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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
ककुद्मति हतेऽरिष्टे धेनुके विनिपातिते । प्रलम्बे निधनं नीते धृते गोवर्धनाचले ॥ १ ॥ दमिते कालिये नागे भग्नेतुङ्गद्रुमद्वये । हतायां पूतनायां च शकटे परिवर्तिते ॥ २ ॥ कंसाय नारदः प्राह यथावृत्तमनुक्रमात् । यशोदादेवकीगर्भपरिवृत्ताद्यशेषतः ॥ ३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-वृषभरूपधारी अरिष्टासुर, धेनुक और प्रलम्ब आदिका वध, गोवर्धनपर्वतका धारण करना, कालियनागका दमन, दो विशाल वृक्षोंका उखाड़ना, पूतनावध तथा शकटका उलट देना आदि अनेक लीलाएँ हो जानेपर एक दिन नारदजीने कंसको, यशोदा और देवकीके गर्भपरिवर्तनसे लेकर जैसा-जैसा हुआ था, वह सब वृत्तान्त क्रमशः सुना दिया ॥ १-३ ॥ श्रुत्वा तत्सकलं कंसो नारदाद्देवदर्शनात् ।
वसुदेवं प्रति तदा कोपं चक्रे सुदुर्मतिः ॥ ४ ॥ देवदर्शन नारदजीसे ये सब बातें सुनकर दुर्बुद्धि कंसने वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त क्रोध प्रकट किया ॥ ४ ॥ सोतिकोपादुपालभ्य सर्वयादवसंसदि ।
जगर्ज यादवांश्चैव कार्यं चैतदचिन्तयत् ॥ ५ ॥ यावन्न बलमारूढौ रामकृष्णौ सुबालकौ । तावदेव मया वध्यावसाध्यौ रूढयौवनौ ॥ ६ ॥ उसने अत्यन्त कोपसे वसुदेवजीको सम्पूर्ण यादवोंकी सभामें डाँटा तथा समस्त यादवोंकी भी निन्दा की और यह कार्य विचारने लगा-'ये अत्यन्त बालक राम और कृष्ण जबतक पूर्ण बल प्राप्त नहीं करते हैं तभीतक मुझे इन्हें मार देना चाहिये; क्योंकि युवावस्था प्राप्त होनेपर तो ये अजेय हो जायेंगे ॥ ५-६ ॥ चाणूरोऽत्र महावीर्यो मुष्टिकश्च महाबलः ।
एताभ्यां मल्लयुद्धेन मारयिष्यामि दुर्मती ॥ ७ ॥ मेरे यहाँ महावीर्यशाली चाणूर और महाबली मुष्टिक-जैसे मल्ल हैं । मैं इनके साथ मल्लयुद्ध कराकर उन दोनों दुर्बुद्धियोंको मरवा डालूँगा ॥ ७ ॥ धनुर्महमहायोगव्याजेनानीय तौ व्रजात् ।
तथा तथा यतिष्यामि यास्येते संक्षयं यथा ॥ ८ ॥ उन्हें महान् धनुर्यज्ञके मिससे व्रजसे बुलाकर ऐसे-ऐसे उपाय करूँगा, जिससे वे नष्ट हो जाय ॥ ८ ॥ श्वफल्कतनयं शूरमक्रूरं यदुपुङ्गवम् ।
तयोरानयनार्थाय प्रेषयिष्यामि गोकुलम् ॥ ९ ॥ उन्हें लानेके लिये मैं श्वफल्कके पुत्र यादवश्रेष्ठ शूरवीर अकूरको गोकुल भेजूंगा ॥ ९ ॥ वृन्दावनचरं घोरमादेक्ष्यामि च केशिनम् ।
तत्रैवासावतिबलस्तावुभौ घातयिष्यति ॥ १० ॥ साथ ही वृन्दावनमें विचरनेवाले घोर असुर केशीको भी आज्ञा दूँगा, जिससे वह महाबली दैत्य उन्हें वहीं नष्ट कर देगा ॥ १० ॥ गजः कुवलायापीडो मत्सकाशमिहागतौ ।
घातयिष्यति वा गोपौ वसुदेवसुतावुभौ ॥ ११ ॥ अथवा [यदि किसी प्रकार बचकर] वे दोनों वसुदेवपुत्र गोप मेरे पास आ भी गये तो उन्हें मेरा कुवलयापीड हाथी मार डालेगा ॥ ११ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्यालोच्य स दुष्टात्मा कंसो रामजनार्दनौ । हन्तुं कृतम् अर्तिवीरावक्रूरं वाक्यमवृब्रवीत् ॥ १२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा सोचकर उस दुष्टात्मा कंसने वीरवर राम और कृष्णको मारनेका निश्चय कर अक्रूरजीसे कहा ॥ १२ ॥ कंस उवाच
भो भो दानपते वाक्यं क्रियतां प्रीतये मम । इतः स्यन्दनमारुह्य गम्यतां नन्दगोकुलम् ॥ १३ ॥ कंस बोला-हे दानपते ! मेरी प्रसन्नताके लिये आप मेरी एक बात स्वीकार कर लीजिये । यहाँसे रथपर चढ़कर आप नन्दके गोकुलको जाइये ॥ १३ ॥ वसुदेवसुतौ तत्र विष्णोरंशसमुद्भवौ ।
नाशाय किल सम्भूतौ मम दुष्टौ प्रवर्धतः ॥ १४ ॥ वहाँ बसदेवके विष्णुअंशसे उत्पन्न दो पुत्र हैं । मेरे नाशके लिये उत्पन्न हुए वे दुष्ट बालक वहाँ पोषित हो रहे हैं ॥ १४ ॥ धनुर्महो ममाप्यत्र चतुर्दश्यां भविष्यति ।
आनेयौ भवता गत्वा मल्लयुद्धाय तत्र तौ ॥ १५ ॥ मेरे यहाँ चतुर्दशीको धनुषयज्ञ होनेवाला है; अतः आप वहाँ जाकर उन्हें मल्लयुद्धके लिये ले आइये ॥ १५ ॥ चाणूरमुष्टिकौ मल्लौ नियुद्धकुशलौ मम ।
ताभ्यां सहानयोर्युद्धं सर्वलोकोऽत्र पश्यतु ॥ १६ ॥ मेरे चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल युग्म युद्ध में अति कुशल हैं, [उस धनुर्यज्ञके दिन] उन दोनोंके साथ मेरे इन पहलवानोंका द्वन्द्वयुद्ध यहाँ सब लोग देखें ॥ १६ ॥ गजः कुवलयापीडो महामात्रप्रचोदितः ।
स वा हनिष्यते पापौ वसुदेवात्मजौ शिशु ॥ १७ ॥ अथवा महावतसे प्रेरित हुआ कुवलयापीड नामक गजराज उन दोनों दुष्ट वसुदेवपुत्र बालकोंको नष्ट कर देगा ॥ १७ ॥ तौ हत्वा वसुदेवं च नन्दगोपं च दुर्मतिम् ।
हनिष्ये पितरं चैनमुग्रसेनं सुदुर्मतिम् ॥ १८ ॥ इस प्रकार उन्हें मारकर मैं दुर्मति वसुदेव, नन्दगोप और इस अपने मन्दमति पिता उग्रसेनको भी मार डालूँगा ॥ १८ ॥ ततःसमस्तगोपानां गोधनान्यखिलान्यहम् ।
वित्तं चापहरिष्यामि दुष्टानां मद्वधैषिणाम् ॥ १९ ॥ तदनन्तर, मेरे वधकी इच्छावाले इन समस्त दुष्ट गोपोंके सम्पूर्ण गोधन तथा धनको मैं छीन लँगा ॥ १९ ॥ त्वामृते यादवाश्चैते द्विषो दानपते मम ।
एतेषां च वधायाहं यतिष्येऽनुक्रमात्ततः ॥ २० ॥ हे दानपते ! आपके अतिरिक्त ये सभी यादवगण मुझसे द्वेष करते हैं, अत: मैं क्रमशः इन सभीको नष्ट करनेका प्रयत्न करूँगा ॥ २० ॥ तदा निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम् ।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीर गम्यताम् ॥ २१ ॥ फिर मैं आपके साथ मिलकर इस यादवहीन राज्यको निर्विघ्नतापूर्वक भोगूंगा, अतः हे वीर ! मेरी प्रसन्नताके लिये आप शीघ्र ही जाइये ॥ २१ ॥ यथा च माहिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै ।
गोपाःसमानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते ॥ २२ ॥ आप गोकुलमें पहुंचकर गोपगणोंसे इस प्रकार कहें जिससे वे माहिष्य (भैसके) घृत और दधि आदि उपहारोंके सहित शीघ्र ही यहाँ आ जायें ॥ २२ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्याज्ञप्तस्तदाक्रूरो महाभागवतो द्वज । प्रीतिमानभवत्कृष्णं श्वोद्रक्ष्यामीति सत्वरः ॥ २३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! कंससे ऐसी आज्ञा पा महाभागवत अक्रूरजी 'कल मैं शीघ्र ही श्रीकृष्णचन्द्रको देखेंगा'-यह सोचकर अति प्रसन्न हुए ॥ २३ ॥ तथेत्युक्त्वा च राजानं रथमारुह्य शोभनम् ।
निश्चक्राम ततः पुर्या मथुराया मधुप्रियः ॥ २४ ॥ माधवप्रिय अकरजी राजा कंससे 'जो आज्ञा' कह एक अतिसुन्दर रथपर चढ़े और मथुरापुरीसे बाहर निकल आये ॥ २४ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः (१५)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ |