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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ सप्तमोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
एकदा तु विना रामं कृष्णो वृन्दावनं ययौ ।
विचचार वृतो गोपैर्वन्यपुष्पस्रगुज्ज्वलः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-एक दिन रामको बिना साथ लिये कृष्ण अकेले ही वृन्दावनको गये और वहाँ वन्य पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित हो गोपगणसे घिरे हुए विचरने लगे ॥ १ ॥

स जगामाथ कालिन्दीं लोल कल्लोलशालिनीम् ।
तीरसंलग्नफेनौघैर्हसन्तीमिव सर्वतः ॥ २ ॥
घूमते-घूमते वे चंचल तरंगोंसे शोभित यमुनाके तटपर जा पहुँचे जो किनारों पर फेनके इकट्ठे हो जानेसे मानो सब ओरसे हँस रही थी ॥ २ ॥

तस्याश्चतिमहाभीमं विषाग्निश्रितवारिणम् ।
ह्रदं कालीयनागस्य ददर्शातिविभीषणम् ॥ ३ ॥
यमुनाजीमें उन्होंने विषाग्निसे सन्तप्त जलवाला कालियनागका महाभयंकर कुण्ड देखा ॥ ३ ॥

विषाग्निना प्रसरता दग्धतीरमहीरुहम् ।
वाताहताम्बुविक्षेपस्पर्शदग्धविहङ्‍गमम् ॥ ४ ॥
उसकी विषाग्निके प्रसारसे किनारेके वृक्ष जल गये थे और वायुके थपेड़ोंसे उछलते हुए जलकोंका स्पर्श होनेसे पक्षिगण दग्ध हो जाते थे ॥ ४ ॥

तमतीव महा रौद्रं मृत्युवक्रमिवापरम् ।
विलोक्य चिन्तयामास भगवान्मधुसूदनः ॥ ५ ॥
मृत्युके अपर मुखके समान उस महाभयंकर कुण्डको देखकर भगवान् मधुसूदनने विचार किया- ॥ ५ ॥

अस्मिन्वसति दुष्टात्मा कालीयोऽसौ विषायुधः ।
यो मया निर्जितस्त्यक्त्वा दुष्टो नष्टः पयोनिधिम् ॥ ६ ॥
'इसमें दुष्टात्मा कालियनाग रहता है जिसका विष ही शस्त्र है और जो दुष्ट मुझ [अर्थात् मेरी विभूति गरुड]-से पराजित हो समुद्रको छोड़कर भाग आया है ॥ ६ ॥

तेनेयं दूषिता सर्वा यमुना सागरङ्‍गमा ।
न नरैगोधनैश्चापि तृषार्तैरुपभुज्यते ॥ ७ ॥
इसने इस समुद्रगामिनी सम्पूर्ण यमुनाको दूषित कर दिया है, अब इसका जल प्यासे मनुष्यों और गौओंके भी काममें नहीं आता है ॥ ७ ॥

तदस्य नागराजस्य कर्तव्यो निग्रहो मया ।
निस्त्रासास्तु सुखं येन चरेयुर्व्रजवासिनः ॥ ८ ॥
अतः मुझे इस नागराजका दमन करना चाहिये, जिससे व्रजवासी लोग निर्भय होकर सुखपूर्वक रह सकें ॥ ८ ॥

एतदर्थं तु लोकेऽस्मिन्नवतारः कृतो मया ।
यदेषामुत्पथस्थानां कार्या शान्तिर्दुरात्मनाम् ॥ ९ ॥
'इन कुमार्गगामी दुरात्माओंको शान्त करना चाहिये, इसलिये ही तो मैंने इस लोकमें अवतार लिया है ॥ ९ ॥

तदेतं नातिदूरस्थं कदम्बमुरुशाखिनम् ।
अदिरुद्य पतिष्यामि ह्रदेऽस्मिन्ननिलाशिनः ॥ १० ॥
अतः अब मैं इस ऊँची-ऊँची शाखाओंवाले पासहीके कदम्बवृक्षपर चढ़कर वायुभक्षी नागराजके कुण्डमें कूदता हूँ ॥ १० ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्थं विचिन्त्य बद्ध्वा च गाढं परिकरं ततः ।
निपपात ह्रदे तत्र नागराजस्य वेगतः ॥ ११ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! ऐसा विचारकर भगवान् अपनी कमर कसकर वेगपूर्वक नागराजके कुण्डमें कूद पड़े ॥ ११ ॥

तेनातिपतता तत्र क्षोभितःस महाह्रदः ।
अत्यर्थं दूरजातांस्तु समसिञ्चन्महीरुहान् ॥ १२ ॥
उनके कूदनेसे उस महाहदने अत्यन्त क्षोभित होकर दूरस्थित वृक्षोंको भी भिगो दिया ॥ १२ ॥

ते हि दुष्टविषज्वालातप्ताम्बुपवनोक्षिताः ।
जज्वलुः पादापाःसद्यो ज्वालाव्याप्तदिगन्तराः ॥ १३ ॥
उस सर्पके विषम विषको ज्वालासे तपे हुए जलसे भीगनेके कारण वे वृक्ष तुरन्त ही जल उठे और उनको ज्वालाओंसे सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो गयीं ॥ १३ ॥

आस्फोटयामास तदा कृष्णो नागह्रदे भुजम् ।
तच्छब्दश्रवणाच्चाशु नागराजोऽभ्युपागमत् ॥ १४ ॥
तब कृष्णचन्द्रने उस नागकुण्डमें अपनी भुजाओंको ठोंका; उनका शब्द सुनते ही वह नागराज तुरंत उनके सम्मुख आ गया ॥ १४ ॥

आताम्रनयनः कोपाद्विषज्वालाकुलैर्मुखैः ।
वृतो महाविषैश्चान्यैरुरगैरनिलाशनैः ॥ १५ ॥
उसके नेत्र क्रोधसे कुछ ताम्रवर्ण हो रहे थे, मुखोंसे अग्निकी लपटें निकल रही थी और वह महाविषैले अन्य वायुभक्षी साँसे घिरा हुआ था ॥ १५ ॥

नागपत्‍न्यश्च शतशो हारिहारोपशोभिताः ।
प्रकम्पिततनुक्षेपचलत्कुण्डलकान्तयः ॥ १६ ॥
उसके साथमें मनोहर हारोंसे भूषिता और शरीर-कम्पनसे हिलते हुए कुण्डलोंकी कान्तिसे सुशोभिता सैकड़ों नागपत्नियाँ थीं ॥ १६ ॥

ततः प्रवेष्टितःसर्पैः स कृष्णे भोगबन्धनैः ।
ददंशुस्तेऽपि तं कृष्णं विषज्वालाकुलैर्मुखैः ॥ १७ ॥
तब सॉंने कुण्डलाकार होकर कृष्णचन्द्रको अपने शरीरसे बाँध लिया और अपने विषाग्नि-सन्तप्त मुखोंसे काटने लगे ॥ १७ ॥

तं तत्र पतितं दृष्ट्‍वा सर्पभोगैर्निपीडितम् ।
गोपा व्रजमुपागम्य चुक्रुशुः शोकलालसाः ॥ १८ ॥
तदनन्तर गोपगण कृष्णचन्द्रको नागकुण्डमें गिरा हुआ और सर्पोके फोंसे पीडित होता देख व्रजमें चले आये और शोकसे व्याकुल होकर रोने लगे ॥ १८ ॥

गोपा ऊचुः
एष मोहं गतः कृष्णो मग्नौ वै कालियह्रदे ।
भक्ष्यते नागराजेन तमागच्छत पश्यत ॥ १९ ॥
गोपगण बोले-आओ, आओ, देखो ! यह कृष्ण कालीदहमें डूबकर मूछित हो गया है, देखो इसे नागराज खाये जाता है ॥ १९ ॥

तच्छ्रुत्वा तत्र ते गोपा वज्रपातोपमं वचः ।
गोप्यश्च त्वरीता जग्मुर्यशोदाप्रमुखा ह्रदम् ॥ २० ॥
वज्रपातके समान उनके इन अमंगल वाक्योंको सुनकर गोपगण और यशोदा आदि गोपियाँ तुरंत ही कालीदहपर दौड़ आयीं ॥ २० ॥

हाहा क्वासाविति जनो गोपीनामतिविह्वलः ।
यशोदया समं भ्रान्तो द्रुतप्रस्खलितं ययौ ॥ २१ ॥
'हाय ! हाय ! वे कृष्ण कहाँ गये ?' इस प्रकार अत्यन्त व्याकुलतापूर्वक रोती हुई गोपियाँ यशोदाके साथ शीघ्रतासे गिरती-पड़ती चलीं ॥ २१ ॥

नन्दगोपश्च गोपाश्च रामश्चाद्‍भुतविक्रमः ।
त्वरितं यमुनां जग्मुः कृष्णदर्शनलालासाः ॥ २२ ॥
नन्दजी तथा अन्यान्य गोपगण और अद्‌भुतविक्रमशाली बलरामजी भी कृष्णदर्शनकी लालसासे शीघ्रतापूर्वक यमुना-तटपर आये ॥ २२ ॥

ददृशुश्चापि ते तत्र सर्पराजवशंगतम् ।
निष्प्रयत्‍नीकृतं कृष्णं सर्पभोगविवेष्टितम् ॥ २३ ॥
वहाँ आकर उन्होंने देखा कि कृष्णचन्द्र सर्पराजके चंगुल में फंसे हुए हैं और उसने उन्हें अपने शरीरसे लपेटकर निरुपाय कर दिया है ॥ २३ ॥

नन्दगोपोऽपि निश्चेष्टो न्यस्य पुत्रमुखे दृशम् ।
यशोदा च महाभागा बभूव मुनिसत्तम ॥ २४ ॥
हे मुनिसत्तम ! महाभागा यशोदा और नन्दगोप भी पुत्रके मुखपर टकटकी लगाकर चेष्टाशून्य हो गये ॥ २४ ॥

गोप्यस्त्वन्या रुदन्त्यश्च ददृशुः शोककातराः ।
प्रोचुश्च केशवं प्रीत्या भयकातर्यगद्‍गदम् ॥ २५ ॥
अन्य गोपियोंने भी जब कृष्णचन्द्रको इस दशामें देखा तो वे शोकाकुल होकर रोने लगीं और भय तथा व्याकुलताके कारण गद्‌गदवाणीसे उनसे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं ॥ २५ ॥

गोप्य ऊचुः
सर्वा यशोदया सार्धं विशामोत्र महाह्रदम् ।
सर्पराजस्य नो गन्तुमस्माभिर्युज्यते व्रजम् ॥ २६ ॥
गोपियाँ बोलीं-अब हम सब भी यशोदाके साथ इस सर्पराजके महाकुण्डमें ही डूबी जाती हैं, अब हमें व्रजमें जाना उचित नहीं है ॥ २६ ॥

दिवसः को विना सूर्यं विना चन्द्रेण का निशा ।
विना वृषेण का गावो विना कृष्णेन को व्रजः ॥ २७ ॥
सूर्यके बिना दिन कैसा ? चन्द्रमाके बिना रात्रि कैसी ? साँड़के बिना गौएँ क्या ? ऐसे ही कृष्णके बिना वजमें भी क्या रखा है ? ॥ २७ ॥

विनाकृता न यास्यामः कृष्णेनानेन गोकुलम् ।
अरम्यं नातिसेव्यं च वारिहीनं यथा सरः ॥ २८ ॥
कृष्णके बिना साथ लिये अब हम गोकुल नहीं जायँगी; क्योंकि इनके बिना वह जलहीन सरोवरके समान अत्यन्त अभव्य और असेव्य है ॥ २८ ॥

यत्र नेन्दीवरश्यामकायकान्तिरयं हरिः ।
तेनापि मतुर्वासेन रतिरस्तीति विस्मयः ॥ २९ ॥
जहाँ नीलकमलदलकी-सी आभावाले ये श्यामसुन्दर हरि नहीं हैं उस मातृ मन्दिरसे भी प्रीति होना अत्यन्त आश्चर्य ही है ॥ २९ ॥

उत्फुल्लपङ्‍कजदलस्पष्टकान्तिविलोचनम् ।
अपश्यन्तो हरिं दीनाः कथं गोष्ठे भविष्यथ ॥ ३० ॥
अरी ! खिले हुए कमलदलके सदृश कान्तियुक्त नेत्रोंवाले श्रीहरिको देखे बिना अत्यन्त दीन हुई तुम किस प्रकार व्रजमें रह सकोगी ? ॥ ३० ॥

अत्यन्तमधुरालापहृताशेषमनोरथम् ।
न विना पुण्डरीकाक्षं यास्यामो नन्दगोकुलम् ॥ ३१ ॥
जिन्होंने अपनी अत्यन्त मनोहर बोलीसे हमारे सम्पूर्ण मनोरोंको अपने वशीभूत कर लिया है, उन कमलनयन कृष्णचन्द्रके बिना हम नन्दजीके गोकुलको नहीं जायेंगी ॥ ३१ ॥

भोगेनाविष्टितस्यापि सर्पराजस्य पश्यत ।
स्मितशोभिमुखं गोप्यः कृष्णस्यास्मद्विलोकने ॥ ३२ ॥
अरी गोपियो ! देखो, सर्पराजके फणसे आवृत होकर भी श्रीकृष्णका मुख हमें देखकर मधुर मुसकानसे सुशोभित हो रहा है ॥ ३२ ॥

श्रीपराशर उवाच
इति गोपीवचः श्रुत्वा रौहिणेयो महाबलः ।
गोपांश्च त्रासविधुरान्वि लोक्य स्तिमितेक्षणान् ॥ ३३ ॥
नन्दं च दीनमत्यर्थं न्यस्तदृष्टिं सुतानने ।
मूर्चाकुलां यशोदां च कृष्णमाहात्मसंज्ञया ॥ ३४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-गोपियोंके ऐसे वचन सुनकर तथा त्रासविह्वल चकितनेत्र गोपॉको, पुत्रके मुखपर दृष्टि लगाये अत्यन्त दीन नन्दजीको और मूर्छाकुल यशोदाको देखकर महाबली रोहिणीनन्दन बलरामजीने अपने संकेतमें कृष्णजीसे कहा- ॥ ३३-३४ ॥

किमिदं देवदेवेश भावोऽयं मानुषस्त्वया ।
व्यज्यतेऽत्यन्तमात्मानं किमनन्तं न वोत्सि यत् ॥ ३५ ॥
"हे देवदेवेश्वर ! क्या आप अपनेको अनन्त नहीं जानते ? फिर किसलिये यह अत्यन्त मानव भाव व्यक्त कर रहे हैं ॥ ३५ ॥

त्वमेव जगतो नाभिरराणामिव संश्रयः ।
कर्तापहर्ता पाता च त्रौलोक्यं त्वं त्रयीमयः ॥ ३६ ॥
पहियोंकी नाभि जिस प्रकार अरोंका आश्रय होती है उसी प्रकार आप ही जगत्के आश्रय, कर्ता, हता और रक्षक हैं तथा आप ही त्रैलोक्यस्वरूप और वेदत्रयीमय हैं ॥ ३६ ॥

सेन्द्रै रुद्राग्निवसुभिरादित्यैर् मरुदश्विभिः ।
चिन्त्यसे त्वमचिन्त्यात्मन् समस्तैश्चैव योगिभिः ॥ ३७ ॥
हे अचिन्त्यात्मन् ! इन्द्र, रूद्र, अग्नि, वसु, आदित्य, मरुद्‌गण और अश्विनीकुमार तथा समस्त योगिजन आपहीका चिन्तन करते हैं । ॥ ३७ ॥

जगत्यर्थं जगन्नाथ भारावतरणेच्छया ।
अवतीर्णोऽसि मर्त्येषु तवांशश्चाहमग्रजः ॥ ३८ ॥
हे जगन्नाथ ! संसारके हितके लिये पृथिवीका भार उतारनेकी इच्छासे ही आपने मर्त्यलोकमें अवतार लिया है । आपका अग्रज मैं भी आपहीका अंश हूँ ॥ ३८ ॥

मनुष्यलीलां भगवन् भजता भवता सुराः ।
विडम्बयन्तस्त्वल्लीलां सर्व एव सहासते ॥ ३९ ॥
हे भगवन् ! आपके मनुष्य-लीला करनेपर ये गोपवेषधारी समस्त देवगण भी आपकी लीलाओंका अनुकरण करते हुए आपहीके साथ रहते हैं ॥ ३९ ॥

अवतार्य भवान्पूर्वं गोकुले तु सुराङ्‍गनाः ।
क्रीडार्थमात्मनः पश्चादवर्तीर्णोऽसि शाश्वत ॥ ४० ॥
हे शाश्वत ! पहले अपने विहारार्थ देवांगनाओंको गोपीरूपसे गोकुलमें अवतीर्णकर पीछे आपने अवतार लिया है ॥ ४० ॥

अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः ।
गोप्यश्च सीदतः कस्मादेतान्बन्धूनुपेक्षसे ॥ ४१ ॥
हे कृष्ण ! यहाँ अवतीर्ण होनेपर हम दोनोंके तो ये गोप और गोपियाँ ही बान्धव हैं । फिर अपने इन दुःखी बान्धवोंकी आप क्यों उपेक्षा करते हैं ॥ ४१ ॥

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचापलम् ।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुष्टात्मा दशनायुधः ॥ ४२ ॥
हे कृष्ण ! यह मनुष्यभाव और बालचापल्य तो आप बहुत दिखा चुके, अब तो शीघ्र ही इस दुष्टात्माका जिसके शस्त्र दाँत ही हैं, दमन कीजिये " ॥ ४२ ॥

श्रीपराशर उवाच
इति संस्मारितः कृष्णः स्मितभिन्नोष्ठसम्पुटः ।
आस्फोट्य मोचयामास स्वदेहं भोगिबन्धनात् ॥ ४३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर, मधुर मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए श्रीकृष्णचन्द्रने उछलकर अपने शरीरको सर्पके बन्धनसे छुड़ा लिया ॥ ४३ ॥

आनम्य चापि हस्ताभ्यामुभाभ्यां मध्यमं शिरः ।
आरुह्याभुग्नशिरसः प्रणनर्तोरुविक्रमः ॥ ४४ ॥
और फिर अपने दोनों हाथोंसे उसका बीचका फण झुकाकर उस नतमस्तक सर्पक ऊपर चढ़कर बड़े वेगसे नाचने लगे ॥ ४४ ॥

प्राणाः फणेऽभवंश्चास्य कृष्णस्याङ्‌‍घ्रिनिकुट्टनैः ।
यत्रोन्नतिं च कुरुते ननामास्य ततः शिरः ॥ ४५ ॥
कृष्णचन्द्रके चरणोंकी धमकसे उसके प्राण मुखमें आ गये, वह अपने जिस मस्तकको उठाता उसीपर कूदकर भगवान् उसे झुका देते ॥ ४५ ॥

मूर्चामुपाययौ भ्रान्त्या नागः कृष्णस्य रेचकैः ।
दण्डपातनिपातेन ववाम रुधिरं बहु ॥ ४६ ॥
श्रीकृष्णचन्द्रजीको भ्रान्ति (भ्रम), रेचक तथा दण्डपात नामकी [नृत्यसम्बन्धिनी] गतियोंके ताडनसे वह महासर्प मूर्छित हो गया और उसने बहुत-सा रुधिर वमन किया ॥ ४६ ॥

तं विभिग्रशिरोग्रीवमास्येभ्यः स्रुतशोणितम् ।
विलोक्य करुणं जग्मुस्तत्पत्‍न्यो मधुसूदनम् ॥ ४७ ॥
इस प्रकार उसके सिर और ग्रीवाओंको झुके हुए तथा मुखोंसे रूधिर बहता देख उसकी पत्नियाँ करुणासे भरकर श्रीकृष्णचन्द्र के पास आयीं ॥ ४७ ॥

नागपत्‍न्य ऊचुः
ज्ञातोऽसि देवदेवेश सर्वज्ञस्त्वमनुत्तमः ।
परं ज्योतिरचिन्त्यं यत्तदंशः परमेश्वरः ॥ ४८ ॥
नागपत्नियाँ बोलीं- हे देवदेवेश्वर ! हमने आपको पहचान लिया; आप सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ हैं, जो अचिन्त्य और परम ज्योति है आप उसीके अंश परमेश्वर हैं ॥ ४८ ॥

न समर्थाः सुराःस्तोतुं यमनन्यभवं विभुम् ।
स्वरूपवर्णनं तस्य कथं योषित्करिष्यति ॥ ४९ ॥
जिन स्वयम्भू और व्यापक प्रभुकी स्तुति करनेमें देवगण भी समर्थ नहीं हैं उन्हीं आपके स्वरूपका हम स्त्रियाँ किस प्रकार वर्णन कर सकती हैं ? ॥ ४९ ॥

यस्याखिलमहीर्व्योमजलाग्निपवनात्मकम् ।
ब्रह्माण्डमल्पकाल्पांशः स्तोष्यामस्तं कथं वयम् ॥ ५० ॥
पृथिवी, आकाश, जल, अग्नि और वायुस्वरूप यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका छोटे-से-छोटा अंश है, उसकी स्तुति हम किस प्रकार कर सकेंगी ॥ ५० ॥

यतन्तो न विदुर्नित्यं यत्स्वरूपं हि योगिनः ।
परमार्थमणोरल्पं स्थूलात्स्थूलं नताः स्म तम् ॥ ५१ ॥
योगिजन जिनके नित्यस्वरूपको यल करनेपर भी नहीं जान पाते तथा जो परमार्थरूप अणुसे भी अणु और स्थूलसे भी स्थूल है उसे हम नमस्कार करती हैं ॥ ५१ ॥

न यस्य जन्मने धाता यस्य चान्ताय नान्तकः ।
स्थितिकर्ता न चान्योऽस्ति यस्य तस्मै नमःसदा ॥ ५२ ॥
जिनके जन्ममें विधाता और अन्तमें काल हेतु नहीं हैं तथा जिनका स्थितिकर्ता भी कोई अन्य नहीं है उन्हें सर्वदा नमस्कार करती हैं ॥ ५२ ॥

कोपः स्वल्पोऽपि ते नास्ति स्थितिपालनमेव ते ।
कारणं कालियस्यास्य दमने श्रुयतां वचः ॥ ५३ ॥
इस कालियनागके दमनमें आपको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं है, केवल लोकरक्षा ही इसका हेतु है; अत: हमारा निवेदन सुनिये ॥ ५३ ॥

स्त्रियोनुकम्प्याःसाधूनां मूढा दीनाश्च जन्तवः ।
यतस्ततोऽस्य दीनस्य क्षम्यतां क्षमतां वर ॥ ५४ ॥
हे क्षमाशीलोंमें श्रेष्ठ साधु पुरुषोंको स्त्रियों तथा मुढ और दीन जन्तुओंपर सदा ही कृपा करनी चाहिये; अतः आप इस दीनका अपराध क्षमा कीजिये ॥ ५४ ॥

समस्तजगदाधारो भवानल्पबलः फणी ।
त्वत्पादपीडितो जह्यान्मुहूर्तार्धेन जीवितम् ॥ ५५ ॥
प्रभो ! आप सम्पूर्ण संसारके अधिष्ठान हैं और यह सर्प तो [आपकी अपेक्षा] अत्यन्त बलहीन है । आपके चरणोंसे पीडित होकर तो यह आधे मुहूर्तमें ही अपने प्राण छोड़ देगा ॥ ५५ ॥

क्व पन्नगोऽल्पवीर्योऽयं क्व भवान् भुवनाश्रयः ।
प्रीतिद्वेषौ समोत्कृष्टगोचरौ भवतोऽव्यय ॥ ५६ ॥
हे अव्यय ! प्रीति समानसे और द्वेष उत्कृष्टसे देखे जाते हैं । फिर कहाँ तो यह अल्पवीर्य सर्प और कहाँ अखिलभुवनाश्रय आप ? [इसके साथ आपका द्वेष कैसा ?] ॥ ५६ ॥

ततः कुरु जगत्स्वामिन्प्रसादमवसीदतः ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम् ॥ ५७ ॥
अतः हे जगत्स्वामिन् ! इस दीनपर दया कीजिये । हे प्रभो ! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ने ही चाहता है । कृपया हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५७ ॥

भुवनेश जगन्नाथ महापुरुष पूर्वज ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षां प्रयच्छ नः ॥ ५८ ॥
हे भुवनेश्वर ! हे जगन्नाथ ! हे महापुरुष ! हे पूर्वज ! यह नाग अब अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; कृपया आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५८ ॥

वेदान्तवेद्य देवेश दुष्टदैत्यनिबर्हण ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम् ॥ ५९ ॥
हे वेदान्तवेद्यदेवेश्वर ! हे दुष्ट-दैत्य-दलन ! ! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५९ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्ते ताभिराश्वस्य क्लान्तदेहोऽपि पन्नगः ।
प्रसीद देवदेवेति प्राह वाक्यं शनैः शनैः ॥ ६० ॥
श्रीपराशरजी बोले-नागपलियोंके ऐसा कहनेपर थका-माँदा होनेपर भी नागराज कुछ ढांढस बाँधकर धीरे-धीरे कहने लगा "हे देवदेव ! प्रसन्न होइये" ॥ ६० ॥

कालिय उवाच
तवाष्टगुणमैश्वर्यं नाथ स्वाभाविकं परम् ।
निरस्तातिशयं यस्य तस्य स्तोष्यामि किन्‍न्वहम् ॥ ६१ ॥
कालियनाग बोला-हे नाथ ! आपका स्वाभाविक अष्टगुण विशिष्ट परम ऐश्वर्य निरतिशय है [अर्थात् आपसे बढ़कर किसीका भी ऐश्वर्य नहीं है], अत: मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६१ ॥

त्वं परस्त्वं परस्याद्यः परं त्वत्तः परात्मक ।
परस्मात्परमो यस्त्वं तस्य स्तोष्यामि किन्न्वहम् ॥ ६२ ॥
आप पर हैं, आप पर (मूलप्रकृति)-के भी आदिकारण हैं, हे परात्मक ! परकी प्रवृत्ति भी आपहीसे हुई है,अत: आप परसे भी पर हैं फिर मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६२ ॥

यस्माद्‍बह्माच रुद्रश्च चन्द्रेद्रमरुदश्विनः ।
वसवश्च सहादित्यैस्तस्य स्तोष्यामि किन्‍न्वहम् ॥ ६३ ॥
जिनसे ब्रह्मा, रुद्र, चन्द्र, इन्द्र, मरुद्‌गण, अश्विनीकुमार, वसुगण और आदित्य आदि सभी उत्पन्न हुए हैं उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६३ ॥

एकावयवसूक्ष्मांशो यस्यैतदखिलं जगत् ।
कल्पनावयवस्यांशस्तस्य स्तोष्यामि किन्‍न्वहम् ॥ ६४ ॥
यह सम्पूर्ण जगत् जिनके काल्पनिक अवयवका एक सूक्ष्म अवयवांशमात्र है, उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६४ ॥

सदसद्‍रूपिणो यस्य ब्रह्माद्यास्त्रिदशेश्वराः ।
परमार्थं न जानन्ति तस्य स्तोष्यामि किन्‍न्वहम् ॥ ६५ ॥
जिन सदसत् (कार्य-कारण) स्वरूपके वास्तविक रूपको ब्रह्मा आदि देवेश्वरगण भी नहीं जानते उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? ॥ ६५ ॥

ब्रह्माद्यैरर्चितो यस्तु गन्धपुष्पानुलेपनैः ।
नन्दनादिसमुद्‍भूतैः सोर्च्यते वा कथं मया ॥ ६६ ॥
जिनकी पूजा ब्रह्मा आदि देवगण नन्दनवनके पुष्प, गन्ध और अनुलेपन आदिसे करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ॥ ६६ ॥

यस्यावताररूपाणि देवराजःसदार्चति ।
न वेत्ति परमं रूपं सोऽर्च्यते वा कथं मया ॥ ६७ ॥
देवराज इन्द्र जिनके अवताररूपोंकी सर्वदा पूजा करते हैं तथापि यथार्थ रूपको नहीं जान पाते, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ? ॥ ६७ ॥

विषयेभ्यः समावृत्त्य सर्वाक्षाणि च योगिनः ।
यमर्चयन्ति ध्यानेन सोऽर्च्यते वा कथं मया ॥ ६८ ॥
योगिगण अपनी समस्त इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींचकर जिनका ध्यानद्वारा पूजन करते हैं, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ॥ ६८ ॥

हृदि संकल्प्य यद्‍रूपं ध्यानेनार्चन्ति योगिनः ।
भावपुष्पादिना नाथः सोऽर्च्यते वा कथं मया ॥ ६९ ॥
जिन प्रभुके स्वरूपकी चित्तमें भावना करके योगिजन भावमय पुष्प आदिसे ध्यानद्वारा उपासना करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ? ॥ ६९ ॥

सोऽहं ते देवदेवेश नार्चनादौ स्तुतौ न च ।
सामर्थ्यवान् कृपामात्रमनोवृत्तिः प्रसीद मे ॥ ७० ॥
हे देवेश्वर ! आपकी पूजा अथवा स्तुति करनेमें मैं सर्वथा असमर्थ हूँ, मेरी चित्तवृत्ति तो केवल आपकी कृपाकी ओर ही लगी हुई है, अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ७० ॥

सर्पजातिरियं क्रूरा यस्यां जातोऽस्मि केशव ।
तत्स्वभावोऽयमत्रास्ति नापराधो ममाच्युत ॥ ७१ ॥
हे केशव ! मेरा जिसमें जन्म हुआ है वह सर्पजाति अत्यन्त क्रूर होती है, यह मेरा जातीय स्वभाव है । है अच्युत ! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है ॥ ७१ ॥

सृज्यते भवता सर्वं तथा संह्रीयते जगत् ।
जातिरूपस्वभावाश्च सृज्यन्ते सृजता त्वया ॥ ७२ ॥
इस सम्पूर्ण जगत्की रचना और संहार आप ही करते हैं । संसारकी रचनाके साथ उसके जाति, रूप और स्वभावोंको भी आप ही बनाते हैं ॥ ७२ ॥

यथाहं भवता सृष्टो जात्या रूपेण चेश्वर ।
स्वभावेन च संयुक्तस्तथेदं चेष्टितं मया ॥ ७३ ॥
हे ईश्वर ! आपने मुझे जाति, रूप और स्वभावसे युक्त करके जैसा बनाया है उसीके अनुसार मैंने यह चेष्टा भी की है ॥ ७३ ॥

यद्यन्यथा प्रवर्तेयं देवदेव ततो मयि ।
न्यायो दण्डनिपातो वै तवैववचनं यथा ॥ ७४ ॥
हे देवदेव ! यदि मेरा आचरण विपरीत हो तब तो अवश्य आपके कथनानुसार मुझे दण्ड देना उचित है ॥ ७४ ॥

तथाप्यज्ञे जगत्स्वामिन्दण्डं पातितवान्मयि ।
स श्लाघ्योऽयं परो दण्डस्त्वत्तो मे नान्यतो वरः ॥ ७५ ॥
तथापि हे जगत्स्वामिन् ! आपने मुझ अज्ञको जो दण्ड दिया है वह आपसे मिला हुआ दण्ड मेरे लिये कहीं अच्छा है, किन्तु दूसरेका वर भी अच्छा नहीं ॥ ७५ ॥

हतवीर्यो हतविषो दमितोऽहं त्वयाच्युत ।
जीवितं दीयतामेकमाज्ञापय करोमि किम् ॥ ७६ ॥
हे अच्युत ! आपने मेरे पुरुषार्थ और विषको नष्ट करके मेरा भली प्रकार मानमर्दन कर दिया है । अब केवल मुझे प्राणदान दीजिये और आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ ? ॥ ७६ ॥

श्रीभगवानुवाच
नात्र स्थेयं त्वया सर्प कदाचिद्‌यमुनाजले ।
सपुत्रपरिवारस्त्वं समुद्रसलिलं व्रज ॥ ७७ ॥
श्रीभगवान् बोले-हेसर्प ! अब तुझे इस यमुनाजलमें नहीं रहना चाहिये । तू शीघ्र ही अपने पुत्र और परिवारके सहित समुद्रके जलमें चला जा ॥ ७७ ॥

मत्पदानि च ते सर्प दृष्ट्‍वा मूर्धनि सागरे ।
गरुडः पन्नगरिपुस्त्वयि न प्रहरिष्यति ॥ ७८ ॥
तेरे मस्तकपर मेरे चरण-चिरनोंको देखकर समुद्र में रहते हुए भी सर्पोका शत्रु गरुड तुझपर प्रहार नहीं करेगा ॥ ७८ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा सर्पराजं तं मुमोच भगवान्हरिः ।
प्रणम्य सोऽपि कृष्णाय जगाम पयसां निधिम् ॥ ७९ ॥
पश्यतां सर्वभूतानां सभृत्यसुतबान्धवः ।
समस्तभार्यासहितः परित्यज्य स्वकं ह्रदम् ॥ ८० ॥
श्रीपराशरजी बोले-सर्पराज कालियसे ऐसा कह भगवान् हरिने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम करके समस्त प्राणियोंके देखते-देखते अपने सेवक, पुत्र, बन्धु और स्त्रियोंके सहित अपने उस कुण्डको छोड़कर समुद्रको चला गया ॥ ७९-८० ॥

गते सर्पे परिष्वज्य मृतं पुनरिवागतम् ।
गोपा मूर्धनि हार्देन सिषिचुर्नेत्रजैर्जलैः ॥ ८१ ॥
सर्पके चले जानेपर गोपगण, लौटे हुए मृत पुरुषके समान कृष्णचन्द्रको आलिंगनकर प्रीतिपूर्वक उनके मस्तकको नेत्रजलसे भिगोने लगे ॥ ८१ ॥

कृष्णामाक्लिष्टकर्माणमन्ये विस्मितचेतसः ।
तुष्टुवुर्मुदिता गोपा दृष्ट्‍वा शिवजलां नदीम् ॥ ८२ ॥
कुछ अन्य गोपगण यमुनाको स्वच्छ जलवाली देख प्रसन्न होकर लीलाविहारी कृष्णचन्द्रकी विस्मितचित्तसे स्तुति करने लगे ॥ ८२ ॥

गीयमानः स गोपीभिश्चारितैः साधुचेष्टितैः ।
संस्तूयमानो गोपैश्च कृष्णो व्रजमुपागमत् ॥ ८३ ॥
तदनन्तर अपने उत्तम चरित्रोंके कारण गोपियोंसे गीयमान और गोपोंसे प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र व्रजमें . चले आये ॥ ८३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः (७)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

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