![]() |
॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
विमुक्तो वसुदेवोऽपि नन्दस्य शकटं गतः । प्रहृष्टं दृष्टवान्नन्दं पुत्रो जातो ममेति वै ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-बन्दीगृहसे छूटते ही वसुदेवजी नन्दजीके छकड़ेके पास गये तो उन्हें इस समाचारसे अत्यन्त प्रसन्न देखा कि 'मेरे पुत्रका जन्म हुआ है' ॥ १ ॥ वसुदेवोपि तं प्राह दिष्ट्यादिष्ट्येति सादरम् ।
वार्धकेऽपि समुत्पन्नस्तनयोऽयं तवाधुना ॥ २ ॥ तब वसुदेवजीने भी उनसे आदरपूर्वक कहा-अब वृद्धावस्थामें भी आपने पुत्रका मुख देख लिया यह बड़े ही सौभाग्यकी बात है ॥ २ ॥ दत्तो हि वार्षिकःसर्वो भवद्भिर्नृपतेः करः ।
यदर्थमागतास्तस्मान्नात्र स्थेयं महाधनैः ॥ ३ ॥ आपलोग जिसलिये यहाँ आये थे वह राजाका सारा वार्षिक कर दे ही चुके हैं । यहाँ धनवान् पुरुषों को और अधिक न ठहरना चाहिये ॥ ३ ॥ यदर्थमागताः कार्यं तन्निष्पन्नं किमास्यते ।
भवद्भिर्गम्यतां नन्द तच्छीघ्रं निजगोकुलम् ॥ ४ ॥ आपलोग जिसलिये यहाँ आये थे वह कार्य पूरा हो चुका, अब और अधिक किसलिये ठहरे हुए हैं ? [यहाँ देरतक ठहरना ठीक नहीं है अत: हे नन्दजी ! आपलोग शीघ्र ही अपने गोकलको जाइये ॥ ४ ॥ ममापि बालकस्तत्र रोहिणी प्रभवो हि यः ।
स रक्षणीयो भवता यथायं तनयो निजः ॥ ५ ॥ वहाँपर रोहिणीसे उत्पन्न हुआ जो मेरा पुत्र है उसकी भी आप उसी तरह रक्षा कीजियेगा जैसे अपने इस बालककी ॥ ५ ॥ इत्युक्ताः प्रययुर्गोपा नन्दगोपपुरोगमाः ।
शकटारोपितैर्भाण्डैः करं दत्त्वा महाबलाः ॥ ६ ॥ वसुदेवजीके ऐसा कहनेपर नन्द आदि महाबलवान् गोपगण छकड़ोमें रखकर लाये हुए भाण्डोंसे कर चुकाकर चले गये ॥ ६ ॥ वसतां गोकुले तेषां पूतना बालघातिनी ।
सुप्तं कृष्णमुपादाय रात्रौ तस्मै स्तनं ददौ ॥ ७ ॥ उनके गोकुलमें रहते समय बालघातिनी पूतनाने रात्रिके समय सोये हुए कृष्णको गोदमें लेकर उनके मुखमें अपना स्तन दे दिया ॥ ७ ॥ यस्मै यस्मै स्तनं रात्रौ पूतना सम्प्रयच्छति ।
तस्यतस्य क्षणेनाङ्गं बालकस्योपहन्यते ॥ ८ ॥ रात्रिके समय पूतना जिस-जिस बालकके मुखमें अपना स्तन दे देती थी उसीका शरीर तत्काल नष्ट हो जाता था ॥ ८ ॥ कृष्णस्तु तत्स्तनं गाढं कराभ्यामतिपीडितम् ।
गृहीत्वा प्राणसहितं पपौक्रोधसमन्वितः ॥ ९ ॥ कृष्णचन्द्रने क्रोधपूर्वक उसके स्तनको अपने हाथोंसे खूब दबाकर पकड़ लिया और उसे उसके प्राणोंके सहित पीने लगे ॥ ९ ॥ सातिमुक्तमहारावा विच्छिन्नस्नायुबन्धना ।
पपात पूतना भूमौ म्रियमाणातिभीषणा ॥ १० ॥ तब स्नायु-बन्धनोंके शिथिल हो जानेसे पूतना घोर शब्द करती हुई मरते समय महाभयंकर रूप धारणकर पृथिवीपर गिर पड़ी ॥ १० ॥ तन्नादश्रुतिसन्त्रस्ताः प्रबुद्धास्ते व्रजौकसः ।
ददृशुः पूतनोत्सङ्गे कृष्णं तां च निपातिताम् ॥ ११ ॥ उसके घोर नादको सुनकर भयभीत हुए व्रजवासीगण जाग उठे और देखा कि कृष्ण पूतनाकी गोदमें हैं और वह मारी गयी है ॥ ११ ॥ आदाय कृष्णं सन्त्रस्ता यशोदापि द्विजोत्तम ।
गोपुच्छभ्रामणेनाथ बालदोषमपाकरोत् ॥ १२ ॥ हे द्विजोत्तम ! तब भयभीता यशोदाने कृष्णको गोदमें लेकर उन्हें गौकी पूँछसे झाड़कर बालकका ग्रह-दोष निवारण किया ॥ १२ ॥ गोपुरीषमुपादाय नन्दगोपोऽपि मस्तके ।
कृष्णस्य प्रददो रक्षां कुर्वंश्चैतदुदीरयन् ॥ १३ ॥ नन्दगोपने भी आगेके वाक्य कहकर विधिपूर्वक रक्षा करते हुए कृष्णके मस्तकपर गोबरका चूर्ण लगाया ॥ १३ ॥ नन्दगोप उवाच
रक्षतु त्वामशेषाणां भूतानां प्रभवो हरिः । यस्य नाभिसमुद्भूतपङ्कजादभवज्जगत् ॥ १४ ॥ नन्दगोप बोले-जिनकी नाभिसे प्रकट हुए कमलसे सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है वे सम्पूर्ण भूतोंके आदिस्थान श्रीहरि तेरी रक्षा करें ॥ १४ ॥ येन दंष्ट्राग्रविधृता धारयत्यवनिर्जगत् ।
वराहरूपधृग्देवःस त्वां रक्षतु केशवः ॥ १५ ॥ जिनकी दाढ़ोंके अग्रभागपर स्थापित होकर भूमि सम्पूर्ण जगत्को धारण करती है, वे वराह-रूप-धारी श्रीकेशव तेरी रक्षा करें ॥ १५ ॥ नखाङ्कुरविनिर्भिन्नवैरिवक्षस्थलो विभुः ।
नृसिंहरूपी सर्वत्र रक्षतु त्वां जनार्दनः ॥ १६ ॥ जिन विभुने अपने नखानोंसे शत्रुके वक्षःस्थलको विदीर्ण कर दिया था, वे नृसिंहरूपी जनार्दन तेरी सर्वत्र रक्षा करें ॥ १६ ॥ वामनो रक्षतु सदा भवन्तं यः क्षणादभूत् ।
त्रिविक्रमः क्रमाक्रान्तत्रैलोक्यः स्फुरदायुधः ॥ १७ ॥ जिन्होंने क्षणमात्रमें सशस्त्र त्रिविक्रमरूप धारण करके अपने तीन पगोंसे त्रिलोकीको नाप लिया था, वे वामनभगवान् तेरी सर्वदा रक्षा करें ॥ १७ ॥ शिरस्ते पातु गोविन्दः कण्ठं रक्षतु केशवः ।
गुह्यं च जठरं विष्णुर्जङ्घे पादौ जनार्दनः ॥ १८ ॥ गोविन्द तेरे सिरकी, केशव कण्ठकी, विष्णु गुहास्थान और जठरकी तथा जनार्दन जंघा और चरणोंकी रक्षा करें ॥ १८ ॥ मुखं बाहू प्रबाहू च मनः सर्वेद्रियाणि च ।
रक्षत्वव्याहतैश्वर्यस्तव नारायणोऽव्ययः ॥ १९ ॥ तेरे मुख, बाहु, प्रबाहु, मन और सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी अखण्ड-ऐश्वर्यसे सम्पन्न अविनाशी श्रीनारायण रक्षा करें ॥ १९ ॥ शार्ङ्गचक्रगदापाणेः शङ्खनादहताः क्षयम् ।
गच्छन्तु प्रेतकूष्माण्डराक्षसा ये तवाहिताः ॥ २० ॥ तेरे अनिष्ट करनेवाले जो प्रेत, कूष्माण्ड और राक्षस हों वे शाङ्ग धनुष, चक्र और गदा धारण करनेवाले विष्णुभगवान्की शंख-ध्वनिसे नष्ट हो जायें ॥ २० ॥ त्वां पातु दिक्षु वैकुण्ठो विदिक्षु मधुसूदनः ।
हृषीकेशोऽम्बरे भूमौ रक्षतु त्वां महीधरः ॥ २१ ॥ भगवान् वैकुण्ठ दिशाओंमें, मधुसूदन विदिशाओं (कोणों) में, हषीकेश आकाशमें तथा पृथिवीको धारण करनेवाले श्रीशेषजी पृथिवीपर तेरी रक्षा करें ॥ २१ ॥ श्रीपराशर उवाच
एवं कृतस्वस्त्ययनो नन्दगोपेन बालकः । शायितः शकटस्याधो बालपर्यङ्किकातले ॥ २२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार स्वस्तिवाचन कर नन्दगोपने बालक कृष्णको छकड़ेके नीचे एक खटोलेपर सुला दिया ॥ २२ ॥ ते च गोपा महद्दृष्ट्वा पूतनायाः कलेवरम् ।
मृतायाः परमं त्रासं विस्मयं च तदा ययुः ॥ २३ ॥ मरी हुई पूतनाके महान् कलेवरको देखकर उन सभी गोपोंको अत्यन्त भय और विस्मय हुआ ॥ २३ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः (५)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ |