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॥ विष्णुपुराणम् ॥ चतुर्थः अंशः ॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
हिरण्यकशिपुत्वे च रावणत्वे च विष्णुना । अवाप निहतो भोगानप्राप्यानमरैरपि ॥ १ ॥ न लयं तत्र तेनैव निहतः स कथं पुनः । सम्प्राप्तः शिशुपालत्वे सायुज्यं शाश्वते हरौ ॥ २ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले- भगवन् ! पूर्वजन्मोंमें हिरण्यकशिपु और रावण होनेपर इस शिशुपालने भगवान् विष्णुके द्वारा मारे जानेसे देव-दुर्लभ भोगोंको तो प्राप्त किया, किन्तु यह उनमें लीन नहीं हुआ; फिर इस जन्ममें ही उनके द्वारा मारे जानेपर इसने सनातन पुरुष श्रीहरिमें सायुज्य-मोक्ष कैसे प्राप्त किया ? ॥ १-२ ॥ एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वधर्मभृतां वर ।
कौतूहलपरेणैतत्पृष्टो मे वक्तुमर्हसि ॥ ३ ॥ हे समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ मुनिवर । यह बात सुननेकी मुझे बड़ी ही इच्छा है । मैंने अत्यन्त कुतूहलवश होकर आपसे यह प्रश्न किया है, कृपया इसका निरूपण कीजिये ॥ ३ ॥ श्रीपराशर उवाच
दैत्येश्वरस्य वधाय अखिललोकोत्पत्तिस्थितिविनाशकारिणा पूर्वं तनुग्रहणं कुर्वता नृसिंह रूपमाविष्कृतम् ॥ ४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-प्रथम जन्ममें दैत्यराज हिरण्यकशिपुका वध करनेके लिये सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और नाश करनेवाले भगवान्ने शरीर ग्रहण करते समय नसिंहरूप प्रकट किया था ॥ ४ ॥ तत्र च हिरण्यकशिपोर्विष्णुरयमित्येतन्न मनस्यभूत् ॥ ५ ॥
उस समय हिरण्यकशिपुके चित्तमें यह भाव नहीं हुआ था कि ये विष्णुभगवान् हैं ॥ ५ ॥ निरतिशय पुण्यसमुद्भूतमेतत् सत्त्वाजातमिति ॥ ६ ॥
केवल इतना ही विचार हुआ कि यह कोई निरतिशय पुण्य-समूहसे उत्पन्न हुआ प्राणी है ॥ ६ ॥ रजोद्रेकप्रेरितैकाग्रमतिः तद्भावनायोगात् ततोवाप्तवधहैतुकीं निरतिशयामेव अखिलत्रैलोक्यकारीणीं दशाननत्वे भोगसम्पदमवाप ॥ ७ ॥
रजोगुणके उत्कर्षसे प्रेरित हो उसकी मति [उस विपरीत भावनाके अनुसार] दृढ़ हो गयी । अतः उसके भीतर ईश्वरीय भावनाका योग न होनेसे भगवान्के द्वारा मारे जानेके कारण ही रावणका जन्म लेनेपर उसने सम्पूर्ण त्रिलोकीमें सर्वाधिक भोग-सम्पत्ति प्राप्त की ॥ ७ ॥ न तु स तस्मिन् अनादिनिधने परब्रह्मभूते भगवत्यनालम्बिनि कृते मनसस्तल्लयमवाप ॥ ८ ॥
उन अनादि-निधन, परब्रह्मस्वरूप, निराधार भगवान्में चित्त न लगानेके कारण वह उन्हींमें लीन नहीं हुआ ॥ ८ ॥ एवं दशाननत्वेपि अनङ्गपराधीनतया जानकीसमासक्तचेतसा भगवता दाशरथि रूपधारिणा हतस्य तद्रूपदर्शनमेवासीत् नायमच्युत इत्यासक्तिर्विपद्यतोंऽतःकरणे मानुषबुद्धिरेव केवलमस्याभूत् ॥ ९ ॥
इसी प्रकार रावण होनेपर भी कामवश जानकीजीमें चित्त लग जानेसे भगवान् दशरथनन्दन रामके द्वारा मारे जानेपर केवल उनके रूपका ही दर्शन हुआ था; 'ये अच्युत हैं' ऐसी आसक्ति नहीं हुई, बल्कि मरते समय इसके अन्तःकरणमें केवल मनुष्यबुद्धि ही रही ॥ ९ ॥ पुनरपि अच्युतविनिपातमात्रफलं अखिलभूमण्डल श्लाघ्यचेदिराजकुले जन्म अव्याहतैश्वर्यं शिशुपालत्वेप्यवाप ॥ १० ॥
फिर श्रीअच्युतके द्वारा मारे जानेके फलस्वरूप इसने सम्पूर्ण भूमण्डलमें प्रशंसित चेदिराजके कुलमें शिशुपालरूपसे जन्म लेकर भी अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त किया ॥ १० ॥ तत्र त्वखिलानामेव स भगवन्नाम्नां त्वङ्कारकारणमभवत् ॥ ११ ॥
उस जन्ममें वह भगवान्के प्रत्येक नामोंमें तुच्छताकी भावना करने लगा ॥ ११ ॥ ततश्च तत्कालकृतानां तेषामशेषणामेव अच्युतनाम्नामनवरतं अनेकजन्मसु वर्धितविद्वेषानुबन्धिचित्तो विनिन्दनसन्तर्जनादिषु उच्चारणमकरोत् ॥ १२ ॥
उसका हृदय अनेक जन्मके द्वेषानुबन्धसे युक्त था, अतः वह उनकी निन्दा और तिरस्कार आदि करते हुए भगवान्के सम्पूर्ण समयानुसार लीलाकृत नामोंका निरन्तर उच्चारण करता था ॥ १२ ॥ तच्च रूपमुत्फुल्लपद्मदलामलाक्षिं अत्युज्ज्वलपीतवस्त्रधार्य मलकिरिटकेयूरहारकटकादि शोभितमुदारचतुर्बाहु शङ्खचक्रगदाधरमति प्ररूढवैरानुभावाद् अटनभोजनस्नानासनशयनादिषु अ्वशेषावस्थान्तरेषु नान्यत्रोपययावस्य चेतसः ॥ १३ ॥
खिले हुए कमलदलके समान जिसकी निर्मल आँखें हैं, जो उज्ज्वल पीताम्बर तथा निर्मल किरीट, केयूर, हार और कटकादि धारण किये हुए हैं तथा जिसकी लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं और जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं, भगवान्का वह दिव्य रूप अत्यन्त वैरानुबन्धके कारण भ्रमण, भोजन, स्नान, आसन और शयन आदि सम्पूर्ण अवस्थाओं में कभी उसके चित्तसे दूर न होता था ॥ १३ ॥ ततस्तमेवाक्रोशेषु उच्चारयंस्तमेव हृदयेन धारयन्नात्मवधाय यावद् भगवद्धस्तचक्रांशु मालोज्ज्वालमक्षयतेजःस्वरूपं ब्रह्मभूतमपगतद्वेषादिदोषं भगवन्तमद्राक्षीत् ॥ १४ ॥
फिर गाली देते समय उन्हींका नामोच्चारण करते हए और हदयमें भी उन्हींका ध्यान धरते हुए जिस समय वह अपने वधके लिये हाथमें धारण किये चक्रके उज्ज्वल किरणजालसे सुशोभित, अक्षय तेजस्वरूप द्वेषादि सम्पूर्ण दोषोंसे रहित ब्रह्मभूत भगवान्को देख रहा था ॥ १४ ॥ तावच्च भगवच्चक्रेणाशु व्यापादितस्तत्स्मरण दग्धाखिलाघसञ्चयो भगवतान्तं उपनीतस्ततस्मिन्नेव लयमुपययौ ॥ १५ ॥
उसी समय तुरन्त भगवच्चक्रसे मारा गया; भगवत्स्मरणके कारण सम्पूर्ण पापराशिके दग्ध हो जानेसे भगवान्के द्वारा उसका अन्त हुआ और वह उन्हींमें लीन हो गया ॥ १५ ॥ एतत्तवाखिलंमयाभिहितम् ॥ १६ ॥
इस प्रकार इस सम्पूर्ण रहस्यका मैंने तुमसे वर्णन किया ॥ १६ ॥ अयं हि भगवान् कीर्तितश्च संस्मृतश्च द्वेषानुबन्धेनापि अखिलमुरासुरादिदुर्लभं फलं प्रयच्छति किमुत सम्यग्भक्तिमतामिति ॥ १७ ॥
अहो ! वे भगवान् तो द्वेषानुबन्धके कारण भी कीर्तन और स्मरण करनेसे सम्पूर्ण देवता और असुरोंको दुर्लभ परमफल देते हैं, फिर सम्यक् भक्तिसम्पन्न पुरुषोंकी तो बात ही क्या है ? ॥ १७ ॥ वसुदेवस्य त्वानकदुन्दुभेः पौरवी रोहिणी मदिरा भद्रादेवकीप्रमुखा बह्व्यः पत्न्योऽभवन् ॥ १८ ॥
आनकदुन्दुभि वसुदेवजीके पौरवी, रोहिणी, मदिरा, भद्रा और देवकी आदि बहुत-सी स्त्रियाँ थीं ॥ १८ ॥ बलभद्र शठ सारण दुर्मदादीन् पुत्रान् रोहिण्यां आनकदुन्दुभिरुत्पादयामास ॥ १९ ॥
उनमें रोहिणीसे वसुदेवजीने बलभद्र, शठ, सारण और दुर्मद आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ १९ ॥ बलदेवोऽपि रेवत्यां विशठोल्मुकौ पुत्रावजनयत् ॥ २० ॥
तथा बलभद्रजीके रेवतीसे विशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए ॥ २० ॥ सार्ष्टिमार्ष्टिशिशु सत्यधृतिप्रमुखाः सारणात्मजाः ॥ २१ ॥
साष्टि, माष्टि, सत्य और धृति आदि सारणके पुत्र थे ॥ २१ ॥ भद्राश्व भद्रबाहु दुर्दमभूताद्याः रोहिण्याः कुलजाः ॥ २२ ॥
इनके अतिरिक्त भद्राश्व, भद्रबाहु, दुर्दम और भूत आदि भी रोहिणीहीको सन्तानमें थे ॥ २२ ॥ नन्दोपनन्दकृतकाद्य मदिरायास्तनयाः ॥ २३ ॥
भद्रायाश्चोपनिधिगदाद्याः ॥ २४ ॥ नन्द, उपनन्द और कृतक आदि मदिराके तथा उपनिधि और गद आदि भद्राके पुत्र थे ॥ २३-२४ ॥ वैशाल्यां च कौशिकं एकमेवाजनयत् ॥ २५ ॥
वैशालीके गर्भसे कौशिक नामक केबल एक ही पुत्र हुआ । ॥ २५ ॥ आनकदुन्दुभेर्देवक्यामपि कीर्तिमत्सुषेणोदायु भद्रसेनऋजदासभद्रदेवाख्याः षट् पुत्रा जज्ञिरे ॥ २६ ॥
आनकदुन्दुभिके देवकोसे कीर्तिमान, सुषेण, उदायु, भद्रसेन, ऋजुदास तथा भद्रदेव नामक छ: पुत्र हुए ॥ २६ ॥ तांश्च सर्वानेव कंसोघातितवान् ॥ २७ ॥
इन सबको कंसने मार डाला था ॥ २७ ॥ अनन्तरं च सप्तमं गर्भमर्धरात्रे भगवत्प्रहिता योगनिद्रा रोहिण्या जठरमाकृष्य नीतवती ॥ २८ ॥
पीछे भगवान्की प्रेरणासे योगमायाने देवकीके सातवें गर्भको आधी रातके समय खींचकर रोहिणीकी कुक्षिमें स्थापित कर दिया ॥ २८ ॥ कर्षणाच्चासावपि संकर्षणाख्यामगमत् ॥ २९ ॥
आकर्षण करनेसे इस गर्भका नाम संकर्षण हुआ ॥ २९ ॥ ततश्च सकलजगन्महातरुमूलभूतो भूतभविष्यदादि सकलसुरासुर मुनिजन मनसामप्यगोचरोऽब्जभवप्रमुखैः अनलमुखैः प्रणम्यावनिभारहरणाय प्रसादितो भगवाननादिमध्यनिधनो देवकीगर्भमवततार वासुदेवः ॥ ३० ॥
तत्प्रसादविवद्धमानोरुमहिमा च योगनिद्रा नन्दगोपपत्न्या यशोदाया गर्भमधितिष्ठितवती ॥ ३१ ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण संसाररूप महावृक्षके मूलस्वरूप भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालीन सम्पूर्ण देव, असुर और मुनिजनकी बुद्धिके अगम्य तथा ब्रह्मा और अग्नि आदि देवताओंद्वारा प्रणाम करके भूभारहरणके लिये प्रसन्न किये गये आदि, मध्य और अन्तहीन भगवान् वासुदेवने देवकीके गर्भसे अवतार लिया तथा उन्हींकी कृपासे बढ़ी हुई महिमावाली योगनिद्रा भी नन्दगोपकी पत्नी यशोदाके गर्भमें स्थित हुई ॥ ३०-३१ ॥ सुप्रसन्नादित्य चन्द्रादिग्रहमव्यालादिभयं स्वस्थमानसं अखिलमेवैतद् जगदपास्ताधर्ममभवत् तत्स्मिंश्च पुण्डरीकनयने जायमाने ॥ ३२ ॥
उन कमलनयन भगवान्के प्रकट होनेपर यह सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न हुए सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहोंसे सम्पन्न सादिके भयसे शून्य, अधर्मादिसे रहित तथा स्वस्थचित हो गया ॥ ३२ ॥ जातेन च तेनाखिलं एवैतत्सन्मार्गवर्ति जगदक्रियत ॥ ३३ ॥
उन्होंने प्रकट होकर इस सम्पूर्ण संसारको सन्मार्गावलम्बी कर दिया ॥ ३३ ॥ भगवतोप्यत्र मर्त्यलोकेऽवतीर्णस्य षोडशसहस्राणि एकोत्तरशताधिकानि भार्याणामभवन् ॥ ३४ ॥
इस मर्त्यलोकमें अवतीर्ण हुए भगवान्की सोलह हजार एक सौ एक रानियाँ थीं ॥ ३४ ॥ तासां च रुक्मिणी सत्यभामा जाम्बवती चारुहासिनीप्रमुखा ह्यष्टौ पत्न्यः प्रधाना बभूचवुः ॥ ३५ ॥
उनमें रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती और चारुहासिनी आदि आठ मुख्य थीं ॥ ३५ ॥ तासु चाष्टावयुतानिलक्षं च पुत्राणां भगवान् अखिलमूर्तिरनादिमानजनयत् ॥ ३६ ॥
अनादि भगवान् अखिलमूर्तिने उनसे एक लाख अस्सी हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ ३६ ॥ तेषां च प्रद्युम्न चारुदेष्ण्यसाम्बादयस्त्रयोदश प्रधानाः ॥ ३७ ॥
उनमेंसे प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और साम्ब आदि तेरह पुत्र प्रधान थे ॥ ३७ ॥ प्रद्युम्नोपि रुक्मिणस्तनयां रुक्मवतीं नामोपयेमे ॥ ३८ ॥
प्रद्युम्नने भी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीसे विवाह किया था ॥ ३८ ॥ तस्यामनिरुद्धो जज्ञे ॥ ३९ ॥
उससे अनिरुद्धका जन्म हुआ ॥ ३९ ॥ अनिरुद्धोऽपि रुक्मिणा एव पौत्रीं सुभद्रां नामो पयेमे ॥ ४० ॥
अनिरुद्धने भी रुक्मीकी पौत्री सुभद्रासे विवाह किया था ॥ ४० ॥ तस्यामस्य वज्रो जज्ञे ॥ ४१ ॥
उससे वज्र उत्पन्न हुआ ॥ ४१ ॥ वज्रस्य प्रतिबाहुस्तस्यापि सुचारुः ॥ ४२ ॥
वज्रका पुत्र प्रतिबाहु तथा प्रतिबाहुका सुचारु था ॥ ४२ ॥ एवं अनेकशतसहस्र पुरुषसंख्यस्य यदुकुलस्य पुत्रसंख्या वर्षशतैरपि वक्तुं न शक्यते ॥ ४३ ॥
इस प्रकार सैकड़ों हजार पुरुषों की संख्यावाले यदुकुलकी सन्तानोंकी गणना सौ वर्षमें भी नहीं की जा सकती ॥ ४३ ॥ यतो हि श्लोकाविमावत्र चरितार्थौ ॥ ४४ ॥
क्योंकि इस विषयमें ये दो श्लोक चरितार्थ हैं- ॥ ४४ ॥ तिस्त्रः कोट्यःसहस्राणां अष्टाशीति शतानि च ।
कुमाराणां गृहाचार्याश्चापयोगेषु ये रताः ॥ ४५ ॥ संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम् । यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते सदाहुकः ॥ ४६ ॥ जो गृहाचार्य यादवकुमारोंको धनुर्विद्याकी शिक्षा देनेमें तत्पर रहते थे उनकी संख्या तीन करोड़ अट्ठासी लाख थी, फिर उन महात्मा यादवोंकी गणना तो कर ही कौन सकता है ? जहाँ हजारों और लाखोंकी संख्यामें सर्वदा यदुराज उग्रसेन रहते थे ॥ ४५-४६ ॥ देवासुरे हता ये तु दैतेयाःसुमहाबलाः ।
उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः ॥ ४७ ॥ देवासुर-संग्राममें जो महाबली दैत्यगण मारे गये थे वे मनुष्यलोकमें उपद्रव करनेवाले राजालोग होकर उत्पन्न हुए ॥ ४७ ॥ रेषामुत्सादनार्थाय भुवि देवा यदोः कुले । अवतीर्णाः कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज ॥ ४८ ॥
उनका नाश करनेके लिये देवताओंने यदुवंशमें जन्म लिया जिसमें कि एक सौ एक कुल थे ॥ ४८ ॥ विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिनस्तस्य ववृधुःसर्वयादवाः ॥ ४९ ॥ उनका नियन्त्रण और स्वामित्व भगवान् विष्णुने ही किया । वे समस्त यादवगण उनकी आज्ञानुसार ही वृद्धिको प्राप्त हुए ॥ ४९ ॥ इति प्रसूतिं वृष्णीनां यः शृणोति नरः सदा ।
स सर्वैः पातकैर्मुक्तो विष्णुलोकं प्रपद्यते ॥ ५० ॥ इस प्रकार जो पुरुष इस वृष्णिवंशकी उत्पत्तिके विवरणको सुनता है वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको प्राप्त कर लेता है । ॥ ५० ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थांशे पञ्चदशोऽध्यायः (१५)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे पञ्चदशोध्यायः ॥ १५ ॥ |