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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ एकादशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
मखे प्रतिहते शक्रो मैत्रेयातिरुषान्वितः ।
संवर्तकं नाम गणं तोयदानामथाब्रत्रीत् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! अपने यज्ञके रुक जानेसे इन्द्रने अत्यन्त रोषपूर्वक संवर्तक नामक मेघोंके दलसे इस प्रकार कहा- ॥ १ ॥

भोभो मेधा निशम्यैतद्वचनं गदतो मम ।
आज्ञानन्तरमेवाशु क्रियतामविचारितम् ॥ २ ॥
"अरे मेघो ! मेरा यह वचन सुनो और मैं जो कुछ कहूँ उसे मेरी आज्ञा सुनते ही, बिना कुछ सोचेविचारे तुरन्त पूरा करो ॥ २ ॥

नन्दगोपः सुदुर्बुद्धिर्गोपैरन्यैः सहायवान् ।
कृष्णाश्रयं बलाध्मातो मखभङ्‍गमचीकरत् ॥ ३ ॥
देखो अन्य गोपोंके सहित दुर्बुद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सहायताके बलसे अन्धा होकर मेरा यज्ञ भंग कर दिया है ॥ ३ ॥

आजीवो याः परस्तेषां गावस्तस्य च कारणम् ।
तागावो वृष्टिपातेन पीड्यन्तां वचनान्मम ॥ ४ ॥
अतः जो उनकी परम जीविका और उनके गोपत्वका कारण है, उन गौओंको तुम मेरी आज्ञासे वर्षा और वायुके द्वारा पीडित कर दो ॥ ४ ॥

अहम् अप्यद्रिशृङ्‍गाभं तुङ्‍गमारुह्य वारणम् ।
साहाय्यं वः करिष्यामि वाय्वम्बूत्सर्गयोजितम् ॥ ५ ॥
मैं भी पर्वत शिखरके समान अत्यन्त ऊँचे अपने ऐरावत हाथीपर चढ़कर वायु और जल छोड़नेके समय तुम्हारी सहायता कसँगा" ॥ ५ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्याज्ञप्तास्ततस्तेन मुमुचुस्ते बलाहकाः ।
वातवर्षं महाभीममभावाय गवां द्विज ॥ ६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! इन्द्रकी ऐसी आज्ञा होनेपर गौओंको नष्ट करनेके लिये मेघोंने अति प्रचण्ड वायु और वर्षा छोड़ दी ॥ ६ ॥

ततः क्षणेन पृथिवी ककुभोऽम्बरमेव च ।
एकं धारामहासारपूरेणनाभवन्मुने ॥ ७ ॥
हे मुने ! उस समय एक क्षणमें ही मेघोंको छोड़ी हुई महान् जलधाराओंसे पृथिवी, दिशाएँ और आकाश एकरूप हो गये ॥ ७ ॥

विद्युल्लताकशाघातत्रस्तैरिव घनैर्घनम् ।
नादापूरितदिक्चक्रैर्धारासारमपात्यत ॥ ८ ॥
मेघगण मानो विद्युल्लतारूप दण्डाघातसे भयभीत होकर महान् शब्दसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए मूसलाधार पानी बरसाने लगे ॥ ८ ॥

अन्धकारीकृते लोके वर्षद्‍भिरनिशं घनैः ।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च जगदाप्यमिवाभवत् ॥ ९ ॥
इस प्रकार मेघोंके अहर्निश बरसनेसे संसारके अन्धकारपूर्ण हो जानेपर ऊपरनीचे और सब ओरसे समस्त लोक जलमय-सा हो गया ॥ ९ ॥

गावस्तु तेन पतता वर्षवातेन वेगिना ।
धूताः प्राणाञ्जहुः सन्नत्रिकसक्थिशिरोधराः ॥ १० ॥
वर्षा और वायुके वेगपूर्वक चलते रहनेसे गौओंके कटि, जंघा और ग्रीवा आदि सुन्न हो गये और काँपते-काँपते अपने प्राण छोड़ने लगी [अर्थात् मूञ्छित हो गयीं] ॥ १० ॥

क्रोडेन वत्सानाक्रम्य तस्थुरन्या महामुने ।
गावो विवत्साश्च कृता वारिपूरेण चापराः ॥ ११ ॥
हे महामुने ! कोई गौएँ तो अपने बछड़ोंको अपने नीचे छिपाये खड़ी रहीं और कोई जलके वेगसे वत्सहीना हो गयीं ॥ ११ ॥

वत्साश्च दीनवदना वातकम्पितकन्धराः ।
त्राहित्राहीत्यल्पशब्दाः कृष्णमूचुरिवातुराः ॥ १२ ॥
वायुसे काँपते हुए दीनवदन बछड़े मानो व्याकुल होकर मन्दस्वरसे कृष्णचन्द्रसे 'रक्षा करो, रक्षा करो' ऐसा कहने लगे ॥ १२ ॥

ततस्तद्‍गोकुलं सर्वं गोगोपीगोपसंकुलम् ।
अतीवार्तं हरिर्दष्ट्‌वा मैत्रेयाचिन्तयत्तदा ॥ १३ ॥
हे मैत्रेय ! उस समय गो, गोपी और गोपगणके सहित सम्पूर्ण गोकुलको अत्यन्त व्याकुल देखकर श्रीहरिने विचारा ॥ १३ ॥

एतत्कृतं महेन्द्रेण मखभङ्‍गविरोधिना ।
तदेतदखिलं गोष्ठं त्रातव्यमधुना मया ॥ १४ ॥
यज्ञ-भंगके कारण विरोध मानकर यह सब करतूत इन्द्र ही कर रहा है; अतः अब मुझे सम्पूर्ण व्रजकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १४ ॥

इममद्रिमहं धैर्यादुत्पाट्योरुशिखाघनम् ।
धारयिष्यामि गोष्ठस्य पृथुच्छत्रमिवोपरि ॥ १५ ॥
अब मैं धैर्यपूर्वक बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस पर्वतको उखाड़कर इसे एक बड़े छनके समान व्रजके ऊपर धारण करूँगा ॥ १५ ॥

श्रीपराशर उवाच
इति कृत्वा मतिं कृष्णो गोवर्धनमहीधरम् ।
उत्पाट्यैककरेणेव धारयामास लीलया ॥ १६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-श्रीकृष्णचन्द्रने ऐसा विचारकर गोवर्धनपर्वतको उखाड़ लिया और उसे लीलासे ही अपने एक हाथपर उठा लिया ॥ १६ ॥

गोपांश्चह हसञ्छौरिः समुत्पाटितभूधरः ।
विशध्वमत्र त्वरिताः कृतं वर्षनिवारणम् ॥ १७ ॥
पर्वतको उखाड़ लेनेपर शूरनन्दन श्रीश्यामसुन्दरने गोपोंसे हँसकर कहा"आओ, शीघ्र ही इस पर्वतके नीचे आ जाओ, मैंने वर्षासे बचनेका प्रवन्ध कर दिया है ॥ १७ ॥

सुनिवातेषु देशेषु यथा जोषमिहास्यताम् ।
प्रविश्यतां न भेतव्यं गिरीपाताच्च निर्भयैः ॥ १८ ॥
यहाँ वायुहीन स्थानोंमें आकर सुखपूर्वक बैठ जाओ; निर्भय होकर प्रवेश करो, पर्वतके गिरने आदिका भय मत करो" ॥ १८ ॥

इत्युक्तास्तेन ते गोपा विविशुर्गोधनैः सह ।
शकटारोपितैर्भाण्डैर्गोप्यश्चासारपीडिताः ॥ १९ ॥
श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जलकी धाराओंसे पीडित गोप और गोपी अपने बर्तन-भाँडॉको छकड़ोंमें रखकर गौओंके साथ पर्वतके नीचे चले गये ॥ १९ ॥

कृष्णोपि तं दधारैव शैलमत्यन्तनिश्चलम् ।
व्रजौकवासिभिर्हर्षविस्मिताक्षैर्निरीक्षितः ॥ २० ॥
व्रज वासियोंद्वारा हर्ष और विस्मयपूर्वक टकटकी लगाकर देखे जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी गिरिराजको अत्यन्त निश्चलतापूर्वक धारण किये रहे ॥ २० ॥

गोपगोपीजनैर्हृष्टैः प्रीतिविस्तारितेक्षणैः ।
संस्तूयमानचरितः कृष्णः शैलमधारयत् ॥ २१ ॥
जो प्रीतिपूर्वक आँखें फाड़कर देख रहे थे उन हर्षितचित्त गोप और गोपियाँसे अपने चरितोंका स्तवन होते हुए श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतको धारण किये रहे ॥ २१ ॥

सप्तरात्रं महामेधा ववर्षुर्नन्दगोकुले ।
इन्द्रेण चोदिता विप्र गोपानां नाशकारिणा ॥ २२ ॥
हे विप्र ! गोपोंके नाशकर्ता इन्द्रकी प्रेरणासे नन्दजीके गोकुलमें सात रात्रितक महाभयंकर मेघ बरसते रहे ॥ २२ ॥

ततो धृते महाशैले परित्राते च गोकुले ।
मिथ्याप्रतिज्ञो बलभिद्वारयामास तान्घनान् ॥ २३ ॥
किंतु जब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वत धारणकर गोकुलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यर्थ हो जानेसे इन्द्रने मेघोंको रोक दिया ॥ २३ ॥

व्यभ्रे नभसि देवेन्द्रे वितथात्मवचस्यथ ।
निष्क्रम्य गोकुलं हृष्टं स्वस्थानं पुनरागमत् ॥ २४ ॥
आकाशके मेघहीन हो जानेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जानेपर समस्त गोकुलवासी वहाँसे निकलकर प्रसन्नतापूर्वक फिर अपने-अपने स्थानोंपर आ गये ॥ २४ ॥

मुमोच कृष्णोपि तदा गोवर्धनमहाचलम् ।
स्वस्थाने विस्मितमुखैर्दृष्टस्तैस्तु व्रजौकसैः ॥ २५ ॥
और कृष्णचन्द्रने भी उन ब्रजवासियोंके विस्मयपूर्वक देखते-देखते गिरिराज गोवर्धनको अपने स्थानपर रख दिया ॥ २५ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे एकादशोऽध्यायः (११)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

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