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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
गते शक्रे तु गोपालाः कृष्णमक्लिष्टकारिणम् । ऊचुः प्रीत्या धृतं दृष्ट्वा तेन गोवर्धनाचलम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले- इन्द्रके चले जानेपर लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको बिना प्रयास ही गोवर्धनपर्वत धारण करते देख गोपगण उनसे प्रीतिपूर्वक बोले- ॥ १ ॥ वयमस्मान्महाभाग भगवन्महतो भयात् ।
गावश्च भवता त्राता गिरिधारणकर्मणा ॥ २ ॥ हे भगवन् ! हे महाभाग ! आपने गिरिराजको धारण कर हमारी और गौओंकी इस महान् भयसे रक्षा की है ॥ २ ॥ बालक्रीडेयमतुला गोपालत्वं जुगुप्सितम् ।
दिव्यं च भवतः कर्म किमेतत्तात कथ्यताम् ॥ ३ ॥ हे तात ! कहाँ आपकी यह अनुपम बाललीला, कहाँ निन्दित गोपजाति और कहाँ ये दिव्य कर्म ? यह सब क्या है, कृपया हमें बतलाइये ॥ ३ ॥ कालीयो दमितस्तोये धेनुको विनिपातितः ।
धृतो गोवर्धनश्चायं शङ्कितानि मनांसि नः ॥ ४ ॥ आपने यमुनाजलमें कालियनागका दमन किया, धेनुकासुरको मारा और फिर यह गोवर्धनपर्वत धारण किया; आपके इन अद्भुत कर्मोसे हमारे चित्तमें बड़ी शंका हो रही है ॥ ४ ॥ सत्यं सत्यं हरेः पादौ शपामोऽमितविक्रम ।
यथावद्वीर्यमालोक्य न त्वां मन्यामहे नरम् ॥ ५ ॥ हे अमितविक्रम ! हम भगवान् हरिके चरणोंकी शपथ करके आपसे सच-सच कहते हैं कि आपके ऐसे बल-वीर्यको देखकर हम आपको मनुष्य नहीं मान सकते ॥ ५ ॥ प्रीतिः सस्त्रीकुमारस्य व्रजस्य त्वयि केशव ।
कर्म चेदमशक्यं यत्समस्तैस्त्रिदशेरपि ॥ ६ ॥ हे केशव ! स्त्री और बालकोंके सहित सभी ब्रजवासियोंकी आपपर अत्यन्त प्रीति है । आपका यह कर्म तो देवताओंके लिये भी दुष्कर है ॥ ६ ॥ बालत्वं चातिवीर्यत्वं जन्म चास्मासु शोभनम् ।
चिन्त्यमानममेयात्मञ्छङ्कां कृष्ण प्रयच्छति ॥ ७ ॥ हे कृष्ण ! आपकी यह बाल्यावस्था, विचित्र बल-वीर्य और हम-जैसे नीच पुरुषों में जन्म लेना-हे अमेयात्मन् ! ये सब बातें विचार करनेपर हमें शंकामें डाल देती हैं ॥ ७ ॥ देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा ।
किमस्माकं विचारेण बान्धवोऽसि नमोस्तु ते ॥ ८ ॥ आप देवता हों, दानव हों, यक्ष हों अथवा गन्धर्व हों; इन बातोंका विचार करनेसे हमें क्या प्रयोजन है ? हमारे तो आप बन्धु ही हैं, अतः आपको नमस्कार है ॥ ८ ॥ श्रीपराशर उवाच
क्षणं भूत्वा त्वसौ तूष्णीं किञ्चित्प्रणयकोपवान् । इत्य् एवमुक्तस्तैर्गोपैः कृष्णोऽप्याह महामतिः ॥ ९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-गोपगणके ऐसा कहनेपर महामति कृष्णचन्द्र कुछ देरतक चुप रहे और फिर कुछ प्रणयजन्य कोपपूर्वक इस प्रकार कहने लगे- ॥ ९ ॥ श्रीभगवानुवाच
मत्सम्बन्धेन वो गोपा यदि लज्जा न जायते । श्लाघ्यो वाहं ततः किं वो विचारेण प्रयोजनम् ॥ १० ॥ श्रीभगवान्ने कहा-हे गोपगण ! यदि आपलोगोंको मेरे सम्बन्धसे किसी प्रकारकी लज्जा न हो तो मैं आपलोगोंसे प्रशंसनीय हूँ इस बातका विचार करनेकी भी क्या आवश्यकता है ? ॥ १० ॥ यदि वोऽस्ति मयि प्रीतिः श्लाघ्योऽहं भवतां यदि ।
तदात्मबन्धुसदृशी बुद्धिर्वः क्रियातां मयि ॥ ११ ॥ यदि मुझमें आपकी प्रीति है और यदि मैं आपकी प्रशंसाका पात्र हूँ तो आपलोग मुझमें बान्धव-बुद्धि ही करें ॥ ११ ॥ नाहं देवो न गान्धर्वो न यक्षो न च दानवः ।
अहं वो बान्धवो जातो नैतच्चिन्त्यमितोऽन्यथा ॥ १२ ॥ मैं न देव हूँ, न गन्धर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव हूँ । मैं तो आपके बान्धवरूपसे ही उत्पन्न हुआ हूँ ; आपलोगोंको इस विषयमें और कुछ विचार न करना चाहिये ॥ १२ ॥ श्रीपराशर उवाच
इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं बद्धमौनास्ततो वनम् । ययुर्गोपा महाभाग तस्मिन्प्रणयकोपिनि ॥ १३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे महाभाग ! श्रीहरिके प्रणयकोपयुक्त होकर कहे हुए इन वाक्योंको सुनकर वे समस्त गोपगण चुपचाप वनको चले गये ॥ १३ ॥ कृष्णस्तु विमलं व्योम शरच्चन्द्रस्य चन्द्रिकाम् ।
तदा कुमुदिनीं फुल्लामामोदितदिगन्तराम् ॥ १४ ॥ वनराजीं तथा कूजद्भृङ्गमालामनोहराम् । विलोक्य सह गोपीभिर्मनश्चक्रे रतिं प्रति ॥ १५ ॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रने निर्मल आकाश, शरच्चन्द्रकी चन्द्रिका और दिशाओंको सुरभित करनेवाली विकसित कुमुदिनी तथा वन-खण्डीको मुखर मधुकरोंसे मनोहर देखकर गोपियोंके साथ रमण करनेकी इच्छा की ॥ १४-१५ ॥ विना रामेण मधुरमतीव वनिताप्रियम् ।
जगौ कलपदं शौरिस्तारमन्द्रकृतक्रमम् ॥ १६ ॥ उस समय बलरामजीके बिना ही श्रीमुरलीमनोहर स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाला अत्यन्त मधुर, अस्फुट एवं मृदुल पद ऊँचे और धीमे स्वरसे गाने लगे ॥ १६ ॥ रम्यं गीतध्वनिं श्रुत्वा सन्त्यज्यावसथांस्तदा ।
आजग्मुस्त्वरिता गोप्यो यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ १७ ॥ उनकी उस सुरम्य गीतध्वनिको सुनकर गोपियाँ अपने-अपने घरोंको छोड़कर तत्काल जहाँ श्रीमधुसूदन थे वहाँ चली आर्यां ॥ १७ ॥ शनैः शनैर्जगौ गोपी काचित्तस्य लयानुगम् ।
दत्तावधाना काचिच्च तमेव मनसास्मरत् ॥ १८ ॥ वहाँ आकर कोई गोपी तो उनके स्वर में स्वर मिलाकर धीरे-धीरे गाने लगी और कोई मन-ही-मन उन्हींका स्मरण करने लगी ॥ १८ ॥ काचित्कृष्णेति कृष्णेति प्रोक्त्वा लज्जामुपाययौ ।
ययौ च काचित्प्रेमान्धा तत्पार्श्वमविलम्बितम् ॥ १९ ॥ कोई 'हे कृष्ण, हे कृष्ण' ऐसा कहती हुई लज्जावश संकुचित हो गयी और कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरन्त उनके पास जा खड़ी हुई ॥ १९ ॥ काचिच्चावसथस्यान्ते स्थित्वा दृष्ट्वा बहिर्गुरुम् ।
तन्मयत्वेन गोविन्दं दध्यौ मीलितलोचना ॥ २० ॥ कोई गोपी बाहर गुरुजनोंको देखकर अपने घरमें ही रहकर आँख मूंदकर तन्मयभावसे श्रीगोविन्दका ध्यान करने लगी ॥ २० ॥ तच्चित्तविमलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा ।
तदप्राप्तिमहादुःखविलीनाशेषपातका ॥ २१ ॥ चिन्तयती जगत्सूतिं परब्रह्मस्वरूपिणम् । निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका ॥ २२ ॥ तथा कोई गोपकुमारी जगत्के कारण परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रका चिन्तन करतेकरते [मच्छविस्थामें] प्राणापानके रुक जानेसे मक्त हो गयी, क्योंकि भगवड्यानके विमल आहादसे उसकी समस्त पुण्यराशि क्षीण हो गयी और भगवान्की अप्राप्तिके महान् दुःखसे उसके समस्त पाप लीन हो गये थे ॥ २१-२२ ॥ गोपीपरिवृतो रात्रिं शरच्चन्द्रमनोरमाम् ।
मानयामास गोविन्दो रासारम्भरसोत्सुकः ॥ २३ ॥ गोपियोंसे घिरे हुए रासारम्भरूप रसके लिये उत्कण्ठित श्रीगोविन्दने उस शरच्चन्द्रसुशोभिता रात्रिको [रास करके] सम्मानित किया ॥ २३ ॥ गोप्यश्च वृन्दशः कृष्णचेष्टास्वायत्तमूर्तयः ।
अन्यदेशं गते कृष्णे चेरुर्वृन्दावनान्तरम् ॥ २४ ॥ उस समय भगवान् कृष्णके अन्यत्र चले जानेपर कृष्णचेष्टाके अधीन हुई गोपियाँ यूथ बनाकर वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं ॥ २४ ॥ कृष्णे निबद्धहृदया इदमूचुः परस्परम् ॥ २५ ॥
कृष्णोऽहमेष ललितं व्रजाम्यालोक्यतां गतिः । अन्या ब्रवीन्ति कृष्णस्य मम गीतिर्निशम्यताम् ॥ २६ ॥ कृष्णमें निबद्धचित्त हुई वे व्रजांगनाएँ परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगी-[उसमेंसे एक गोपी कहती थी-] "मैं ही कृष्ण हूँ; देखो, कैसी सुन्दर चालसे चलता हूँ: तनिक मेरी गति तो देखो । " दूसरी कहती-"कृष्ण तो मैं हूँ , अहा ! मेरा गाना तो सुनो" ॥ २५-२६ ॥ दुष्टकालिय तिष्ठात्र कृष्णोहमिति चापरा ।
बाहुमास्फोट्य कृष्णस्य लीलया सर्वमाददे ॥ २७ ॥ कोई अन्य गोपी भुजाएँ ठोककर बोल उठती-"अरे दुष्ट कालिय ! मैं कृष्ण हूँ, तनिक ठहर तो जा" ऐसा कहकर वह कृष्णके सारे चरित्रोंका लीलापूर्वक अनुकरण करने लगती ॥ २७ ॥ अन्या ब्रवीति भो गोपा निःशङ्कैः स्थीयतामिति ।
अलं वृष्टिभयेनात्र धृतो गोवर्धनो मया ॥ २८ ॥ कोई और गोपी कहने लगती-"अरे गोपगण ! मैंने गोवर्धन धारण कर लिया है, तुम वर्षासे मत डरो, निश्शंक होकर इसके नीचे आकर बैठ जाओ" ॥ २८ ॥ धेनुकोऽयं मयाक्षिप्तो विचरन्तु यथेच्छया ।
गावो ब्रवीति चैवान्या कृष्णलीलानुसारिणी ॥ २९ ॥ कोई दूसरी गोपी कृष्णलीलाओंका अनुकरण करती हुई बोलने लगती-"मैंने धेनुकासुरको मार दिया है, अब यहाँ गौएँ स्वच्छन्द होकर विचरें" ॥ २९ ॥ एवं नानाप्रकारासु कृष्णचेष्टासु तास्तदा ।
गोप्यो व्यग्राःसमं चेरू रम्यं वृन्दावनान्तरम् ॥ ३० ॥ इस प्रकार समस्त गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्रकी नाना व्यग्र होकर साथ-साथ अति सुरम्य वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं ॥ ३० ॥ विलोक्यैका भुवं प्राह गोपी गोपवराङ्गना ।
पुलकाञ्चितसर्वाङ्गी विकासिनयनोत्पला ॥ ३१ ॥ खिले हुए कप्रकारकी चेष्टाओंमेंमलजैसे नेत्रोंवाली एक सुन्दरी गोपांगना सांग पुलकित हो पृथिवीकी ओर देखकर कहने लगी- ॥ ३१ ॥ ध्वजवज्राङ्कुशाब्जाङ्करेखावन्त्यालि पश्यत ।
पदान्येतानि कृष्णस्य लीलाललितगामिनः ॥ ३२ ॥ अरी आली ! ये लीलाललितगामी कृष्णचन्द्रके ध्वजा, वन, अंकुश और कमल आदिको रेखाओंसे सुशोभित पदचिह्न तो देखो ॥ ३२ ॥ कापि तेन समायाता कृतपुण्या मदालसा ।
पदानि तस्याश्चैतानि घनान्यल्पतनूनि च ॥ ३३ ॥ और देखो, उनके साथ कोई पुण्यवती मदमाती युवती भी आ गयी है, उसके ये घने छोटे-छोटे और पतले चरणचिह्न दिखायी दे रहे हैं ॥ ३३ ॥ पुष्पापचयमत्रोच्चैश्चक्रे दामोदरो ध्रुवम् ।
येनाग्राक्रान्तमात्राणि पदान्यत्र महात्मनः ॥ ३४ ॥ यहाँ निश्चय ही दामोदरने ऊँचे होकर पुष्पचयन किये हैं; इसी कारण यहाँ उन महात्माके चरणोंके केवल अग्रभाग ही अंकित हुए हैं ॥ ३४ ॥ अत्रोपविश्य वै तेन काचित्पुष्पैरलङ्कृता ।
अन्यजन्मनि सर्वात्मा विष्णुरभ्यर्चितस्तया ॥ ३५ ॥ यहाँ बैठकर उन्होंने निश्चय ही किसी बड़भागिनीका पुष्पोंसे शृंगार किया है; अवश्य ही उसने अपने पूर्वजन्ममें सर्वात्मा श्रीविष्णुभगवान्की उपासना की होगी ॥ ३५ ॥ पुष्पबन्धनसंमानकृतमानामपास्य ताम् ।
नन्दगोपसुतो यातो मार्गेणानेन पश्यत ॥ ३६ ॥ और यह देखो, पुष्पबन्धनके सम्मानसे गर्विता होकर उसके मान करनेपर श्रीनन्दनन्दन उसे छोड़कर इस मार्गसे चले गये हैं ॥ ३६ ॥ अनुयातैनमत्रान्या नितम्बभरमन्थरा ।
या गन्तव्ये द्रुतं याति निम्नपादाग्रसंस्थितिः ॥ ३७ ॥ अरी सखियो ! देखो,यहाँ कोई नितम्बभारके कारण मन्दगामिनी गोपी कृष्णचन्द्रके पीछे-पीछे गयी है । वह अपने गन्तव्य स्थानको तीव्रगतिसे गयी है, इसीसे उसके चरणचिह्नोंके अग्रभाग कुछ नीचे दिखायी देते हैं ॥ ३७ ॥ हस्तन्यस्ताग्रहस्तेयं तेन याति तथा सखी ।
अनायत्तपदन्यासा लक्ष्यते पदपद्धतिः ॥ ३८ ॥ यहाँ वह सखी उनके हाथमें अपना पाणिपल्लव देकर चली है, इसीसे उसके चरणचित पराधीन-से दिखलायी देते हैं ॥ ३८ ॥ हस्तसंस्पर्शमात्रेण धूर्तेनैषा विमानिता ।
नैराश्यान्मन्दगामिन्या निवृत्तं लक्ष्यते पदम् ॥ ३९ ॥ देखो, यहाँसे उस मन्दगामिनीके निराश होकर लौटनेके चरणचिल्ल दीख रहे हैं, मालूम होता है उस धूर्तने [उसकी अन्य आन्तरिक अभिलाषाओंको पूर्ण किये बिना ही] केवल कर-स्पर्श करके उसका अपमान किया है ॥ ३९ ॥ नूनमुक्ता त्वरामीति पुनरेष्यामि तेऽन्तिकम् ।
तेन कृष्णेन येनैषा त्वरिता पदपद्धतिः ॥ ४० ॥ यहाँ कृष्णने अवश्य उस गोपीसे कहा है [तू यहीं बैठ] मैं शीघ्र ही जाता हूँ [इस वनमें रहनेवाले राक्षसको मारकर] पुनः तेरे पास लौट आऊँगा । इसीलिये यहाँ उनके चरणोंके चिस्त शीघ्र गतिकेसे दीख रहे हैं' ॥ ४० ॥ प्रविष्टो गहनं कृष्णः पदमत्र न लक्ष्यते ।
निवर्तध्वं शशाङ्कस्य नैतद्दीधितिगोचरे ॥ ४१ ॥ यहाँसे कृष्णचन्द्र गहन वनमें चले गये हैं, इसीसे उनके चरण-चिह्न दिखलायी नहीं देते; अब सब लौट चलो; इस स्थानपर चन्द्रमाकी किरणें नहीं पहुँच सकती ॥ ४१ ॥ निवृत्तास्तास्तदा गोप्यो निराशाः कृष्णदर्शने ।
यमुनातीरमासाद्य जगुस्तच्चरितं तथा ॥ ४२ ॥ तदनन्तर वे गोपियाँ कृष्ण-दर्शनसे निराश होकर लौट आयीं और यमुनातटपर आकर उनके चरितोंको गाने लगीं ॥ ४२ ॥ ततो ददृशुरायान्तं विकासिमुखपङ्कजम् ।
गोप्यस्त्रैलोक्यगोप्तारं कृष्णमक्लिष्टचेष्टितम् ॥ ४३ ॥ तब गोपियोंने प्रसन्नमुखारविन्द त्रिभुवनरक्षक लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको वहाँ आते देखा ॥ ४३ ॥ काचिदालोक्य गोविन्दमायान्तमतिहर्षिता ।
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति प्राह नान्यदुदीरयत् ॥ ४४ ॥ उस समय कोई गोपी तो श्रीगोविन्दको आते देखकर अति हर्षित हो केवल 'कृष्ण ! कृष्ण ! ! कृष्ण ! ! !' इतना ही कहती रह गयी और कुछ न बोल सकी ॥ ४४ ॥ काचिद्भ्रूभङ्गुरं कृत्वा ललाटफलकं हरिम् ।
विलोक्य नेत्रभृङ्गाभ्यां पपौ तन्मुखपङ्कजम् ॥ ४५ ॥ कोई [प्रणयकोपवश] अपनी भ्रूभंगीसे ललाट सिकोड़कर श्रीहरिको देखते हुए अपने नेत्ररूप भ्रमरोंद्वारा उनके मुखकमलका मकरन्द पान करने लगी ॥ ४५ ॥ काचिदालोक्य गोविन्दं निमीलितविलोचना ।
तस्यैव रूपं ध्यायन्ती योगारूढेव सा बभौ ॥ ४६ ॥ कोई गोपी गोविन्दको देख नेत्र मूंदकर उन्हींके रूपका ध्यान करती हुई योगारूह-सी भासित होने लगी ॥ ४६ ॥ ततः काञ्चित्प्रियालापैः काञ्चिद् भ्रूभङ्गवीक्षितैः ।
निन्येऽनुनयमन्यां च करस्पर्शेन माधवः ॥ ४७ ॥ तब श्रीमाधव किसीसे प्रिय भाषण करके, किसीकी ओर भूभंगीसे देखकर और किसीका हाथ पकड़कर उन्हें मनाने लगे ॥ ४७ ॥ ताभिः प्रसन्नचित्ताभिर्गोपीभिः सह सादरम् ।
ररास रासगोष्ठीभिरुदारचरितो हरिः ॥ ४८ ॥ फिर उदारचरित श्रीहरिने उन प्रसन्नचित्त गोपियोंके साथ रासमण्डल बनाकर आदरपूर्वक रमण किया । ॥ ४८ ॥ रासमण्डलबन्धोऽपि कृष्णपार्श्वमनुज्झता ।
गोपीजनेन नैवाभूदेकस्थानस्थिरात्मना ॥ ४९ ॥ किन्तु उस समय कोई भी गोपी कृष्णचन्द्रकी सन्निधिको न छोड़ना चाहती थी; इसलिये एक ही स्थानपर स्थिर रहनेके कारण रासोचित मण्डल न बन सका ॥ ४९ ॥ हस्तेन गृह्य चैकैकां गोपीनां रासमण्डले ।
चकार तत्करस्पर्शनिमीलितदृशं हरिः ॥ ५० ॥ तब उन गोपियोंमेंसे एक-एकका हाथ पकड़कर श्रीहरिने रासमण्डलकी रचना की । उस समय उनके करस्पर्शसे प्रत्येक गोपीकी आँखें आनन्दसे मुंद जाती थीं ॥ ५० ॥ ततः प्रववृते रासश्चलद्वलयनिस्वनः ।
अनुयातशरत्काव्यगोयगीतिरनुक्रमात् ॥ ५१ ॥ तदनन्तर रासक्रीडा आरम्भ हुई । उसमें गोपियोंके चंचल कंकणोंकी झनकार होने लगी और फिर क्रमशः शरद्वर्णन-सम्बन्धी गीत होने लगे ॥ ५१ ॥ कृष्णः शरच्चन्द्रमसं कौमुदीं कुमुदाकरम् ।
जगौ गोपीजनस्त्वेकं कृष्णनाम पुनः पुनः ॥ ५२ ॥ उस समय कृष्णचन्द्र चन्द्रमा, चन्द्रिका और कुमुदवन-सम्बन्धी गान करने लगे; किन्तु गोपियोंने तो बारम्बार केवल कृष्णनामका ही गान किया ॥ ५२ ॥ परिवृत्तिश्रमेणैका चलद्वलयलापिनीम् ।
ददौ बाहुलतां स्कन्धे गोपी मधुनिघातिनः ॥ ५३ ॥ फिर एक गोपीने नृत्य करते-करते थककर चंचल कंकणकी झनकारसे युक्त अपनी बाहुलता श्रीमधुसूदनके गले में डाल दी ॥ ५३ ॥ काचित्प्रविलसद्बाहुं परिरभ्य चुचुम्ब तम् ।
गोपीगीतस्तुतिव्याजान्निपुणा मधुसूदनम् ॥ ५४ ॥ किसी निपुण गोपीने भगवान के गानको प्रशंसा करनेके बहाने भुजा फैलाकर श्रीमधुसूदनको आलिंगन करके चूम लिया ॥ ५४ ॥ गोपीकपोलसंश्लेषमभिगम्य हरेर्भुजौ ।
पुलकोद्गमसस्याय स्वेदाम्बुघनतां गतौ ॥ ५५ ॥ श्रीहरिकी भुजाएँ गोपियोंके कपोलोंका चुम्बन पाकर उन (कपोलों) में पुलकावलिरूप धान्यकी उत्पत्तिके लिये स्वेदरूप जलके मेघ बन गयीं ॥ ५५ ॥ रासगेयं जगौ कृष्णो यावत्तारतरध्वनिः ।
साधु कृष्णेति कृष्णेति तावत्ता द्विगुणं जगुः ॥ ५६ ॥ कृष्णचन्द्र जितने उच्चस्वरसे रासोचित गान गाते थे उससे दूने शब्दसे गोपियाँ "धन्य कृष्ण ! धन्य कृष्ण ! !" की ही ध्वनि लगा रही थीं ॥ ५६ ॥ गतेनुगमनं चक्रुर्वलनं संमुखं ययुः ।
प्रतिलोमानुलोमाभ्यां भेजुर्गौपाङ्गना हरिम् ॥ ५७ ॥ भगवान्के आगे जानेपर गोपियाँ उनके पीछे जाती और लौटनेपर सामने चलतीं, इस प्रकार वे अनुलोम और प्रतिलोमगतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं ॥ ५७ ॥ स तथा सह गोपीभी ररास मधुसूदनः ।
यथाब्दकोटिप्रतिमः क्षणस्तेन विनाभवत् ॥ ५८ ॥ श्रीमधुसूदन भी गोपियोंके साथ इस प्रकार रासक्रीडा कर रहे थे कि उनके बिना एक क्षण भी गोपियोंको करोड़ों वर्षोंके समान बीतता था ॥ ५८ ॥ ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिर्भ्रातृभिस्तथा ।
कृष्णं गोपाङ्गना रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः ॥ ५९ ॥ वे रास-रसिक गोपांगनाएँ पति, माता-पिता और भ्राता आदिके रोकनेपर भी रात्रिमें श्रीश्यामसुन्दरके साथ विहार करती थीं ॥ ५९ ॥ सोऽपि कैशोरकवयो मानयन्मधुसूदनः ।
रेमे ताभिरमेयात्मा क्षपासु क्षपिताहितः ॥ ६० ॥ शत्रुहन्ता अमेयात्मा श्रीमधुसूदन भी अपनी किशोरावस्थाका मान करते हुए रात्रिके समय उनके साथ रमण करते थे ॥ ६० ॥ तद्भर्तृषु तथा तासु सर्वभूतेषु चेश्वरः ।
आत्मस्वरूपरूपोऽसौ व्यापी वायुरिव स्थितः ॥ ६१ ॥ वे सर्वव्यापी ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंमें, उनके पतियोंमें तथा समस्त प्राणियों में आत्मस्वरूपसे वायुके समान व्याप्त थे ॥ ६१ ॥ यथा समस्तभूतेषु नभोऽग्निः पृथिवी जलम् ।
वायुश्चात्मा तथैवासौ व्याप्य सर्वमवस्थितः ॥ ६२ ॥ जिस प्रकार आकाश, अग्नि, पृथिवी, जल, वायु और आत्मा समस्त प्राणियों में व्याप्त हैं उसी प्रकार वे भी सब पदार्थोमें व्यापक हैं ॥ ६२ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयोदशोध्यायः (१३)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ |