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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ द्वादशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
धृते गोवर्धने शैले परित्राते च गोकुले । रोजयामास कृष्णस्यदर्शनं पाकशासनः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार गोवर्धनपर्वतका धारण और गोकुलकी रक्षा हो जानेपर देवराज इन्द्रको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेकी इच्छा हुई ॥ १ ॥ सोऽधिरुह्य महानागमैरावतममित्रजित् ।
गोवर्धनगिरौ कृष्णं ददर्श त्रिदशेश्वरः ॥ २ ॥ चारयन्तं महावीर्यं गास्तु गोपवपुर्धरम् । कृत्स्नस्य जगतो गोपं वृतं गोपकुमारकैः ॥ ३ ॥ अतः शत्रुजित् देवराज गजराज ऐरावतपर चढ़कर गोवर्धनपर्वतपर आये और वहाँ सम्पूर्ण जगत्के रक्षक गोपवेषधारी महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रको ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते देखा ॥ २-३ ॥ गरुडं च ददर्शोच्चैरन्तर्धानगतं द्विज ।
कृतच्छायं हरेर्मूर्ध्नि पक्षाभ्यां पक्षिपुङ्गवम् ॥ ४ ॥ हे द्विज ! उन्होंने यह भी देखा कि पक्षिश्रेष्ठ गरुड अदृश्यभावसे उनके ऊपर रहकर अपने पंखोंसे उनकी छाया कर रहे हैं ॥ ४ ॥ अवरुह्य स नागेन्द्रादेकान्ते मधुसूदनम् ।
शक्रःसस्मितमाहेदं प्रीतिविस्तारितेक्षणः ॥ ५ ॥ तब वे ऐरावतसे उतर पड़े और एकान्तमें श्रीमधुसूदनकी ओर प्रीतिपूर्वक दृष्टि फैलाते हुए मुसकाकर बोले ॥ ५ ॥ इन्द्र उवाच
कृष्ण कृष्ण शृणुष्वेदं यदर्थ महामागतः । त्वत्समीपं महाबाहो नैतच्चिन्त्यं त्वायान्यथा ॥ ६ ॥ इन्द्रने कहा-हे श्रीकृष्णचन्द्र ! मैं जिसलिये आपके पास आया हूँ, वह सुनिये-हे महाबाहो ! आप इसे अन्यथा न समझें ॥ ६ ॥ भारावतारणार्थाय पृथिव्याः पृथिवीतले ।
अवतीर्णोऽखिलाधार त्वमेव परमेश्वर ॥ ७ ॥ हे अखिलाधार परमेश्वर ! आपने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है ॥ ७ ॥ मखभङ्गविरोधेन मया गोकुलनाशकाः ।
समादिष्टा महामेघास्तैश्चेदं कदनं कृतम् ॥ ८ ॥ यज्ञभंगसे विरोध मानकर ही मैंने गोकुलको नष्ट करनेके लिये महामेघोंको आज्ञा दी थी, उन्होंने यह संहार मचाया था ॥ ८ ॥ त्रातास्ताश्च त्वाया गावः समुत्पाट्य महीधरम् ।
तेनाहं तोषितो वीरकर्मणात्यद्भुतेन ते ॥ ९ ॥ किन्तु आपने पर्वतको उखाड़कर गौओंको बचा लिया । हे वीर ! आपके इस अद्भुत कर्मसे मैं अति प्रसन्न हूँ ॥ ९ ॥ साधितं कृष्ण देवानामहं मन्ये प्रयोजनम् ।
त्वयायमद्रिप्रवरः करेणैकेन यद्धृतः ॥ १० ॥ हे कृष्ण ! आपने जो अपने एक हाथपर गोवर्धन धारण किया है, इससे मैं देवताओंका प्रयोजन [आपके द्वारा] सिद्ध हुआ ही समझता हूँ ॥ १० ॥ गोभिश्च चोदितः कृष्ण त्वत्सकाशमिहागतः ।
त्वया त्राताभिरत्यर्थं युष्मत्सत्कारकारणात् ॥ ११ ॥ [गोवंशकी रक्षाद्वारा] आपसे रक्षित [कामधेनु आदि] गौओंसे प्रेरित होकर ही मैं आपका विशेष सत्कार करनेके लिये यहाँ आपके पास आया हूँ ॥ ११ ॥ स त्वां कृष्णाभिषेक्ष्यामि गावं वाक्यप्रचोदितः ।
उपेन्द्रत्वे गवामिन्द्रो गोविन्दस्त्वं भविष्यसि ॥ १२ ॥ हे कृष्ण ! अब मैं गौओंके वाक्यानुसार ही आपका उपेन्द्रपदपर अभिषेक करूंगा तथा आप गौओंके इन्द्र (स्वामी) हैं इसलिये आपका नाम 'गोविन्द' भी होगा ॥ १२ ॥ श्रीपराशर उवाच
अथोपवाह्यादादाय घण्टामैरावताद् गजात् । अभिषेकं तया चक्रे पवित्रजलपूर्णया ॥ १३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर इन्द्रने अपने वाहन गजराज ऐरावतका घण्टा लिया और उसमें पवित्र जल भरकर उससे कृष्णचन्द्रका अभिषेक किया ॥ १३ ॥ क्रियमाणेऽभिषेके तु गावः कृष्णस्य तत्क्षणात् ।
प्रस्रवोद्भूतदुग्धार्द्रां सद्यश्चक्रुर्वसुन्धराम् ॥ १४ ॥ श्रीकृष्णचन्द्रका अभिषेक होते समय गौओंने तुरन्त ही अपने स्तनोंसे टपकते हुए दुग्धसे पृथिवीको भिगो दिया ॥ १४ ॥ अभिषिच्य गवां वाक्यादुपेन्द्रं वै जनार्दनम् ।
प्रीत्या सप्रश्रयं वाक्यं पुनराह शचीपतिः ॥ १५ ॥ इस प्रकार गौओंके कथनानुसार श्रीजनार्दनको उपेन्द्र-पदपर अभिषिक्त कर शचीपति इन्द्रने पुन: प्रीति और विनयपूर्वक कहा- ॥ १५ ॥ गवामेतत्कृतं वाक्यं तथान्यदपि मे शृणु ।
यद्ब्रवीमि महाभाग भारावतरणेच्छया ॥ १६ ॥ "हे महाभाग ! यह तो मैंने गौओंका वचन पूरा किया, अब पृथिवीके भार उतारनेकी इच्छासे मैं आपसे जो कुछ और निवेदन करता हूँ वह भी सुनिये ॥ १६ ॥ ममांशः पुरुषव्याघ्र पृथिव्यां पृथिवीधर ।
अवतीर्णोऽर्जुनो नाम संरक्ष्यो भवता सदा ॥ १७ ॥ हे पृथिवीधर ! हे पुरुषसिंह ! अर्जुन नामक मेरे अंशने पृथिवीपर अवतार लिया है; आप कृपा करके उसकी सर्वदा रक्षा करें ॥ १७ ॥ भारावतरणे साह्यं स ते वीरः करिष्यति ।
संरक्षणीयो भवता यथात्मा मधुसूदन ॥ १८ ॥ हे मधुसूदन ! वह वीर पृथिवीका भार उतारनेमें आपका साथ देगा, अतः आप उसकी अपने शरीरके समान ही रक्षा करें" ॥ १८ ॥ श्रीभगवानुवाच
जानामि भारते वंशे जातं पार्थं तवांशतः । तमहं पालयिष्यामि यावत्स्थास्यमि भूतले ॥ १९ ॥ श्रीभगवान् बोले-भरतवंशमें पृथाके पुत्र अर्जुनने तुम्हारे अंशसे अवतार लिया है-यह मैं जानता हूँ । मैं जबतक पृथिवीपर रहूँगा, उसकी रक्षा करूँगा ॥ १९ ॥ यावन्महीतले शक्र स्थास्याम्यहमरिन्दम ।
न तावदर्जुनं कश्चिद्देवेन्द्र युधि जेष्यति ॥ २० ॥ हे शत्रुसूदन देवेन्द्र ! मैं जबतक महीतलपर रहूँगा तबतक अर्जुनको युद्ध में कोई भी न जीत सकेगा ॥ २० ॥ कंसो नाम महाबाहुर्दैत्योऽरिष्टस्तथासुरः ।
केशी कुवलयापीडो नरकाद्यास्तथा परे ॥ २१ ॥ हतेषु तेषु देवेन्द्र भविष्यति महाहवः । तत्र विद्धि सहस्राक्ष भारावतरणं कृतम् ॥ २२ ॥ हे देवेन्द्र ! विशाल भुजाओंवाला कंस नामक दैत्य, अरिष्टासुर, केशी, कुवलयापीड और नरकासुर आदि अन्यान्य दैत्योंका नाश होनेपर यहाँ महाभारत-युद्ध होगा । हे सहस्राक्ष ! उसी समय पृथिवीका भार उतरा हुआ समझना ॥ २१-२२ ॥ स त्वं गच्छ न सन्तापं पुत्रार्थे कर्तुमर्हसि ।
नार्जुनस्य रिपुः कश्चिन्ममाग्रे प्रभविष्यति ॥ २३ ॥ अब तुम प्रसन्नतापूर्वक जाओ, अपने पुत्र अर्जुनके लिये तुम किसी प्रकारको चिन्ता मत करो; मेरे रहते हुए अर्जुनका कोई भी शत्रु सफल न हो सकेगा । ॥ २३ ॥ अर्जुनार्थे त्वहं सर्वान्युधिष्ठिरपुरोगमान् ।
निवृत्ते भारते युद्धे कुन्त्यै दास्याम्यविक्षताम् ॥ २४ ॥ अर्जुनके लिये ही मैं महाभारतके अन्तमें युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंको अक्षत-शरीरसे कुन्तीको दूंगा ॥ २४ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तः सम्परिष्वज्य देवाराजो जनार्दनम् । आरुह्यौरावतं नागं पुनरेव दिवं ययौ ॥ २५ ॥ श्रीपराशरजी बोले-कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र उनका आलिंगन कर ऐरावत हाथीपर आरूढ हो स्वर्गको चले गये ॥ २५ ॥ कृष्णो हि सहितो गोभिर्गोपालैश्च पुनर्व्रजम् ।
आजगामाथ गोपीनां दृष्टिपूतेन वर्त्मना ॥ २६ ॥ तदनन्तर कृष्णचन्द्र भी गोपियोंके दृष्टिपातसे पवित्र हुए मार्गद्वारा गोपकुमारों और गौओंके साथ व्रजको लौट आये ॥ २६ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः (१२)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ |