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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
कदाचिच्छकटस्याधः शयानो मधुसूदनः ।
चिक्षेप चरणावूर्ध्वं स्तन्यार्थी प्ररुरोद ह ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-एक दिन छकड़ेके नीचे सोये हुए मधुसूदनने दूधके लिये रोते-रोते ऊपरको लात मारी ॥ १ ॥

तस्य पादप्रहारेण शकटं परिवर्तितम् ।
विध्वस्तकुम्भभाण्डं तद्विपरीतं पपात वै ॥ २ ॥
उनकी लात लगते ही वह छकड़ा लोट गया, उसमें रखे हुए कुम्भ और भाण्ड आदि फूट गये और वह उलटा जा पड़ा ॥ २ ॥

ततो हाहाकृतः सर्वो गोपरोपीजनो द्विज ।
आजगामाथ ददृशे बालमुत्तानशायिनम् ॥ ३ ॥
हे द्विज ! उस समय हाहाकार मच गया, समस्त गोप-गोपीगण वहाँ आ पहुँचे और उस बालकको उतान सोये हुए देखा ॥ ३ ॥

गोपाः केनेति केनेदं शकटं परिवर्तितम् ।
तत्रैव बालकाः प्रोचुर्बालेनानेन पातितम् ॥ ४ ॥
तब गोपगण पूछने लगे कि 'इस छकड़ेको किसने उलट दिया, किसने उलट दिया ?' तो वहाँपर खेलते हुए बालकोंने कहा-"इस कृष्णने ही गिराया है ॥ ४ ॥

रुदता दृष्टमस्माभिः पादविक्षेपपातितम् ।
शकटं परिवृत्तं वै नैतदन्यस्य चेष्टितम् ॥ ५ ॥
हमने अपनी आँखोंसे देखा है कि रोते-रोते इसकी लात लगनेसे ही यह छकड़ा गिरकर उलट गया है । यह और किसीका काम नहीं है" ॥ ५ ॥

ततः पुनरतीवासन्गोपा विस्मयचेतसः ।
नन्दगोपोपि जग्राह बालमत्यन्तविस्मितः ॥ ६ ॥
यह सुनकर गोपगणके चित्तमें अत्यन्त विस्मय हुआ तथा नन्दगोपने अत्यन्त चकित होकर बालकको उठा लिया ॥ ६ ॥

यशोदा शकटारूढभग्नभाण्डकपालिका ।
शकटं चार्चयामास दधिपुष्पफलाक्षतैः ॥ ७ ॥
फिर यशोदाने भी छकड़ेमें रखे हुए फूटे भाण्डोंके टुकड़ोंकी और उस छकड़ेकी दही, पुष्प, अक्षत और फल आदिसे पूजा की ॥ ७ ॥

गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः ।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारानकरोत्तयोः ॥ ८ ॥
इसी समय वसुदेवजीके कहनेसे गर्गाचार्यने गोपोंसे छिपे-छिपे गोकुलमें आकर उन दोनों बालकोंके [द्विजोचित] संस्कार किये ॥ ८ ॥

ज्येष्ठं च राममित्याह कृष्णं चैव तथावरम् ।
गर्गो मतिमतां श्रेष्ठो नाम कुर्वन्महामतिः ॥ ९ ॥
उन दोनोंके नामकरण-संस्कार करते हुए महामति गर्गजीने बड़ेका नाम राम और छोटेका कृष्ण बतलाया ॥ ९ ॥

स्वल्पेनैव तु कालेन रिङ्‌‍गिणौ तौ तदा व्रजे ।
घृष्टजानुकरौ विप्र बभूवतुरुभावपि ॥ १० ॥
हे विप्र ! वे दोनों बालक थोड़े ही दिनोंमें गौओंके गोष्ठमें रेंगते रेंगते हाथ और घुटनोंके बल चलनेवाले हो गये ॥ १० ॥

करीषभस्मदिग्धाङ्‍गौ भ्रममाणावितस्ततः ।
न निवारयितुं सेहे यशोदा तौ न रोहिणी ॥ ११ ॥
गोबर और राख-भरे शरीरसे इधर-उधर घूमते हुए उन बालकोंको यशोदा और रोहिणी रोक नहीं सकती थीं ॥ ११ ॥

गोवाटमध्ये क्रीडन्तौ वत्सवाटं गतौ पुनः ।
तदहर्जातगोवत्सपुच्छाकर्षणतत्परौ ॥ १२ ॥
कभी वे गौओंके घोषमें खेलते और कभी बछड़ोंके मध्यमें चले जाते तथा कभी उसी दिन जन्मे हुए बछड़ोंको पूंछ पकड़कर खींचने लगते ॥ १२ ॥

यदा यशोदा तौ बालावेकस्थानचरावुभौ ।
शशाक नो वारयितुं क्रीडन्तावतिचञ्चलौ ॥ १३ ॥
दाम्ना मध्ये ततो बद्‌ध्वा बबन्ध तमुलूखले ।
कृष्णमक्लिष्टकर्माणमाह चेदममर्षिता ॥ १४ ॥
एक दिन जब यशोदा, सदा एक ही स्थानपर साथसाथ खेलनेवाले उन दोनों अत्यन्त चंचल बालकोंको न रोक सकी तो उसने अनायास ही सब कर्म करनेवाले कृष्णको रस्सीसे कटिभागमें कसकर ऊखलमें बाँध दिया और रोषपूर्वक इस प्रकार कहने लगी- ॥ १३-१४ ॥

यदि शक्नोषि गच्छ त्वमतिचञ्चलचेष्टित ।
इत्युक्त्वाथ निजं कर्म सा चकार कुटुम्बिनी ॥ १५ ॥
"अरे चंचल ! अब तुझमें सामर्थ्य हो तो चला जा । " ऐसा कहकर कुटुम्बिनी यशोदा अपने घरके धन्धेमें लग गयी ॥ १५ ॥

व्याग्रायामथ तस्यां स कर्षमाम उलूखलम् ।
यमलार्जुनमध्येन जगाम कमलेक्षणः ॥ १६ ॥
उसके गृहकार्यमें व्यग्र हो जानेपर कमलनयन कृष्ण ऊखलको खींचते-खींचते यमलार्जुनके बीचमें गये ॥ १६ ॥

कर्षता वृक्षयोर्मध्ये तिर्यग्गतमुलूखलम् ।
भग्नावुत्तुङ्‍गशाखाग्रौ तेन तौ यमलार्जुनौ ॥ १७ ॥
और उन दोनों वृक्षोंके बीचमें तिरछी पड़ी हुई ऊखलको खींचते हुए उन्होंने ऊँची शाखाओंवाले यमलार्जुन वृक्षको उखाड़ डाला ॥ १७ ॥

ततः कटकटाशब्दसमाकर्णनतत्परः ।
आजगाम व्रजजनो ददर्श च महाद्रुमौ ॥ १८ ॥
नवोद्‍गताल्पदन्तांशुसितहासं च बालकम् ।
तयोर्मध्यगतं दाम्ना बद्धं गाढं तथोदरे ॥ १९ ॥
ततश्च तामोदरतां स ययौ दामबन्धनात् ॥ २० ॥
तब उनके उखड़नेका कट-कट शब्द सुनकर वहाँ व्रजवासीलोग दौड़ आये और उन दोनों महावृक्षोंको तथा उनके बीचमें कमरमें रस्सीसे कसकर बंधे हुए बालकको नन्हें-नन्हें अल्प दाँतोकी श्वेत किरणोंसे शुभ्र हास करते देखा । तभीसे रस्सीसे बँधनेके कारण उनका नाम दामोदर पड़ा ॥ १८-२० ॥

गोपवृद्धास्ततः सर्वे नन्दगोपपुरोगमाः ।
मन्त्रयामासुरुद्विग्ना महोत्पातातिभीरवः ॥ २१ ॥
तब नन्दगोप आदि समस्त वृद्ध गोपोंने महान् उत्पातोंके कारण अत्यन्त भयभीत होकर आपसमें यह सलाह की- ॥ २१ ॥

स्थानेनेह न नः कार्यं व्रजामोन्यन्महावनम् ।
उत्पाता बहवो ह्यत्र दृश्यन्ते नाशहेतवः ॥ २२ ॥
पूतनाया विनाशश्च शकटस्य विपर्ययः ।
विना वातादिदोषेण द्रुमयोः पतनं तथा ॥ २३ ॥
'अब इस स्थानपर रहनेका हमारा कोई प्रयोजन नहीं है, हमें किसी और महावनको चलना चाहिये, क्योंकि यहाँ नाशके कारणस्वरूप, पूतना-वध, छकड़ेका लोट जाना तथा आँधी आदि किसी दोषके बिना ही वृक्षोंका गिर पड़ना इत्यादि बहुत-से उत्पात दिखायी देने लगे हैं ॥ २२-२३ ॥

वृन्दावनमितः स्थानात्तस्माद्‍गच्छाम मा चिरम् ।
यावद्‍भौममहोत्पातदोषो नाभिभवेद्‌व्रजम् ॥ २४ ॥
अतः जबतक कोई भूमिसम्बन्धी महान् उत्पात व्रजको नष्ट न करे तबतक शीघ्र ही हमलोग इस स्थानसे वृन्दावनको चल दें' ॥ २४ ॥

इति कृत्वा मतिं सर्वे गमने ते व्रजौकसः ।
ऊचुः स्वं स्वं कुलं शीघ्रं गम्यतां मा विलम्बथ ॥ २५ ॥
इस प्रकार वे समस्त व्रजवासी चलनेका विचारकर अपने-अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहने लगे-'शीघ्र ही चलो, देरी मत करो' ॥ २५ ॥

ततः क्षणेन प्रययुः शकटैर्गोधनैस्तथा ।
यूथशो वत्सपालाश्च कालयन्तो व्रजौकसः ॥ २६ ॥
तब वे व्रजवासी वत्सपाल दल बाँधकर एक क्षणमें ही छकड़ों और गौओंके साथ उन्हें हाँकते हुए चल दिये ॥ २६ ॥

द्रव्यावयवनिर्धूतं क्षणमात्रेण तत्तथा ।
काकभाससमाकीर्णं व्रजस्थानमभूद्‌द्विज ॥ २७ ॥
हे द्विज ! वस्तुओंके अवशिष्टांशोंसे युक्त वह व्रजभूमि क्षणभरमें ही काक तथा भास आदि पक्षियोंसे व्याप्त हो गयी ॥ २७ ॥

वृन्दावनं भगवता कृष्णेना क्लिष्टकर्मणा ।
शुभेन मनसा ध्यातं गवं सिद्धिमभीप्सता ॥ २८ ॥
तब लीलाविहारी भगवान् कृष्णने गौओंकी अभिवृद्धिको इच्छासे अपने शुद्धचित्तसे वृन्दावन (नित्य-वृन्दावनधाम)-का चिन्तन किया ॥ २८ ॥

ततस्तत्रातिरूक्षेऽपि घर्मकाले द्विजोत्तम ।
प्रावृट्काल इवोद्‍भूतं नवशष्पं समन्ततः ॥ २९ ॥
इससे, हे द्विजोत्तम ! अत्यन्त रूक्ष ग्रीष्मकालमें भी वहाँ वर्षाऋतुके समान सब ओर नवीन दूब उत्पन्न हो गयी ॥ २९ ॥

स समावासितः सर्वो व्रजो वृन्दावने ततः ।
शकटावाटपर्यन्तश्चन्द्रार्धाकारसंस्थितः ॥ ३० ॥
तब चारों ओर अर्द्धचन्द्राकारसे छकड़ोंकी बाड़ लगाकर वे समस्त व्रजवासी वृन्दावनमें रहने लगे ॥ ३० ॥

वत्सपालौ च संवृत्तौ रामदामोदरौ ततः ।
एक स्थनस्थितौ गोष्ठे चेरतुर्बाललीलया ॥ ३१ ॥
तदनन्तर राम और कृष्ण भी बछड़ोंके रक्षक हो गये और एक स्थानपर रहकर गोष्ठमें बाललीला करते हुए विचरने लगे ॥ ३१ ॥

बर्हिपत्रकृतापीडौ वन्यपुष्पावतंसकौ ।
गोपवेणुकृतातोद्यपत्रवाद्यकृतस्वनौ ॥ ३२ ॥
काकपक्षधरौ बालौ कुमाराविव पावकी ।
हसन्तौ च रमन्तौ च चेरतुः स्म महावनम् ॥ ३३ ॥
वे काकपक्षधारी दोनों बालक सिरपर मयूर-पिच्छका मुकुट धारणकर तथा वन्यपुष्पोंके कर्णभूषण पहन ग्वालोचित वंशी आदिसे सब प्रकारके बाजोंकी ध्वनि करते तथा पत्तोंके बाजेसे ही नाना प्रकारकी ध्वनि निकालते, स्कन्दके अंशभूत शाख-विशाख कुमारोंके समान हँसते और खेलते हुए उस महावनमें विचरने लगे ॥ ३२-३३ ॥

क्वचिद्वहन्तावन्योन्यं क्रीडमानौ तथा परैः ।
गोपपुत्रैः समं वत्सांश्चारयन्तौ विचेरतुः ॥ ३४ ॥
कभी एक-दूसरेको अपने पीठपर ले जाते तथा कभी अन्य ग्वाल-बालोंके साथ खेलते हुए वे बछड़ोंको चराते साथ-साथ घूमते रहते ॥ ३४ ॥

कालेन गच्छता तौ तु सप्तवर्षौ महाव्रजे ।
सर्वस्य जगतः पालौ वत्सपालौ बभूवतुः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उस महावजमें रहते-रहते कुछ समय बीतनेपर वे निखिललोकपालक वत्सपाल सात वर्षके हो गये ॥ ३५ ॥

प्रावृट्कालस्ततोऽतीव मेघौघस्थगिताम्बरः ।
बभूव वारिधाराभिरैक्यं कुर्वन्दिशामिव ॥ ३६ ॥
तब मेघसमूहसे आकाशको आच्छादित करता हुआ तथा अतिशय वारिधाराओंसे दिशाओंको एकरूप करता हुआ वर्षाकाल आया ॥ ३६ ॥

प्ररूढनवशष्पाढ्या शक्रगोपाचिता मही ।
तथा मारकतीवासीत्पद्मरागविभूषिता ॥ ३७ ॥
उस समय नवीन दुर्वाके बढ़ जाने और वीरबहूटियोंसे* व्याप्त हो जानेके कारण पृथिवी पदारागविभूषिता मरकतमयी-सी जान पड़ने लगी ॥ ३७ ॥

ऊहुरुन्मार्गवाहीनि निम्नगाम्भांसि सर्वतः ।
मनांसि दुर्विनीतानां प्राप्य लक्ष्मीं नवामिव ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार नया धन पाकर दुष्ट पुरुषोंका चित्त उच्छंखल हो जाता है, उसी प्रकार नदियोंका जल सब ओर अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़कर बहने लगा ॥ ३८ ॥

न रेजेऽन्तरितश्चन्द्रो निर्मलो मलिनैर्घनैः ।
सद्वादिवादो मूर्खणां प्रगल्भाभिरिवोक्तिभिः ॥ ३९ ॥
जैसे मूर्ख मनुष्योंकी धृष्टतापूर्ण उक्तियोंसे अच्छे वक्ताकी वाणी भी मलिन पड़ जाती है वैसे ही मलिन मेघोंसे आच्छादित रहनेके कारण निर्मल चन्द्रमा भी शोभाहीन हो गया ॥ ३९ ॥

निर्गुणेनापि चापेन शक्रस्य गगने पदम् ।
अवाप्यताविवेकस्य नृपस्यैव परिग्रहे ॥ ४० ॥
जिस प्रकार विवेकहीन राजाके संगमें गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार आकाशमण्डलमें गुणरहित इन्द्र-धनुष स्थित हो गया ॥ ४० ॥

मेघपृष्ठे बलाकानां रराज विमला ततिः ।
दुर्वत्ते वृत्तचेष्टेव कुलीनस्यातिशोभना ॥ ४१ ॥
दुराचारी पुरुषमें कुलीन पुरुषकी निष्कपट शुभ चेष्टाके समान मैघमण्डलमें बगुलोंकी निर्मल पंक्ति सुशोभित होने लगी ॥ ४१ ॥

न बबन्धाम्बरे स्थैर्यं विद्युदत्यन्तचञ्चला ।
मैत्रीव प्रवरे पुंसि दुर्जनेन प्रयोजिता ॥ ४२ ॥
श्रेष्ठ पुरुषके साथ दुर्जनकी मित्रताके समान अत्यन्त चंचला विद्युत् आकाशमें स्थिर न रह सकी ॥ ४२ ॥

मार्गा बभूवुरस्पष्टास्तृणशष्पचयावृताः ।
अर्थान्तरमनुप्राप्ताः प्रजडानामिवोक्तयः ॥ ४३ ॥
महामूर्ख मनुष्योंकी अन्यार्थिका उक्तियोंके समान मार्ग तृण और दूबसमूहसे आच्छादित होकर अस्पष्ट हो गये ॥ ४३ ॥

उन्मत्तशिखिसारङ्‍गे तस्मिन्काले महावने ।
कृष्णरामौ मुदायुक्तौ गोपालैश्चेरतुः सह ॥ ४४ ॥
उस समय उन्मत्त मयूर और चातकगणसे सुशोभित महावनमें कृष्ण और राम प्रसन्नतापूर्वक गोपकुमारोंके साथ विचरने लगे ॥ ४४ ॥

क्वचिद्‍गोभिः समं रम्यं गेयतानरतावुभौ ।
चेरतुः क्वचिदत्यर्थं शीतवृक्षतलाश्रितौ ॥ ४५ ॥
वे दोनों कभी गौओंके साथ मनोहर गान और तान छेड़ते तथा कभी अत्यन्त शीतल वृक्षतलका आश्रय लेते हुए विचरते रहते थे ॥ ४५ ॥

क्वचित्कदम्बस्रक्चित्रौ मयूरस्रग्विराजितौ ।
विलिप्तौ क्वचिदासातां विविधैर्गिरिधातुभिः ॥ ४६ ॥
वे कभी तो कदम्बपुष्पोंके हारसे विचित्र वेष बना लेते, कभी मयूरपिच्छकी मालासे सुशोभित होते और कभी नाना प्रकारकी पर्वतीय धातुओंसे अपने शरीरको लिप्त कर लेते ॥ ४६ ॥

पर्णशय्यासु संसुप्तौ क्वचिन्निद्रान्तरैषिणौ ।
क्वचिद्‍गर्जति जीमूते हाहाकाररवाकुलौ ॥ ४७ ॥
कभी कुछ झपकी लेनेकी इच्छासे पत्तोंकी शय्यापर लेट जाते और कभी मेघ गर्जनेपर 'हा-हा' करके कोलाहल मचाने लगते ॥ ४७ ॥

गायतामन्यगोपानां प्रशंसापरमौ क्वचित् ।
मयूरकेकानुगतौ गोपवेणुप्रवादकौ ॥ ४८ ॥
कभी दूसरे गोपोंके गानेपर आप दोनों उसकी प्रशंसा करते और कभी ग्वालोंकी-सी बाँसुरी बजाते हुए मयूरकी बोलीका अनुकरण करने लगते ॥ ४८ ॥

इति नानाविधैर्भावैरुत्तमप्रीतिसंयुतौ ।
क्रीडन्तौ तौ वने तस्मिञ्चेरतुस्तुष्टमानसौ ॥ ४९ ॥
इस प्रकार वे दोनों अत्यन्त प्रीतिके साथ नाना प्रकारके भावोंसे परस्पर खेलते हुए प्रसन्नचित्तसे उस वनमें विचरने लगे ॥ ४९ ॥

विकाले च समं गोभिर्गोपवृन्दसमन्वितौ ।
विहृत्याथ यथायोगं व्रजमेत्य महाबलौ ॥ ५० ॥
सायंकालके समय वे महाबली बालक वनमें यथायोग्य विहार करनेके अनन्तर गौ और ग्वाल-बालोंके साथ व्रजमें लौट आते थे ॥ ५० ॥

गोपैः समानैः सहितौ क्रीडन्तावमराविव ।
एवं तावूषतुस्तत्र रामकृष्णौ महाद्युती ॥ ५१ ॥
इस तरह अपने समवयस्क गोपगणके साथ देवताओंके समान क्रीडा करते हुए वे महातेजस्वी राम और कृष्ण वहाँ रहने लगे ॥ ५१ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः (६)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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