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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ नवमोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
तस्मिन् रासभदैतेये सानुगे विनिपातिते ।
सौम्यं तद्‍गोपगोपीनां रम्यं तालवनं बभौ ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-अपने अनुचरोंसहित उस गर्दभासुरके मारे जानेपर वह सुरम्य तालवन गोप और गोपियोंके लिये सुखदायक हो गया ॥ १ ॥

ततस्तौ जातहर्षौ तु वसुदेवसुतावुभौ ।
हत्वा धेनुकदैतेयं भाण्डीरवटमागतौ ॥ २ ॥
तदनन्तर धेनुकासुरको मारकर वे दोनों वसुदेवपुत्र प्रसन्नमनसे भाण्डीर नामक वटवृक्षके तले आये ॥ २ ॥

क्ष्वेलमानौ प्रगायन्तौ विचिन्वन्तौ च पादपान् ।
चारयन्तौ च गा दूरे व्याहरन्तौ च नामभिः ॥ ३ ॥
निर्योगपाशस्कन्धौ तौ वनमालाविभूषितौ ।
शुशुभाते महात्मानौ बलाशृङ्‍गाविवर्षभौ ॥ ४ ॥
कन्धेपर गौ बाँधनेकी रस्सी डाले और वनमालासे विभूषित हुए वे दोनों महात्मा बालक सिंहनाद करते, गाते, वृक्षोंपर चढ़ते, दूरतक गौएँ चराते तथा उनका नाम ले-लेकर पुकारते हुए नये सींगोंवाले बछड़ोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३-४ ॥

सुवर्णाञ्जनचूर्णाभ्यां तौ तदा रूषिताम्बरौ ।
महेन्द्रायुधसंयुक्तौ श्वेतकृष्णाविवाम्बुदौ ॥ ५ ॥
उन दोनोंके वस्त्र [क्रमशः] सुनहरी और श्याम रंगसे रँगे हुए थे अतः वे इन्द्रधनुषयुक्त श्वेत और श्याम मेघके समान जान पड़ते थे ॥ ५ ॥

चेरतुर्लौकसिद्धाभिः क्रीडाभिरितरेतरम् ।
समस्तलोकनाथानां नाथभूतौ भुवं गतौ ॥ ६ ॥
वे समस्त लोकपालोंके प्रभु पृथिवीपर अवतीर्ण होकर नाना प्रकारकी लौकिक लीलाओंसे परस्पर खेल रहे थे ॥ ६ ॥

मनुष्यधर्माभिरतौ मानयन्तौ मनुष्यताम् ।
तज्जातिगुणयुक्ताभिः क्रिडाभिश्चेरतुर्वनम् ॥ ७ ॥
मनुष्यधर्ममें तत्पर रहकर मनुष्यताका सम्मान करते हुए वे मनुष्यजातिके गुणोंकी क्रीडाएँ करते हुए वनमें विचर रहे थे ॥ ७ ॥

ततस्त्वान्दोलिकाभिश्च नियुद्धैश्च महाबलौ ।
व्यायामं चक्रतुस्तत्र क्षेपणीयैस्तथाश्मभिः ॥ ८ ॥
वे दोनों महाबली बालक कभी झूलामें झलकर, कभी परस्पर मल्लयुद्धकर और कभी पत्थर फेंककर नाना प्रकारसे व्यायाम कर रहे थे ॥ ८ ॥

तल्लिप्सुरसुरस्तत्र ह्युभयो रममाणयोः ।
आजगाम प्रलम्बाख्यो गोपवेषतिरोहितः ॥ ९ ॥
इसी समय उन दोनों खेलते हुए बालकोंको उठा ले जानेकी इच्छासे प्रलम्ब नामक दैत्य गोपवेषमें अपनेको छिपाकर वहाँ आया ॥ ९ ॥

सोऽवगाहत निःशङ्‍कस्तेषां मध्यममानुषः ।
मानुषं वपुरास्थाय प्रलम्बो दानवोत्तमः ॥ १० ॥
दानवश्रेष्ठ प्रलम्ब मनुष्य न होनेपर भी मनुष्यरूप धारणकर निश्शंकभावसे उन बालकोंके बीच घुस गया ॥ १० ॥

तयोश्छिद्रान्तरप्रेप्सुरविषह्यममन्यत ।
कृष्णं ततो रौहिणेयं हन्तुं चक्रे मनोरथम् ॥ ११ ॥
उन दोनोंकी असावधानताका अवसर देखनेवाले उस दैत्यने कृष्णको तो सर्वथा अजेय समझा; अतः उसने बलरामजीको मारनेका निश्चय किया ॥ ११ ॥

हरिणाक्रीडनं नाम बालक्रीडनकं ततः ।
प्रकुर्वन्तो हि ते सर्वे द्वौ द्वौ युगपदुत्थितौ ॥ १२ ॥
तदनन्तर वे समस्त ग्वालबाल हरिणाक्रीडन नामक खेल खेलते हुए आपसमें एक साथ दो-दो बालक उठे ॥ १२ ॥

श्रीदाम्ना सह गोविन्दः प्रलम्बेन तथा बलः ।
गोपालौरपरैश्चान्ये गोपालाः पुप्लुवुस्ततः ॥ १३ ॥
तब श्रीदामाके साथ कृष्णचन्द्र, प्रलम्बके साथ बलराम और इसी प्रकार अन्यान्य गोपोंके साथ और-और ग्वालबाल [होड़ बदकर] उछलते हुए चलने लगे ॥ १३ ॥

श्रीदामानं ततः कृष्णः प्रलम्बं रोहिणीसुतः ।
जितवान्कृष्णपक्षीयैर्गोपैरन्ये पराजिताः ॥ १४ ॥
अन्तमें, कृष्णचन्द्रने श्रीदामाको, बलरामजीने प्रलम्बको तथा अन्यान्य कृष्णपक्षीय गोपोंने अपने प्रतिपक्षियोंको हरा दिया ॥ १४ ॥

ते वाहयन्तस्त्वन्योन्यं भाण्डीरं वटमेत्य वै ।
पुनर्निववृतुःसर्वे ये ये तत्र परिजिताः ॥ १५ ॥
उस खेलमें जो जो बालक हारे थे, वे सब जीतनेवालोंको अपने-अपने कन्धोंपर चढ़ाकर भाण्डीरवटतक ले जाकर वहाँसे फिर लौट आये ॥ १५ ॥

संकर्षणं तु स्कन्धेन शीघ्रमुत्क्षिप्य दानवः ।
नभःस्थलं जगामाशु सचन्द्र इव वारिदः ॥ १६ ॥
किन्तु प्रलम्बासुर अपने कन्धेपर बलरामजीको चढ़ाकर चन्द्रमाके सहित मेघके समान अत्यन्त वेगसे आकाशमण्डलको चल दिया ॥ १६ ॥

असहन् रौहिणेयस्य स भारं दानवोत्तमः ।
ववृधे स महाकायः प्रावृषीव बलाहकः ॥ १७ ॥
वह दानवश्रेष्ठ रोहिणीनन्दन श्रीबलभद्रजीके भारको सहन न कर सकनेके कारण वर्षाकालीन मेघके समान बढ़कर अत्यन्त स्थूल शरीरवाला हो गया ॥ १७ ॥

संकर्षणस्तु तं दृष्ट्‍वा दग्धशैलोपमाकृतिम् ।
स्रग्दामलम्बाभरणं मकुटाटोपमस्तकम् ॥ १८ ॥
रौद्रं शकटचक्राक्षं पादन्यासचलत्क्षितिम् ।
अभीतमनसा तेन रक्षसा रोहिणीसुतः ।
ह्रियमामस्ततः कृष्णमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १९ ॥
तब माला और आभूषण धारण किये, सिरपर मुकुट पहने, गाड़ीके पहियोंके समान भयानक नेत्रोंवाले, अपने पादप्रहारसे पृथिवीको कम्पायमान करते हुए तथा दग्धपर्वतके समान आकारवाले उस दैत्यको देखकर उस निर्भय राक्षसके द्वारा ले जाये जाते हुए बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रसे कहा- ॥ १८-१९ ॥

कृष्ण कृष्ण ह्रियाम्येष पर्वतोदग्रमूर्तिना ।
केनापि पश्य दैत्येन गोपालच्छद्मरूपिणा ॥ २० ॥
"भैया कृष्ण ! देखो, छद्मपूर्वक गोपवेष धारण करनेवाला कोई पर्वतके समान महाकाय दैत्य मुझे हरे लिये जाता है ॥ २० ॥

यदत्र साम्प्रतं कार्यं मया मधुनिषूदन ।
तत्कथ्यतां प्रयात्येष दुरात्मातित्वरान्वितः ॥ २१ ॥
हे मधुसूदन ! अब मुझे क्या करना चाहिये, यह बतलाओ । देखो, यह दुरात्मा बड़ी शीघ्रतासे दौड़ा जा रहा है" ॥ २१ ॥

श्रीपराशर उवाच
तमाह रामं गोविन्दः स्मितभिन्नोष्ठसम्पुटः ।
महात्मा रौहिणेयस्य बलवीर्यप्रमाणवित् ॥ २२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब रोहिणीनन्दनके बलवीर्यको जाननेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने मधुरमुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए उन बलरामजीसे कहा ॥ २२ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
किमयं मानुषो भावो व्यक्तमेवावलम्ब्यते ।
सर्वात्मन् सर्वगुह्यानां गुह्यगुह्यात्मना त्वया ॥ २३ ॥
श्रीकृष्णचन्द्र बोले-हे सर्वात्मन् ! आप सम्पूर्ण गुह्य पदार्थोंमें अत्यन्त गुह्यस्वरूप होकर भी यह स्पष्ट मानवभाव क्यों अवलम्बन कर रहे हैं ? ॥ २३ ॥

स्मराशेषजगद्‍बीजकारणं कारणाग्रजम् ।
आत्मानमेकं तद्वच्च जगत्येकार्णवे च यत् ॥ २४ ॥
आप अपने उस स्वरूपका स्मरण कीजिये जो समस्त संसारका कारण तथा कारणका भी पूर्ववर्ती है और प्रलयकालमें भी स्थित रहनेवाला है ॥ २४ ॥

किं न वेत्सि यथाहं च त्वं चैकं कारणं भुवः ।
भारावतारणार्थाय मर्त्यलोकमुपागतौ ॥ २५ ॥
क्या आपको मालूम नहीं है कि आप और मैं दोनों ही इस संसारके एकमात्र कारण हैं और पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोकमें आये हैं ॥ २५ ॥

नभशिरस्तेऽम्बुवहाश्च केशाः
     पादौ क्षितिर्वत्र्क्रमनन्त वह्नि ।
सोमो मनस्ते श्वसितं समीरणो
     दिशश्चतस्रोऽव्यय बाहवस्ते ॥ २६ ॥
हे अनन्त ! आकाश आपका सिर है, मेघ केश हैं, पृथिवी चरण हैं, अग्नि मुख है, चन्द्रमा मन है, वायु श्वास-प्रश्वास हैं और चारों दिशाएँ बाहु हैं ॥ २६ ॥

सहस्रवक्त्रो भगवान्महात्मा
     सहस्रहस्ताङ्‍घ्रिशरीरभेदः ।
सहस्रपद्मोद्‍भवयोनिराद्यः-
     सहस्रशस्त्वां मुनयो गृणन्ति ॥ २७ ॥
हे भगवन् ! आप महाकाय हैं, आपके सहल मुख हैं तथा सहस्रों हाथ, पाँव आदि शरीरके भेद हैं । आप सहस्रों ब्रह्माओंके आदिकारण हैं, मुनिजन आपका सहसों प्रकार वर्णन करते हैं ॥ २७ ॥

दिव्यं हि रूपं तव वेत्ति नान्यो
     देवैरशेषैरवताररूपम् ।
तदर्च्यते वेत्सि न किं यदन्ते
     त्वय्येव विश्वं लयमभ्युपैति ॥ २८ ॥
आपके दिव्य रूपको [आपके अतिरिक्त] और कोई नहीं जानता, अतः समस्त देवगण आपके अवताररूपकी ही उपासना करते हैं । क्या आपको विदित नहीं है कि अन्तमें यह सम्पूर्ण विश्व आपहीमें लीन हो जाता है ॥ २८ ॥

त्वया धृतेयं धरणी बिभर्ति
     चराचरं विश्वमनन्तमूर्ते ।
कृतादिभेदैरज कालरूपो
     निमेषपूर्वो जगदेतदत्सि ॥ २९ ॥
हे अनन्तमूर्ते ! आपहीसे धारण की हुई यह पृथिवी सम्पूर्ण चराचर विश्वको धारण करती है । हे अज ! निमेषादि कालस्वरूप आप ही कृतयुग आदि भेदोंसे इस जगत्का ग्रास करते हैं ॥ २९ ॥

अत्तं यथा बाडववह्निनाम्बु
     हिमस्वरूपं परिगृह्य कास्तम् ।
हिमाचले भानुमतोंऽशुसङ्‍गा-
     ज्जलत्वमभ्येति पुनस्तदेव ॥ ३० ॥
एवं त्वया संहरणेऽत्तमेत-
     ज्जगत्समस्तं त्वदधीनकं पुनः ।
तवैव सर्गाय समुद्यतस्य
     जगत्त्वमभ्येत्यसुकल्पमीश ॥ ३१ ॥
जिस प्रकार बडवानलसे पीया हुआ जल वायुद्वारा हिमालयतक पहुँचाये जानेपर हिमका रूप धारण कर लेता है और फिर सूर्यकिरणोंका संयोग होनेसे जलरूप हो जाता है, उसी प्रकार हे ईश ! यह समस्त जगत् [रुद्रादिरूपसे] आपहीके द्वारा विनष्ट होकर आप [परमेश्वर]-के ही अधीन रहता है और फिर प्रत्येक कल्पमें आपके [हिरण्यगर्भरूपसे] सृष्टि-रचनामें प्रवृत्त होनेपर यह [विराट्रूपसे] स्थूल जगद्रूप हो जाता है ॥ ३०-३१ ॥

भवानहं च विश्वात्मन्नेकमेव च कारणम् ।
जगतोऽस्य जगत्यर्थे भेदेनावां व्यवस्थितौ ॥ ३२ ॥
हे विश्वात्मन् ! आप और मैं दोनों ही इस जगत्के एकमात्र कारण हैं । संसारके हितके लिये ही हमने भिन्न-भिन्न रूप धारण किये हैं ॥ ३२ ॥

तत्स्मर्यताममेयात्मंस्त्वयात्मा जहि दानवम् ।
मानुष्यमेवावलम्ब्य बन्धूनां क्रियतां हितम् ॥ ३३ ॥
अतः हे अमेयात्मन् ! आप अपने स्वरूपको स्मरण कीजिये और मनुष्यभावका ही अवलम्बन कर इस दैत्यको मारकर बन्धुजनोंका हित-साधन कीजिये ॥ ३३ ॥

श्री पराशर उवाच
इति संस्मारितो विप्र कृष्णेन सुमहात्मना ।
विहस्य पीडयामास प्रलम्बं बलवान्बलः ॥ ३४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे विप्र ! महात्मा कृष्णचन्द्रद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर महाबलवान् बलरामजी हँसते हुए प्रलम्बासुरको पीडित करने लगे ॥ ३४ ॥

मुष्टिना सोऽहनन्मूर्ध्नि कोपसंरक्तलोचनः ।
तेन चास्य प्रहारेण बहिर्याते विलोचने ॥ ३५ ॥
उन्होंने क्रोधसे नेत्र लाल करके उसके मस्तकपर एक चूंसा मारा, जिसकी चोटसे उस दैत्यके दोनों नेत्र बाहर निकल आये ॥ ३५ ॥

स निष्कासितमस्तिष्को मुखाच्छोणितमुद्वमन् ।
निपपात महीपृष्ठे दत्यवर्यो ममार च ॥ ३६ ॥
तदनन्तर वह दैत्यश्रेष्ठ मगज (मस्तिष्क) फट जानेपर मुखसे रक्त वमन करता हुआ पृथिवीपर गिर पड़ा और मर गया ॥ ३६ ॥

प्रलम्बं निहतं दृष्ट्‍वा बलेनाद्‍भुतकर्मणा ।
प्रहृष्टास्तुष्टुवुर्गौपाः साधुसाध्विति चाब्रुवन् ॥ ३७ ॥
अद्‌भुतकर्मा बलरामजीद्वारा प्रलम्बासुरको मरा हुआ देखकर गोपगण प्रसन्न होकर 'साधु, साधु' कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ३७ ॥

संस्तूयमानो गोपैस्तु रामो दैत्ये निपातिते ।
प्रलम्बं सह कृष्णेन पुनर्गोकुलमाययौ ॥ ३८ ॥
प्रलम्बासुरके मारे जानेपर बलरामजी गोर्पोद्वारा प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्रके साथ गोकुलमें लौट आये ॥ ३८ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे नवमोऽध्यायः (९)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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