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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ दशमोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
तयोर्विहरतोरेवं रामकेशवयोर्व्रजे ।
प्रावृड् व्यतीता विकसत्सरोजा चाभवच्छरत् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार उन राम और कृष्णके व्रजमें विहार करते-करते वर्षाकाल बीत गया और प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त शरद् ऋतु आ गयी ॥ १ ॥

अवापुस्तापमत्यर्थं शफर्यः पल्वलोदके ।
पुत्रक्षेत्रादिसक्तेन ममत्वेन यथा गृही ॥ २ ॥
जैसे गृहस्थ पुरुष पुत्र और क्षेत्र आदिमें लगी हुई ममतासे सन्ताप पाते हैं, उसी प्रकार मछलियाँ गड्ढोंके जलमें अत्यन्त ताप पाने लगीं ॥ २ ॥

मयुरा मौनमातस्थुः परित्यक्तमदा वने ।
असारतां परिज्ञाय संसारस्येव योगिनः ॥ ३ ॥
संसारकी असारताको जानकर जिस प्रकार योगिजन शान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मयूरगण मदहीन होकर मौन हो गये ॥ ३ ॥

उत्सृज्य जलसर्वस्वं विमलाःसितमूर्तयः ।
तत्यजुश्चाम्बरं मेघा गृहं विज्ञानिनो यथा ॥ ४ ॥
विज्ञानिगण [सब प्रकारकी ममता छोड़कर] जैसे घरका त्याग कर देते हैं, वैसे ही निर्मल श्वेत मेघोंने अपना जलरूप सर्वस्व छोड़कर आकाशमण्डलका परित्याग कर दिया ॥ ४ ॥

शरत्सूर्यांशुतप्तानि ययुः शोषं सरांसि च ।
बह्वालम्बममत्वेन हृदयानीव देहिनाम् ॥ ५ ॥
विविध पदार्थोमें ममता करनेसे जैसे देहधारियोंके हृदय सारहीन हो जाते हैं वैसे ही शरत्कालीन सूर्यके तापसे सरोवर सूख गये ॥ ५ ॥

कुमुदैः शरदम्भांसि योग्यतालक्षणं ययुः ।
अवबोधैर्मनांसीव समत्वममलात्मनाम् ॥ ६ ॥
निर्मलचित्त पुरुषों के मन जिस प्रकार ज्ञानद्वारा समता प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार शरत्कालीन जलोंको [स्वच्छताके कारण] कुमुदोंसे योग्य सम्बन्ध प्राप्त हो गया ॥ ६ ॥

तारकाविमले व्योम्नि रराजाखण्डमण्डलः ।
चन्द्रश्चरमदेहात्मा योगी साधुकुले यथा ॥ ७ ॥
जिस प्रकार साधु-कुलमें चरम-देह-धारी योगी सुशोभित होता है, उसी प्रकार तारका-मण्डल-मण्डित निर्मल आकाशमें पूर्णचन्द्र विराजमान हुआ ॥ ७ ॥

शनकैः शनकैस्तीरं तत्यजुश्च जलाशयाः ।
ममत्वं क्षेत्रपुत्रादिरूढमुच्चैर्यथा बुधाः ॥ ८ ॥
जिस प्रकार क्षेत्र और पुत्र आदिमें बढ़ी हुई ममताको विवेकीजन शनैः-शनैः त्याग देते हैं, वैसे ही जलाशयोंका जल धीरे-धीरे अपने तटको छोड़ने लगा ॥ ८ ॥

पूर्वं त्यक्तैः सरोऽम्भोभिर्हंसा योगं पुनर्ययुः ।
क्लेशैः कुयोगिनो शेषैरन्तरायहता इव ॥ ९ ॥
जिस प्रकार अन्तरायों* (विप्नों)-से विचलित हुए कुयोगियोंका क्लेशों से पुनः संयोग हो जाता है उसी प्रकार पहले छोड़े हुए सरोवरके जलसे हंसका पुनः संयोग हो गया ॥ ९ ॥

निभृतो भवदत्यर्थं समुद्रः स्तिमितोदकः ।
क्रमावाप्तमहायोगो निश्चलात्मा यथा यतिः ॥ १० ॥
क्रमशः महायोग (सम्प्रज्ञातसमाधि) प्राप्त कर लेनेपर जैसे यति निश्चलात्मा हो जाता है, वैसे ही जलके स्थिर हो जानेसे समुद्र निश्चल हो गया ॥ १० ॥

सर्वत्रातिप्रसन्नानि सलिलानि तथाभवन् ।
ज्ञाते सर्वगते विष्णौ मनांसीव सुमेधसाम् ॥ ११ ॥
जिस प्रकार सर्वगत भगवान् विष्णुको जान लेनेपर मेधावी पुरुषोंके चित्त शान्त हो जाते हैं वैसे ही समस्त जलाशयोंका जल स्वच्छ हो गया ॥ ११ ॥

बभूव निर्मलं व्योम शरदा ध्वस्ततोयदम् ।
योगाग्निदग्धक्लेशौघं योगिनामिव मानसम् ॥ १२ ॥
योगाग्निद्वारा क्लेशसमूहके नष्ट हो जानेपर जैसे योगियोंके चित्त स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार शीतके कारण मेघोंके लीन हो जानेसे आकाश निर्मल हो गया ॥ १२ ॥

सूर्यांशुजनितं तापं नित्ये तारापतिः शमम् ।
अहंमानोद्‍भवं दुःखं विवेकः सुमहानिव ॥ १३ ॥
जिस प्रकार अहंकारजनित महान् दुःखको विवेक शान्त कर देता है, उसी प्रकार सूर्यकिरणोंसे उत्पन्न हुए तापको चन्द्रमाने शान्त कर दिया ॥ १३ ॥

नभसोब्दं भुवः पङ्‍कं कालुष्यं चाम्भसः शरत् ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रत्याहार इवाहरत् ॥ १४ ॥
प्रत्याहार जैसे इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच लेता है वैसे ही शरत्कालने आकाशसे मेघोंको, पृथिवीसे धूलिको और जलसे मलको दूर कर दिया ॥ १४ ॥

प्राणायाम इवाम्भोभिः सरसां कृतपूरकैः ।
अभ्यस्यतेऽनुदिवसं रेचकाकुम्भकादिभिः ॥ १५ ॥
[पानीसे भर जानेके कारण] मानो तालाबोंके जल पूरक कर चुकनेपर अब [स्थिर रहने और सूखनेसे] रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रियाद्वारा प्राणायामका अभ्यास कर रहे हैं ॥ १५ ॥

विमलाम्बरनक्षत्रे काले चाभ्यागते व्रजे ।
ददर्शेन्द्रमहारम्भायोद्यतांस्तान्व्रजौकसः ॥ १६ ॥
इस प्रकार व्रजमण्डलमें निर्मल आकाश और नक्षत्रमय शरत्कालके आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने समस्त ब्रजवासियोंको इन्द्रका उत्सव मनानेके लिये तैयारी करते देखा ॥ १६ ॥

कृष्णस्तानुत्सुकान्दृष्ट्‍वा गोपानुत्सवलालसान् ।
कौतूहलादिदं वाक्यं प्राह वृद्धान्महामतिः ॥ १७ ॥
महामति कृष्णने उन गोपोंको उत्सवकी उमंगसे अत्यन्त उत्साहपूर्ण देखकर कुतूहलवश अपने बड़े-बूढोंसे पूछा- ॥ १७ ॥

कोऽयं शक्रमहो नाम येन वो हर्ष आगतः ।
प्राह तं नन्दगोपश्च पृच्छन्तमतिसादरम् ॥ १८ ॥
"आपलोग जिसके लिये फूले नहीं समाते वह इन्द्रयज्ञ क्या है ?" इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक पूछनेपर उनसे नन्दगोपने कहा- ॥ १८ ॥

नन्दगोप उवाच
मेघानां पयसां चेशो देवराजः शतक्रतुः ।
तेन सञ्चोदिता मेघा वर्षत्यम्बुमयं रसम् ॥ १९ ॥
नन्दगोप बोले- मेघ और जलका स्वामी देवराज इन्द्र है । उसकी प्रेरणासे ही मेघगण जलरूप रसकी वर्षा करते हैं ॥ १९ ॥

तद्वृष्टिजनितं सस्यं वयमन्ये च देहिनः ।
वर्तयामोपयुञ्जानास्तर्पयामश्च देवताः ॥ २० ॥
हम और अन्य समस्त देहधारी उस वर्षासे उत्पन्न हुए अन्नको ही बर्तते हैं तथा उसीको उपयोगमें लाते हुए देवताओंको भी तृप्त करते हैं ॥ २० ॥

क्षीरवत्य इमा गावो वत्सवत्यश्च निर्वृताः ।
तेन संवर्धितैः सस्यैस्तुष्टाः पुष्टाः भवन्ति वै ॥ २१ ॥
उस (वर्षा)से बढ़े हुए अन्नसे ही तृप्त होकर ये गौएँ तुष्ट और पुष्ट होकर वत्सवती एवं दूध देनेवाली होती हैं ॥ २१ ॥

नासस्या नातृणा भूमिर्न बुभुक्षार्दितो जनः ।
दृश्यते यत्र दृश्यन्ते वृष्टिमन्तो बलाहकाः ॥ २२ ॥
जिस भूमिपर बरसनेवाले मेघ दिखायी देते हैं, उसपर कभी अन्न और तृणका अभाव नहीं होता और न कभी वहाँके लोग भूखे रहते ही देखे जाते हैं ॥ २२ ॥

भौममेतत्पयो दुग्धं गोभिः सूर्यस्य वारिदैः ।
पर्जन्यः सर्वलोकस्योद्‍भवाय भुवि वर्षति ॥ २३ ॥
तस्मात्प्रावृषि राजानः सर्वे शक्रं मुदा युताः ।
मखैः सुरेशमर्चन्ति वयमन्ये च मानवाः ॥ २४ ॥
यह पर्जन्यदेव (इन्द्र) पृथिवीके जलको सूर्यकिरणोंद्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियोंकी वृद्धिके लिये उसे मेघोंद्वारा पृथिवीपर बरसा देते हैं । इसलिये वर्षा ऋतुमें समस्त राजालोग, हम और अन्य मनुष्यगण देवराज इन्द्रकी यज्ञोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं ॥ २३-२४ ॥

श्रीपराशर उवाच
नन्दगोपस्य वचनं श्रुत्वेत्थं शक्रपूजने ।
रोषाय त्रिदशेन्द्रस्य प्राहदामोदरस्तदा ॥ २५ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इन्द्रकी पूजाके विषयमें नन्दजीके ऐसे वचन सुनकर श्रीदामोदर देवराजको कुपित करनेके लिये ही इस प्रकार कहने लगे- ॥ २५ ॥

न वयं कृषिकर्तारो वाणिज्याजीविनो न च ।
गावोऽस्मद्दैवतं तात वयं वनचरा यतः ॥ २६ ॥
"हे तात ! हम न तो कृषक हैं और न व्यापारी, हमारे देवता तो गौएँ ही हैं; क्योंकि हमलोग वनचर हैं ॥ २६ ॥

आन्विक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनितिस्तथा परा ।
विद्या चतुष्टयं चैतद्वार्तामात्रं शृणुष्व मे ॥ २७ ॥
आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र), त्रयी (कर्मकाण्ड), दण्डनीति और वार्ता-ये चार विद्याएँ हैं, इनमेंसे केवल वार्ताका विवरण सुनो ॥ २७ ॥

कृषिर्वणिज्या तद्वच्च तृतीयं पशुपालनम् ।
विद्या ह्येका महाभाग वार्ता वृत्तित्रयाश्रया ॥ २८ ॥
हे महाभाग ! वार्ता नामकी विद्या कृषि, वाणिज्य और पशुपालन इन तीन वृत्तियोंकी आश्रयभूता है ॥ २८ ॥

कर्षकाणां कृषिर्वृत्तिः पण्यं विपणीजीविनाम् ।
अस्माकं गौः परावृत्तिर्वार्ताभेदैरियं त्रिभिः ॥ २९ ॥
वार्ताक इन तीनों भेदोंमेंसे कृषि किसानोंकी, वाणिज्य व्यापारियोंकी और गोपालन हमलोगोंकी उत्तम वृत्ति है ॥ २९ ॥

विद्यया यो यया युक्तस्तस्य सा दैवतं महत् ।
सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिका ॥ ३० ॥
जो व्यक्ति जिस विद्यासे युक्त है उसकी वही इष्टदेवता है, वही पूजा-अर्चाके योग्य है और वही परम उपकारिणी है ॥ ३० ॥

यो यस्य फलमश्नन्वै पूजयत्यपरं नरः ।
इह च प्रेत्य चैवासौ न तदाप्नोति शोभनम् ॥ ३१ ॥
जो पुरुष एक व्यक्तिसे फल-लाभ करके अन्यकी पूजा करता है, उसका इहलोक अथवा परलोकमें कहीं भी शुभ नहीं होता ॥ ३१ ॥

कृष्यान्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं च पुनर्वनम् ।
वनान्ता गिरयः सर्वे ते चास्माकं परा गतिः ॥ ३२ ॥
खेतोंके अन्तमें सीमा है तथा सीमाके अन्तमें वन हैं और वनोंके अन्तमें समस्त पर्वत हैं; वे पर्वत ही हमारी परमगति हैं ॥ ३२ ॥

न द्वारबन्धावरणा न गृहक्षेत्रिणस्तथा ।
सुखिनस्त्वखिले लोके यथा वै चक्रचारिणः ॥ ३३ ॥
हमलोग न तो किंवाड़ें तथा भित्तिके अन्दर रहनेवाले हैं और न निश्चित गृह अथवा खेतवाले किसान ही हैं, बल्कि [वन-पर्वतादिमें स्वच्छन्द विचरनेवाले] हमलोग चक्रचारी मुनियोंकी भाँति समस्त जनसमुदायमें सुखी हैं [अतः गृहस्थ किसानोंकी भाँति हमें इन्द्रकी पूजा करनेका कोई काम नहीं]" ॥ ३३ ॥

श्रूयन्ते गिरयश्चैव वनेस्मिन्कामरूपिणः ।
तत्तद्‍रूपं समास्थाय रमन्ते स्वेषु सानुषु ॥ ३४ ॥
"सुना जाता है कि इस वनके पर्वतगण कामरूपी (इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले) हैं । वे मनोवांछित रूप धारण करके अपने-अपने शिखरोंपर विहार किया करते हैं ॥ ३४ ॥

यदा चैते प्रबाध्यन्ते तेषां ये काननौकसः ।
तदा सिंहादिरूपैस्तान्घातयन्ति महीधराः ॥ ३५ ॥
जब कभी बनवासीगण इन गिरिदेवोंको किसी तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादि रूप धारणकर उन्हें मार डालते हैं ॥ ३५ ॥

गिरीयज्ञस्त्वयं तस्माद्‍गोयज्ञश्च प्रवर्त्यताम् ।
किमस्माकं महेन्द्रेण गावः शैलाश्च देवताः ॥ ३६ ॥
अत: आजसे [इस इन्द्रयज्ञके स्थानमें] गिरियज्ञ अथवा गोयज्ञका प्रचार होना चाहिये । हमें इन्द्रसे क्या प्रयोजन है ? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही हैं ॥ ३६ ॥

मन्त्रयज्ञपरा विप्राः सीरयज्ञाश्च कर्षकाः ।
गिरिगोयज्ञशीलाश्च वयमद्रिवनाश्रयाः ॥ ३७ ॥
ब्राह्मणलोग मन्त्र यज्ञ तथा कृषकगण सीरयज्ञ (हलका पूजन) करते हैं, अत: पर्वत और वनों में रहनेवाले हमलोगोंको गिरियज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये ॥ ३७ ॥

तस्माद्‍गोवर्धनः शैलो भवद्‍‍भिर्विविधार्हणैः ।
अर्च्यतां पूज्यतां मेध्यान्पशुन्हत्वा विधानतः ॥ ३८ ॥
"अतएव आपलोग विधिपूर्वक मेध्य पशुओंकी बलि देकर विविध सामग्रियोंसे गोवर्धनपर्वतकी अर्चा पूजा करें ॥ ३८ ॥

सर्वघोषस्य सन्दोहो गृह्यतां मा विचार्यताम् ।
भोज्यन्तां तेन वै विप्रास्तथा ये चाभिवाञ्छकाः ॥ ३९ ॥
आज सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों तथा अन्यान्य याचकोंको भोजन कराओ; इस विषयमें और अधिक सोच-विचार मत करो ॥ ३९ ॥

तत्रार्चिते कृते होमे भोजितेषु द्विजातिषु ।
शरत्पुष्पकृतापीडाः परिगच्छन्तु गोगणाः ॥ ४० ॥
गोवर्धनकी पूजा, होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर शरद्-ऋतुके पुष्पोंसे सजे हुए मस्तकवाली गौएँ गिरिराजकी प्रदक्षिणा करें ॥ ४० ॥

एतन्मम मतं गोपाः सम्प्रीत्या क्रियते यदि ।
ततः कृता भवेत्प्रीतिर्गवामद्रेस्तथा मम ॥ ४१ ॥
हे गोपगण ! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वक मेरी इस सम्मतिके अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिराज और मुझको अत्यन्त प्रसन्नता होगी" ॥ ४१ ॥

श्रीपराशर उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा नन्दाद्यास्ते व्रजौकसः ।
प्रीत्युत्फुल्लमुखा गोपाः साधुसाध्वित्यथाब्रुवन् ॥ ४२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-कृष्णचन्द्रके इन वाक्योंको सुनकर नन्द आदि ब्रजवासी गोपोंने प्रसन्नतासे खिले हुए मुखसे 'साधु, साधु' कहा ॥ ४२ ॥

शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्‍भवतोदितम् ।
तत्करिष्यामहे सर्वं गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम् ॥ ४३ ॥
और बोले-हे वत्स ! तुमने अपना जो विचार प्रकट किया है वह बड़ा ही सुन्दर है; हम सब ऐसा ही करेंगे; आज गिरियज्ञ किया जाय ॥ ४३ ॥

तथा च कृतवन्तस्ते गिरियज्ञं व्रजौकसः ।
दधिपायसमांसाद्यैर्ददुः शैलबलिं ततः ॥ ४४ ॥
तदनन्तर उन व्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया तथा दही, खीर और मांस आदिसे पर्वतराजको बलि दी ॥ ४४ ॥

द्विजांश्च भोजयामासुः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ४५ ॥
गावः शैलं ततश्चक्रुरर्चितास्ताः प्रदक्षिणम् ।
वृषभाश्चातिनर्दन्तः सतोया जलदा इव ॥ ४६ ॥
सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा पुष्पार्चित गौओं और सजल जलधरके समान गर्जनेवाले साँड़ोंने गोवर्धनकी परिक्रमा की ॥ ४५-४६ ॥

गिरिमूर्धनि कृष्णोऽपि शैलोहमिति मूर्तिमान् ।
बुभुजेन्नं बहुतरं गोपवर्याहृतं द्विज ॥ ४७ ॥
हे द्विज ! उस समय कृष्णचन्द्रने पर्वतके शिखरपर अन्यरूपसे प्रकट होकर यह दिखलाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपत्रेष्ठोंके चढ़ाये हुए विविध व्यंजनोंको ग्रहण किया ॥ ४७ ॥

स्वेनैव कृष्णो रूपेण गोपैः सह गिरेः शिरः ।
अधिरुह्यार्चयामास द्वितीयामात्मनस्तनुम् ॥ ४८ ॥
कृष्णचन्द्रने अपने निजरूपसे गोपोंके साथ पर्वतराजके शिखरपर चढ़कर अपने ही दूसरे स्वरूपका पूजन किया ॥ ४८ ॥

अन्तर्धानं गते तस्मिन्गोपा लब्ध्वा ततो वरान् ।
कृत्वा गिरीमखं गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः ॥ ४९ ॥
तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण अपने अभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्त करके फिर अपने-अपने गोष्ठोंमें चले आये ॥ ४९ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे दशमोऽध्यायः (१०)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

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