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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ षोडशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
केशी चापि बलोदग्रः कंसदूतः प्रचोदितः ।
कृष्णस्य निधनाकाङ्‍क्षी वृन्दावनमुपागमत् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! इधर कसके दूतद्वारा भेजा हुआ महावली केशी भी कृष्णचन्द्रके वधकी इच्छासे [घोड़ेका रूप धारण कर] वृन्दावनमें आया ॥ १ ॥

स खुरक्षतभूपृष्ठः सटाक्षेपधुताम्बुदः ।
द्रुतविक्रान्तचन्द्रार्कमार्गो गोपानुपाद्रवत् ॥ २ ॥
वह अपने खुरोंसे पृथिवीतलको खोदता, ग्रीवाके बालोंसे बादलोंको छिन्न-भिन्न करता तथा वेगसे चन्द्रमा और सूर्यके मार्गको भी पार करता गोपोंकी ओर दौड़ा ॥ २ ॥

तस्य हेषितशब्देन गोपाला दैत्यवाजिनः ।
गोप्यश्च भयसंविग्ना गोविन्दं शरणं ययुः ॥ ३ ॥
उस अश्वरूप दैत्यके हिनहिनानेके शब्दसे भयभीत होकर समस्त गोप और गोपियाँ श्रीगोविन्दकी शरणमें आये ॥ ३ ॥

त्राहित्राहिति गोविन्दः श्रुत्वातेषां ततो वचः ।
सतोयजलदध्वानगम्भीरमिदमुक्तवान् ॥ ४ ॥
तब उनके त्राहि-त्राहि शब्दको सुनकर भगवान् कृष्णचन्द्र सजल मेघको गर्जनाके समान गम्भीर वाणीसे बोले- ॥ ४ ॥

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः ।
भवद्‌‍भिर्गोपजातीयैर्वीरवीर्यं विलोप्यते ॥ ५ ॥
"हे गोपालगण ! आपलोग केशी (केशधारी अश्व)-से न डरें, आप तो गोप-जातिके हैं, फिर इस प्रकार भयभीत होकर आप अपने वीरोचित पुरुषार्थका लोप क्यों करते हैं ? ॥ ५ ॥

किमनोनाल्पसारेण हेषिताटोपकारिणा ।
दैतेयबलवाह्येन वल्गता दुष्टवाजिना ॥ ६ ॥
यह अल्पवीर्य, हिनहिनानेसे आतंक फैलानेवाला और नाचनेवाला दुष्ट अश्व जिसपर राक्षसगण बलपूर्वक चढ़ा करते हैं, आपलोगोंका क्या बिगाड़ सकता है ?" ॥ ६ ॥

एह्येहि दुष्ट कृष्णोऽहं पूष्णस्त्विव पिनाकधृत् ।
पातयिष्यामि दशनान्वदनादखिलांस्तव ॥ ७ ॥
[इस प्रकार गोपोंको धैर्य बँधाकर वे केशीसे कहने लगे-] "अरे दुष्ट ! इधर आ, पिनाकधारी वीरभद्रने जिस प्रकार पूषाके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार मैं कृष्ण तेरे मुखसे सारे दाँत गिरा दूंगा" ॥ ७ ॥

इत्युक्त्वास्फोट्य गोविन्दः केशिनः संमुखं ययौ ।
विवृतास्यश्च सोऽप्येनं दैतेयाश्व उपाद्रवत् ॥ ८ ॥
ऐसा कहकर श्रीगोविन्द उछलकर केशीके सामने आये और वह अश्वरूपधारी दैत्य भी मुँह खोलकर उनकी ओर दौड़ा ॥ ८ ॥

बाहुमाभोगितं कृत्वा मखे तस्य जनार्दनः ।
प्रवेशयामास तदा केशिनो दुष्टवाजिनः ॥ ९ ॥
तब जनार्दनने अपनी बाँह फैलाकर उस अश्वरूपधारी दुष्ट दैत्यके मुखमें डाल दी ॥ ९ ॥

केशिनो वदनं तेन विशता कृष्णबाहुना ।
शातिता दशनाः पेतुः सिताभ्रावयवा इव ॥ १० ॥
केशीके मुखमें घुसी हुई भगवान् कृष्णकी बाहुसे टकराकर उसके समस्त दाँत शुभ्र मेघखण्डोंके समान टूटकर बाहर गिर पड़े ॥ १० ॥

कृष्णस्य ववृधे बाहुः केशिदेहगतो द्विज ।
विनाशाय यथा व्याधिरासम्भूतेरुपेक्षितः ॥ ११ ॥
हे द्विज ! उत्पत्तिके समयसे ही उपेक्षा की गयी व्याधि जिस प्रकार नाश करनेके लिये बढ़ने लगती है, उसी प्रकार केशीके देहमें प्रविष्ट हुई कृष्णचन्द्रकी भुजा बढ़ने लगी ॥ ११ ॥

विपाटितोष्ठो बहुलं सफेनं रुधिरं वमन् ।
सोक्षिणी विवृते चक्रे विशिष्टे मुक्तबन्धने ॥ १२ ॥
अन्तमें ओठोंके फट जानेसे वह फेनसहित रुधिर वमन करने लगा और उसकी आँखें स्नायुबन्धनके ढीले हो जानेसे फूट गयीं ॥ १२ ॥

जधान धरणीं पादैः शकृन्मूत्रं समुत्सृजन् ।
स्वेदार्द्रगात्रः शान्तश्च निर्यत्‍नः सोऽभवत्तदा ॥ १३ ॥
तब वह मल-मूत्र छोड़ता हुआ पृथिवीपर पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीनेसे भरकर ठण्डा पड़ गया और वह निश्चेष्ट हो गया ॥ १३ ॥

व्यादितास्यमहांरन्ध्रः सोऽसुरः कृष्णबाहुना ।
निपातितो द्विधा भूमौ वैद्युतेन यथा द्रुमः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजासे जिसके मुखका विशाल रन्ध्र फैलाया गया है वह महान् असुर मरकर वज्रपातसे गिरे हुए वृक्षके समान दो खण्ड होकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥ १४ ॥

द्विपादे पृष्ठपुच्छार्धे श्रवणैकाक्षिनासिके ।
केशिनस्ते द्विधाभूते शकले द्वे विरेजतुः ॥ १५ ॥
केशीके शरीरके वे दोनों खण्ड दो पाँच, आधी पीठ, आधी मूंछ तथा एक-एक कान-आँख और नासिकारन्ध्रके सहित सुशोभित हुए ॥ १५ ॥

हत्वा तु केशिनं कृष्णो गोपालैर्मुदितैर्वृतः ।
अनायस्ततनुः स्वस्थो हसंस्तत्रैव तस्थिवान् ॥ १६ ॥
इस प्रकार केशीको मारकर प्रसन्नचित्त ग्वालबालोंसे घिरे हुए श्रीकृष्णचन्द्र बिना श्रमके स्वस्थचित्तसे हँसते हुए वहीं खड़े रहे ॥ १६ ॥

ततो गोप्यश्च गोपाश्च हते केशिनि विस्मिताः ।
तुष्टुवुः पुण्डरीकाक्षमनुरागमनोरमम् ॥ १७ ॥
केशीके मारे जानेसे विस्मित हुए गोप और गोपियोंने अनुरागवश अत्यन्त मनोहर लगनेवाले कमलनयन श्रीश्यामसुन्दरकी स्तुति की ॥ १७ ॥

अथाहान्तर्हितो विप्र नारदो जलदे स्थितः ।
केशिनं निहतं दृष्ट्‍वा हर्षनिर्भरमानसः ॥ १८ ॥
हे विप्र ! उसे मरा देख मेघपटलमें छिपे हुए श्रीनारदजी हर्षितचित्तसे कहने लगे- ॥ १८ ॥

साधुसाधु जगन्नाथ लीलयैव यदच्युत ।
निहतोऽयं त्वया केशी क्लेशदस्त्रिदिवौकसाम् ॥ १९ ॥
"हे जगन्नाथ ! हे अच्युत ! ! आप धन्य हैं, धन्य हैं । अहा ! आपने देवताओंको दुःख देनेवाले इस केशीको लीलासे ही मार डाला ॥ १९ ॥

युद्धोत्सुकोहमत्यर्थं नरवाजिमहाहवम् ।
अभूतपूर्वमन्यत्र द्रष्टुं स्वर्गादिहागतः ॥ २० ॥
मैं मनुष्य और अश्वके इस पहले और कहीं न होनेवाले युद्धको देखनेके लिये ही अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वर्गसे यहाँ आया था ॥ २० ॥

कर्माण्यत्रावतारे ते कृतानि मधुसूदन ।
यानि तैर्विस्मितं चेतस्तोषमेतेन मे गतम् ॥ २१ ॥
हे मधुसूदन ! आपने अपने इस अवतारमें जो-जो कर्म किये हैं उनसे मेरा चित्त अत्यन्त विस्मित और सन्तुष्ट हो रहा है ॥ २१ ॥

तुरङ्‍गस्यास्य शक्रोपि कृष्ण देवाश्च बिभ्यति ।
धुतकेसारजालस्य ह्रेषतोऽभ्रावलोकिनः ॥ २२ ॥
हे कृष्ण ! जिस समय यह अश्व अपनी सटाओंको हिलाता और हींसता हुआ आकाशकी ओर देखता था तो इससे सम्पूर्ण देवगण और इन्द्र भी डर जाते थे ॥ २२ ॥

यस्मात्त्वयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन ।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि ॥ २३ ॥
हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशीको मारा है; इसलिये आप लोकमें केशव' नामसे विख्यात होंगे ॥ २३ ॥

स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि कंसयुद्धेऽधुना पुनः ।
परश्वोऽहं समेष्यामि त्वया केशिनिषूदन ॥ २४ ॥
हेकेशिनिषूदन ! आपका कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ । परसों कंसके साथ आपका युद्ध होनेके समय मैं फिर आऊँगा ॥ २४ ॥

उग्रसेनसुते कंसे सानुगे विनिपातिते ।
भारावतारकर्ता त्वं पृथिव्या पृथिवीधर ॥ २५ ॥
हे पृथिवीधर ! अनुगामियों सहित उग्रसेनके पुत्र कंसके मारे जानेपर आप पृथिवीका भार उतार देंगे ॥ २५ ॥

तत्रानेकप्रकाराणि युद्धानि पृथिवीक्षिताम् ।
द्रष्टव्यानि मया युष्मत्प्रणीतानि जनार्दन ॥ २६ ॥
हे जनार्दन ! उस समय मैं अनेक राजाओंके साथ आप आयुष्मान् पुरुषके किये हुए अनेक प्रकारके युद्ध देखुंगा ॥ २६ ॥

सोऽहं यास्यामि गोविन्द देवकार्यं महत्कृतम् ।
त्वयैव विदितं सर्वं स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
हे गोविन्द ! अब मैं जाना चाहता हूँ । आपने देवताओंका बहुत बड़ा कार्य किया है । आप सभी कुछ जानते हैं [मैं अधिक क्या कहूँ ?] आपका मंगल हो, मैं जाता हूँ" ॥ २७ ॥

नारदे तु गते कृष्णः सह गोपैः सभाजितः ।
विवेश गोकुलं गोपीनेत्रपानैकभाजनम् ॥ २८ ॥
तदनन्तर नारदजीके चले जानेपर गोपगणसे सम्मानित गोपियोंके नेत्रोंके एकमात्र दृश्य श्रीकृष्णचन्द्रने ग्वालबालोंके साथ गोकुलमें प्रवेश किया ॥ २८ ॥

इति श्रीविष्णुमाहपुराणे पञ्चमेंऽशे षोडशोऽध्यायः (१६)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे घोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

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