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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
गाः पालयन्तौ च पुनः सहितौ बलकेशवौ ।
भ्रममाणौ वने तस्मिन् रम्यं तालवनं गतौ ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-एक दिन बलराम और कृष्ण साथ-साथ गौ चराते अति रमणीय तालवनमें आये ॥ १ ॥

तत्तु तालवनं दिव्यं धेनुको नाम दानवः ।
मृगमांसकृताहारः सदाध्यास्ते खराकृतिः ॥ २ ॥
उस दिव्य तालवनमें धेनुक नामक एक गधेके आकारवाला दैत्य मृगमांसका आहार करता हुआ सदा रहा करता था ॥ २ ॥

तत्तु तालवनं पक्वफलसम्पत्समन्वितम् ।
दृष्ट्‍वा स्पृहान्विता गोपा फलादानेऽब्रुवन्वचः ॥ ३ ॥
उस तालवनको पके फलोंकी सम्पत्तिसे सम्पन्न देखकर उन्हें तोड़नेकी इच्छासे गोपगण बोले ॥ ३ ॥

गोपा ऊचुः
हे राम हे कृष्ण सदा धेनुकेनैष रक्ष्यते ।
भूप्रदेशो यतस्तस्मात्पक्वानीमानि सन्ति वै ॥ ४ ॥
गोपोंने कहा- भैया राम और कृष्ण ! इस भूमिप्रदेशकी रक्षा सदा धेनुकासुर करता है, इसीलिये यहाँ ऐसे पके-पके फल लगे हुए हैं ॥ ४ ॥

फलानि पश्य तालानां गन्धामोदितदिंशि वै ।
वयमेतान्यभीप्सामः पात्यन्तां यदि रोचते ॥ ५ ॥
अपनी गन्धसे सम्पूर्ण दिशाओंको आमोदित करनेवाले ये ताल-फल तो देखो; हमें इन्हें खानेकी इच्छा है; यदि आपको अच्छा लगे तो [थोड़े-से] झाड़ दीजिये ॥ ५ ॥

श्रीपराशर उवाच
इति गोपकुमाराणां श्रुत्वा संकर्षणो वचः ।
एतत्कर्तव्यमित्युक्त्वा पातयामास तानि वै ।
कृष्णश्च पातयामास भुवितानि फलानि वै ॥ ६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-गोपकुमारोंके ये वचन सुनकर बलरामजीने 'ऐसा ही करना चाहिये' यह कहकर फल गिरा दिये और पीछे कुछ फल कृष्णचन्द्रने भी पृथिवीपर गिराये ॥ ६ ॥

फलानां पततां शब्दमाकर्ण्य सुदुरासदः ।
आजगाम स दुष्टात्मा कोपाद्दैतेयगर्दभः ॥ ७ ॥
पद्‍भ्यामुभाभ्यां स तदा पश्चिमाभ्यां बलं बली ।
जघानोरसि ताभ्यां च स च तेनाभ्यगृह्यत ॥ ८ ॥
गृहीत्वा भ्रामयामास सोऽम्बरे गतजीवितम् ।
तस्मिन्नेव स चिक्षेप वेगेन तृणराजनि ॥ ९ ॥
गिरते हुए फलोंका शब्द सुनकर वह दुर्द्धर्ष और दुरात्मा गर्दभासुर क्रोधपूर्वक दौड़ आया और उस महाबलवान् असुरने अपने पिछले दो पैरोंसे बलरामजीकी छातीमें लात मारी । बलरामजीने उसके उन पैरोंको पकड़ लिया और आकाशमें घुमाने लगे । जब वह निर्जीव हो गया तो उसे अत्यन्त वेगसे उस तालवृक्षपर ही दे मारा ॥ ७-९ ॥

ततः फलान्यनेकानि तालाग्रान्निपतन्खरः ।
पृथिव्यां पातयामास महावातो घनानिव ॥ १० ॥
उस गधेने गिरते-गिरते उस तालवृक्षसे बहुत से फल इस प्रकार गिरा दिये जैसे प्रचण्ड वायु बादलोंको गिरा दे ॥ १० ॥

अन्या नथ सजातीयानागतान्दैत्यगर्दभान् ।
कृष्णश्चिक्षेप तालाग्रे बलभद्रश्च लीलया ॥ ११ ॥
उसके सजातीय अन्य गर्दभासुरोंके आनेपर भी कृष्ण और रामने उन्हें अनायास ही तालवृक्षोंपर पटक दिया ॥ ११ ॥

क्षणेनालङ्‍कृता पृथ्वी पक्वैस्तलफलैस्तदा ।
दैत्य गर्दभदेहैश्च मैत्रेय शुशुभेऽधिकम् ॥ १२ ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार एक क्षणमें ही पके हुए तालफलों और गर्दभासुरोंके देहोंसे विभूषिता होकर पृथिवी अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥ १२ ॥

ततो गावो निराबाधास्तस्मिंस्तलवने द्विज ।
नवशष्पं सुखं चेरुर्यन्न भुक्तमभूत्पुरा ॥ १३ ॥
हे द्विज ! तबसे उस तालवनमें गौएँ निर्विघ्न होकर सुखपूर्वक नवीन तृण चरने लगी जो उन्हें पहले कभी चरनेको नसीब नहीं हुआ था ॥ १३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशेऽष्टमोऽध्यायः (८)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

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