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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
प्रदोषाग्रो कदाचित्तु रासासक्ते जनार्दने । त्रासयन्समदो गोष्ठमरिष्टस्समुपागमत् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-एक दिन सायंकालके समय जब श्रीकृष्णचन्द्र रासक्रीडामें आसक्त थे, अरिष्ट नामक एक मदोन्मत्त असुर [वृषभरूप धारणकर] सबको भयभीत करता व्रजमें आया ॥ १ ॥ स तोयतोयदच्छायस्तीक्ष्णशृङ्गोऽर्कलोचनः ।
खुराग्रपातैरत्यर्थं दारयन्धरणीतलम् ॥ २ ॥ इस अरिष्टासुरको कान्ति सजल जलधरके समान कृष्णवर्ण थी, सींग अत्यन्त तीक्ष्ण थे, नेत्र सूर्यके समान तेजस्वी थे और अपने खुरोंकी चोटसे वह मानो पृथिवीको फाड़े डालता था ॥ २ ॥ लेलिहानः सनिष्पेषं जिह्वयोष्ठौ पुनः पुनः ।
संरम्भाविद्धलाङ्गूलः कठिनस्कन्धबन्धनः ॥ ३ ॥ वह दाँत पीसता हुआ पुनः पुनः अपनी जिझसे ओठोंको चाट रहा था, उसने क्रोधवश अपनी पूँछ उठा रखी थी तथा उसके स्कन्धबन्धन कठोर थे ॥ ३ ॥ उदग्रककुदाभोगप्रमाणो दुरतिक्रमः ।
विण्मूत्रलिप्तपृष्ठाङ्गो गवामुद्वेगकारकः ॥ ४ ॥ उसके ककुद (कुहान) और शरीरका प्रमाण अत्यन्त ऊँचा एवं दुर्लभ्य था, पृष्ठभाग गोबर और मूत्रसे लिधड़ा हुआ था । तथा वह समस्त गौओंको भयभीत कर रहा था ॥ ४ ॥ प्रलम्बकण्ठोऽतिमुखस्तरुखाताङ्किताननः ।
पातयन्स गावं गर्भन्दैत्यो वृषभरूपधृक् ॥ ५ ॥ सूदयंस्तापसानुग्रो वनानटति यःसदा ॥ ६ ॥ उसकी ग्रीवा अत्यन्त लम्बी और मुख वृक्षके खोखलेके समान अति गम्भीर था । वह वृषभरूपधारी दैत्य गौओंके गर्भीको गिराता हुआ और तपस्वियोंको मारता हुआ सदा वनमें विचरा करता था ॥ ५-६ ॥ ततस्तमतिघोराक्षमवेक्ष्यातिभयातुराः ।
गोपा गोपस्त्रियश्चैव कृष्ण कृष्णेति चुक्रुशुः ॥ ७ ॥ तब उस अति भयानक नेत्रोंवाले दैत्यको देखकर गोप और गोपांगनाएँ भयभीत होकर कृष्ण, कृष्ण' पुकारने लगी ॥ ७ ॥ सिंहनादं ततश्चक्रे तलशब्दं च केशवः ।
तच्छब्द श्रवणाच्चासौ दामोदरमुपाययौ ॥ ८ ॥ उनका शब्द सुनकर श्रीकेशवने घोर सिंहनाद किया और ताली बजायी । उसे सुनते ही वह श्रीदामोदरकी ओर फिरा ॥ ८ ॥ अग्रन्यस्तविषाणाग्रः कृष्णकुक्षिकृतेक्षणः ।
अभ्यधावत दुष्टात्मा कृष्णं वृषभदानवः ॥ ९ ॥ दुरात्मा वृषभासुर आगेको साँग करके तथा कृष्णचन्द्रकी कुक्षिमें दृष्टि लगाकर उनकी ओर दौड़ा ॥ ९ ॥ आयान्तं दैत्यवृषभं दृष्ट्वा कृष्णो महाबलः ।
न चचाल तदा स्थानादवज्ञास्मितलीलया ॥ १० ॥ किन्तु महाबली कृष्ण वृषभासुरको अपनी ओर आता देख अवहेलनासे लीलापूर्वक मुसकराते हुए उस स्थानसे विचलित न हुए ॥ १० ॥ आसन्नं चैव जग्राह ग्राहवन्मधुसूदनः ।
जघान जानुना कुक्षौ विषाणग्रहणाचलम् ॥ ११ ॥ निकट आनेपर श्रीमधुसूदनने उसे इस प्रकार पकड़ लिया जैसे ग्राह किसी क्षुद्र जीवको पकड़ लेता है; तथा सौंग पकड़नेसे अचल हुए उस दैत्यकी कोख में घुटनेसे प्रहार किया ॥ ११ ॥ तस्य दर्पबलं भङ्क्त्वा गृहीतस्य विषाणयोः ।
अपीडयदरिष्टस्य कण्ठं क्लिन्नमिवाम्बरम् ॥ १२ ॥ इस प्रकार सींग पकड़े हुए उस दैत्यका दर्प भंगकर भगवान्ने अरिष्टासुरकी ग्रीवाको गीले वस्त्रके समान मरोड़ दिया ॥ १२ ॥ उत्पाट्य शृङ्गमेकं तु तेनैवाताडयत्ततः ।
ममार स महादैत्यौ मुखाच्छोणितमुद्वमन् ॥ १३ ॥ तदनन्तर उसका एक सींग उखाड़कर उसीसे उसपर आघात किया, जिससे वह महादैत्य मुखसे रक्त वमन करता हुआ मर गया ॥ १३ ॥ तुष्टुवुर्निहते तस्मिन् दैत्ये गोपा जनार्दनम् ।
जम्भे हते सहस्राक्षं पुरा देवगणा यथा ॥ १४ ॥ जम्भके मरनेपर जैसे देवताओंने इन्द्रकी स्तुति की थी उसी प्रकार अरिष्टासुरके मरनेपर गोपगण श्रीजनार्दनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १४ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्दशोध्यायः (१४)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ |