष्क्रमिष्यामि इत्येद्वचनमाकर्ण्य राजा दिने दिने ब्राह्मणाय गां प्रादात् ॥ १२२ ॥
अपनी इस माताको तू इतने दिनोंसे क्यों कष्ट दे रही है ?' राजाके ऐसा कहनेपर उसने गर्भमें रहते हुए ही कहा-'पिताजी ! यदि आप प्रतिदिन एक गौ ब्राह्मणको दान देंगे तो अगले तीन वर्ष बीतनेपर मैं अवश्य गर्भसे बाहर आ जाऊँगी । ' इस बातको सुनकर राजा प्रतिदिन ब्राहाणको एक गौ देने लगे ॥ १२२ ॥ सापि तावता कालेन जाता ॥ १२३ ॥
तब उतने समय (तीन वर्ष) बीतनेपर वह उत्पन्न हुई ॥ १२३ ॥ ततस्तस्याः पिता गान्दिनीति नाम चकार ॥ १२४ ॥
पिताने उसका नाम गान्दिनी रखा ॥ १२४ ॥ तां च गान्दिनीं कन्यां श्वफलकायोपकारिणे गृहमागतायार्घ्य भूतांप्रादात् ॥ १२५ ॥
और उसे अपने उपकारक श्वफल्कको घर आनेपर अध्यरूपसे दे दिया ॥ १२५ ॥ तस्यामयमक्रूरः श्वफलकाज्जज्ञे ॥ १२६ ॥
उसीसे श्वफल्कके द्वारा इन अक्रूरजीका जन्म हुआ है ॥ १२६ ॥ तस्यैवङ्गुणमिथुनादुत्पत्तिः ॥ १२७ ॥
तत्कथमस्मिन्नपक्रान्तेऽत्र दुर्भिक्षमारिकाद्युपद्रवा न भविष्यन्ति ॥ १२८ ॥ इनकी ऐसी गुणवान् मातापितासे उत्पत्ति है तो फिर उनके चले जानेसे यहाँ दुर्भिक्ष और महामारी आदि उपद्रव क्यों न होंगे ? ॥ १२७-१२८ ॥ तदयमात्रानीयतामलमतिगुणवत्यपराधान्वेषणेनेति यदुवृद्धस्य अन्धकस्यैतद्वचनमाकर्म्य केशवोग्रसेनबलभद्रपुरोगमैः यदुभिः कृतापराधतितिक्षुभिरभयं दत्त्वा श्वफलकपुत्रः स्वपुरमानीतः ॥ १२९ ॥
अतः उनको यहाँ ले आना चाहिये, अति गुणवान्के अपराधकी अधिक जाँच-पड़ताल करना ठीक नहीं है । यादववृद्ध अन्धकके ऐसे वचन सुनकर कृष्ण, उग्रसेन और बलभद्र आदि यादव श्वफल्कपुत्र अक्रूरके अपराधको भुलाकर उन्हें अभयदान देकर अपने नगरमें ले आये ॥ १२९ ॥ तत्र चागतमात्र एव तस्य स्यमन्तकमणेः प्रभावाद् अनावृष्टिमारिकादुर्भिक्ष व्यालाद्युपद्रवोपशमा बभूवुः ॥ १३० ॥
उनके वहाँ आते ही स्यमन्तकमणिके प्रभावसे अनावृष्टि, महामारी, दुर्भिक्ष और सर्पभय आदि सभी उपद्रव शान्त हो गये ॥ १३० ॥ कृष्णश्चिन्तयामास ॥ १३१ ॥
तब श्रीकृष्णचन्द्रने विचार किया ॥ १३१ ॥ स्वल्पमेतत्कारणं यदयं गान्दिन्यां श्वफलकेनाक्रूरो जनितः ॥ १३२ ॥
अक्रूरका जन्म गान्दिनीसे श्वफल्कके द्वारा हुआ है यह तो बहुत सामान्य कारण है ॥ १३२ ॥ सुमहांश्चायं अनावृष्टिदुर्भिक्ष मारिकाद्युपद्रवाप्रतिषेधकारी प्रभावः ॥ १३३ ॥
किन्तु अनावृष्टि दुर्भिक्ष, महामारी आदि उपद्रवोंको शान्त कर देनेवाला इसका प्रभाव तो अति महान् है ॥ १३३ ॥ तन्नृनमस्य सकाशे स महामणिः स्यमन्तकाख्यस्तिष्ठति ॥ १३४ ॥
अवश्य ही इसके पास वह स्यमन्तक नामक महामणि है ॥ १३४ ॥ तस्य ह्योवंविधाः प्रभावाः श्रूयन्ते ॥ १३५ ॥
उसीका ऐसा प्रभाव सुना जाता है ॥ १३५ ॥ अयमपि च यज्ञादनन्तरमन्यत्क्रत्वन्तरं तस्यानन्तरमन्यद्यज्ञान्तरं चाजस्त्रमविच्छिन्नं यजतीति ॥ १३६ ॥
इसे भी हम देखते हैं कि एक यज्ञके पीछे दूसरा और दूसरेके पीछे तीसरा इस प्रकार निरन्तर अखण्ड यज्ञानुष्ठान करता रहता है ॥ १३६ ॥ अनल्पोपादानं चास्यासंशयमत्रासौ मणिवरस्तिष्ठितीति कृताध्यवसायो अन्यत्प्रयोजनमुद्दिश्य सकलयादवसमाजमात्मगृह एवाचीकरत् ॥ १३७ ॥
और इसके पास यज्ञके साधन [धन आदि] भी बहुत कम हैं । इसलिये इसमें सन्देह नहीं कि इसके पास स्यमन्तकमणि अवश्य है । ' ऐसा निश्चयकर किसी और प्रयोजनके उद्देश्यसे उन्होंने सम्पूर्ण यादवोंको अपने महलमें एकत्रित किया ॥ १३७ ॥ तत्र चोपविष्टोष्वखिलेषु यदुषु पूर्वं प्रयोजनमुपन्यस्य पर्यवसिते च तस्मिन् प्रसङ्गान्तरपरिहासकथामक्रूरेण कृत्वा जनार्दनस्तमक्रूरमाह ॥ १३८ ॥
समस्त यदुवंशियोंके वहाँ आकर बैठ जानेके बाद प्रथम प्रयोजन बताकर उसका उपसंहार होनेपर प्रसंगान्तरसे अक्रूरके साथ परिहास करते हुए भगवान् कृष्णने उनसे कहा- ॥ १३८ ॥ दानपते जानीम एव वय यथा शतधन्वना तदिदमखिलजगत् सारभूतं स्यमन्तकं रत्नं भवतः तदशेषराष्ट्रोपकरकं भवत्सकाशे तिष्ठति तिष्ठतु सर्व एव वयं तत्प्रभावफलभुजः किं त्वेष बलभद्रोऽस्मान् आशङ्कितवांस्तदस्मत्प्रीतये दर्शयस्वेत्यभिधाय जोषं स्थिते भगवति वासुदेवे सरत्नःसोचिन्तयत् ॥ १३९ ॥
"हे दानपते ! जिस प्रकार शतधन्वाने तुम्हें सम्पूर्ण संसारकी सारभूत वह स्यमन्तक नामकी महामणि सौंपी थी वह हमें सब मालूम है । वह सम्पूर्ण राष्ट्रका उपकार करती हुई तुम्हारे पास है तो रहे, उसके प्रभावका फल तो हम सभी भोगते हैं, किन्तु ये बलभद्रजी हमारे ऊपर सन्देह करते थे, इसलिये हमारी प्रसन्नताके लिये आप एक बार उसे दिखला दीजिये । " भगवान् वासुदेवके ऐसा कहकर चुप हो जानेपर रत्न साथ ही लिये रहनेके कारण अक्रूरजी सोचने लगे- ॥ १३९ ॥ किमत्रानुष्ठेयमन्यथा चेद्ब्रवीम्यहं तत्केवलाम्बर तिरोधानमन्विष्यन्तो रत्नमेते द्रक्ष्यन्ति अतिविरोधो न क्षम इति सञ्चिन्त्य तमखिलजगत्कारणभूतं नारायणमाहाक्रूरः ॥ १४० ॥
"अब मुझे क्या करना चाहिये, यदि और किसी प्रकार कहता हूँ तो केवल वस्त्रोंके ओटमें टटोलनेपर ये उसे देख ही लेंगे और इनसे अत्यन्त विरोध करनेमें हमारा कुशल नहीं है । " ऐसा सोचकर निखिल संसारके कारणस्वरूप श्रीनारायणसे अकूरजी बोले- ॥ १४० ॥ भगवन्ममैतत्स्यमन्तकरत्नं शतधनुषा समर्पितमपगते च तस्मिन्नद्य श्वः परश्वो वा भगवान् याचयिष्यतीति कृतमतिः तिकृच्छ्रेणैतावन्तं कालमधारयम् ॥ १४१ ॥
"भगवन् ! शतधन्वाने मुझे वह मणि सौंप दी थी । उसके मर जानेपर मैंने यह सोचते हुए बड़ी ही कठिनतासे इसे इतने दिन अपने पास रखा है कि भगवान् आज, कल या परसों इसे माँगेंगे ॥ १४१ ॥ तस्य च धारणशेक्लेनाहं अशेषोपभोगेष्वसङ्गिमानसो न वेद्मि स्वसुखकलामपि ॥ १४२ ॥
इसकी चौकसीके क्लेशसे सम्पूर्ण भोगोंमें अनासक्तचित्त होनेके कारण मुझे सुखका लेशमात्र भी नहीं मिला ॥ १४२ ॥ एतावन्मात्रमप्यशेषराष्ट्रोपकारी धारयितुं न शक्नोति भवान्मन्यत इत्यात्मना न चोदितवान् ॥ १४३ ॥
भगवान् ये विचार करते कि, यह सम्पूर्ण राष्ट्र के उपकारक इतनेसे भारको भी नहीं उठा सकता, इसलिये स्वयं मैंने आपसे कहा नहीं ॥ १४३ ॥ तदीदं स्यमन्तकरत्नं गृह्यतामिच्छया यस्याभिमतं तस्य समर्प्यताम् ॥ १४४ ॥
अब, लीजिये आपकी वह स्यमन्तकमणि यह रही, आपकी जिसे इच्छा हो उसे ही इसे दे दीजिये" ॥ १४४ ॥ ततः स्वोदरवस्त्रनिगोपितमति लघुकनकसमुद्गकगतं प्रकटीकृतवान् ॥ १४५ ॥
ततश्च निष्क्राम्य स्यमन्तकमणिं तस्मिन्यदुकुलसमाजे मुमोच ॥ १४६ ॥ तब अक्रूरजीने अपने कटि-वस्त्रमें छिपायी हुई एक छोटी-सी सोनेकी पिटारीमें स्थित वह स्यमन्तकमणि प्रकट की और उस पिटारीसे निकालकर यादवसमाजमें रख दी ॥ १४५-१४६ ॥ मुक्तमात्रे च तस्मिन्नतिकान्त्या तदखिलमास्थानमुद्योतितम् ॥ १४७ ॥
उसके रखते ही वह सम्पूर्ण स्थान उसकी तीव्र कान्तिसे देदीप्यमान होने लगा ॥ १४७ ॥ अथाहाक्रुरः स एष मणिः शतधन्वनास्माकं समर्पितः यस्यायं स एनं गृह्णातु इति ॥ १४८ ॥
तब अक्रूरजीने कहा-"मुझे यह मणि शतधन्वाने दी थी, यह जिसकी हो वह ले ले ॥ १४८ ॥ तमालोक्य सर्वयादवानां साधुसाध्विति विस्मितमनसां वाचोऽश्रूयन्त ॥ १४९ ॥
उसको देखनेपर सभी यादवोंका विस्मयपूर्वक साधु, साधु' यह वचन सुना गया ॥ १४९ ॥ तमालोक्यातीव बलभद्रो ममायमच्युतेनैव सामान्यःसमन्विप्सित इति कृतस्पृहोऽभूत् ॥ १५० ॥
उसे देखकर बलभद्रजीने 'अच्युतके ही समान इसपर मेरा भी अधिकार है' इस प्रकार अपनी अधिक स्पृहा दिखलायी ॥ १५० ॥ ममैवायं पितृधनमित्यतीव च सत्यभामापि स्पृहयाञ्चकार ॥ १५१ ॥
तथा 'यह मेरी ही पैतृक सम्पत्ति है' इस तरह सत्यभामाने भी उसके लिये अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट की ॥ १५१ ॥ बलसत्यावलोकनात् कृष्णोप्यात्मानं गोचक्रान्तरावस्थितमिव मेने ॥ १५२ ॥
बलभद्र और सत्यभामाको देखकर कृष्णचन्द्रने अपनेको बैल और पहियेके बीचमें पड़े हुए जीवके समान दोनों ओरसे संकटग्रस्त देखा ॥ १५२ ॥ सकलयादवसमक्षं चाक्रूरमाह ॥ १५३ ॥
और समस्त यादबके सामने वे अकरजीसे बोले- ॥ १५३ ॥ एतद्धि मणिरत्नमात्मसंसोधनाय एतेषां यदूनां मया दर्शितम् एतच्च मम बलभद्रस्य च सामान्यं पितृधनं चैतत्सत्यभामाया नान्यस्यैतत् ॥ १५४ ॥
"इस मणिरत्नको मैंने अपनी सफाई देनेके लिये ही इन यादवोंको दिखवाया था । इस मणिपर मेरा और बलभद्रजीका तो समान अधिकार है और सत्यभामाकी यह पैतृक सम्पत्ति है: और किसीका इसपर कोई अधिकार नहीं है ॥ १५४ ॥ एतच्च सर्वकालं शुचिना ब्रह्मचर्यादिगुणवता ध्रियमाममशेषराष्ट्रस्य उपकारकमशुचिना ध्रयमाणमाधारमेव हन्ति ॥ १५५ ॥
यह मणि सदा शुद्ध और ब्रह्मचर्य आदि गुणयुक्त रहकर धारण करनेसे सम्पूर्ण राष्ट्रका हित करती है और अशुद्धावस्था में धारण करनेसे अपने आश्रयदाताको भी मार डालती है ॥ १५५ ॥ अतोऽहमस्य षोडशस्त्रीसहस्र परिग्रहादसमर्थो धारणे कथमेतत्सत्यभामा स्वीकरोति ॥ १५६ ॥
मेरे सोलह हजार स्त्रियाँ हैं, इसलिये मैं इसके धारण करने में समर्थ नहीं हूँ, इसीलिये सत्यभामा भी इसको कैसे धारण कर सकती है ? ॥ १५६ ॥ आर्यबलभद्रेणापि मदिरापानादि अशेषोपभोगपरित्यागः कार्यः ॥ १५७ ॥
आर्य बलभद्रको भी इसके कारणसे मदिरापान आदि सम्पूर्ण भोगोंको त्यागना पड़ेगा ॥ १५७ ॥ तदलं यदुलोकोऽयं बलभद्रः अहं च सत्या च त्वां दानपते प्रार्थयामः ॥ १५८ ॥
तद्भवानेव धारयितुं समर्थः ॥ १५९ ॥ इसलिये हे दानपते ! ये यादवगण, बलभद्रजी, मैं और सत्यभामा सब मिलकर आपसे प्रार्थना करते हैं कि इसे धारण करनेमें आप ही समर्थ हैं ॥ १५८-१५९ ॥ त्वद्धृतं चास्य राष्ट्रस्योपकारकं तद्भवानशेषराष्ट्रनिमित्तं एतत्पूर्ववद्धारयत्वन्यन्न वक्तव्यमित्युक्तो दानपतिस्तथेत्याह जग्राह च तन्महारत्नम् ॥ १६० ॥
ततः प्रभृत्यक्रूरः प्रकटेनैव तेनातिजाज्ज्वल्यम्नेन आत्मकण्ठावसक्तेनादित्य इवांशुमाली चचार ॥ १६१ ॥ आपके धारण करनेसे यह सम्पूर्ण राष्ट्रका हित करेगी, इसलिये सम्पूर्ण राष्ट्रके मंगलके लिये आप ही इसे पूर्ववत् धारण कीजिये; इस विषयमें आप और कुछ भी न कहें । " भगवान्के ऐसा कहनेपर दानपति अकूरने 'जो आज्ञा' कह वह महारत्न ले लिया । तबसे अकरजी सबके सामने उस अति देदीप्यमान मणिको अपने गलेमें धारणकर सूर्यके समान किरण-जालसे युक्त होकर विचरने लगे ॥ १६०-१६१ ॥ इत्येतद्भगवतो मिथ्याभिशस्तिक्षालनं यः स्मरति न तस्य कदाचिदल्पापि मिथ्याभिशस्तिर्भवति अव्याहत अखिलेन्द्रियश्च अखिलपापमोक्षमवाप्नोति ॥ १६२ ॥
भगवान्के मिथ्या-कलंक-शोधनरूप इस प्रसंगका जो कोई स्मरण करेगा उसे कभी थोड़ा-सा भी मिथ्या कलंक न लगेगा, उसकी समस्त इन्द्रियाँ समर्थ रहेंगी तथा वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जायगा ॥ १६२ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थांशे त्रयोदशोऽध्यायः (१३)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ |