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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
अक्रूरोऽपि विनिष्क्रम्य स्यन्दनेनाशुगामिना । कृष्णसन्दर्शनाकाङ्क्षी प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-अक्रूरजी भी तुरंत ही मथुरापुरीसे निकलकर श्रीकृष्ण-दर्शनकी लालसासे एक शीघ्रगामी रथद्वारा नन्दजीके गोकुलको चले ॥ १ ॥ चिन्तयामास चाक्रूरो नास्ति धन्यतरो मया ।
योऽहमंशावतीर्णस्य मुखं द्रक्ष्यामि चक्रिणः ॥ २ ॥ अक्रूरजी सोचने लगे 'आज मुझ-जैसा बड़भागी और कोई नहीं है । क्योंकि अपने अंशसे अवतीर्ण चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान्का मुख मैं अपने नेत्रोंसे देखूगा ॥ २ ॥ अद्य मे सफलं जन्म सुप्रभाताभवन्निशा ।
यदुन्निद्राभपत्राक्षं विष्णोर्द्रक्ष्याम्यहं मुखम् ॥ ३ ॥ आज मेरा जन्म सफल हो गया; आजकी रात्रि [अवश्य] सुन्दर प्रभातवाली थी, जिससे कि मैं आज खिले हुए कमलके समान नेत्रवाले श्रीविष्णुभगवान्के मुखका दर्शन करूँगा ॥ ३ ॥ पापं हरति यत्पुंसां स्मृतं संकल्पनामयम् ।
तत्पुण्डरीकनयनं विष्णोर्द्रक्ष्याम्यहं मुखम् ॥ ४ ॥ प्रभुका जो संकल्पमय मुखारविन्द स्मरणमात्रसे पुरुषोंके पापोंको दूर कर देता है, आज मैं विष्णुभगवानके उसी कमलनयन मुखको देखेंगा ॥ ४ ॥ विनिर्जग्मुर्यतो वेदा वेदाङ्गान्यखिलानि च ।
द्रक्ष्यामि तत्परं धाम धाम्नां भगवतो मुखम् ॥ ५ ॥ जिससे सम्पूर्ण वेद और वेदांगोंकी उत्पत्ति हुई है, आज मैं सम्पूर्ण तेजस्वियोंके परम आश्रय उसी भगवत्-मुखारविन्दका दर्शन करूँगा ॥ ५ ॥ यज्ञेषु यज्ञपुरुषः पुरुषैः पुरुषोत्तमः ।
इज्यते योऽखिलाधारस्तं द्रक्ष्यामि जगत्पतिम् ॥ ६ ॥ समस्त पुरुषोंके द्वारा यज्ञोंमें जिन अखिल विश्वके आधारभूत पुरुषोत्तमका यज्ञपुरुषरूपसे यजन (पूजन) किया जाता है, आज मैं उन्हीं जगत्पतिका दर्शन करूँगा ॥ ६ ॥ इष्ट्वा यमिन्द्रो यज्ञानां शतेनामरराजताम् ।
अवाप तमनन्तादिमहं द्रक्ष्यामि केशवम् ॥ ७ ॥ जिनका सौ यज्ञोंसे यजन करके इन्द्रने देवराज-पदवी प्राप्त की है, आज मैं उन्हीं अनादि और अनन्त केशवका दर्शन करूँगा ॥ ७ ॥ न ब्रह्मा नेन्द्ररुद्राश्विवस्वादित्यमरुद्गणाः ।
यस्य स्वरूपं जानन्ति प्रत्यक्षं याति मे हरिः ॥ ८ ॥ जिनके स्वरूपको ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसुगण, आदित्य और मरुद्गण आदि कोई भी नहीं जानते आज वे ही हरि मेरे नेत्रोंके विषय होंगे ॥ ८ ॥ सर्वात्मा सर्ववित्सर्वः सर्वभूतेष्ववस्थितः ।
योह्यचिन्त्योऽव्ययो व्यापी स वक्ष्यति मया सह ॥ ९ ॥ जो सर्वात्मा, सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप और सब भूतोंमें अवस्थित हैं तथा जो अचिन्त्य, अव्यय और सर्वव्यापक हैं, अहो ! आज स्वयं वे ही मेरे साथ बातें करेंगे ॥ ९ ॥ मत्स्य कूर्मवराहाश्वसिंहरूपादिभिः स्थितिम् ।
चकार जगतो योऽजः सोऽद्य मां प्रलपिष्यति ॥ १० ॥ जिन अजन्माने मत्स्य, कूर्म, वराह, हयग्रीव और नृसिंह आदि रूप धारणकर जगत्की रक्षा की है, आज वे ही मुझसे वार्तालाप करेंगे ॥ १० ॥ साम्प्रतं च जगत्स्वामी कार्यमात्महृदि स्थितम् ।
कर्तुं मनुष्यतां प्राप्तः स्वेच्छादेहधृदव्ययः ॥ ११ ॥ 'इस समय उन अव्ययात्मा जगत्प्रभुने अपने मनमें सोचा हुआ कार्य करनेके लिये अपनी ही इच्छासे मनुष्य देह धारण किया है ॥ ११ ॥ योनन्तः पृथिवीं धत्ते शेखरस्थितिसंस्थिताम् ।
सोऽवतीर्णो जगत्यर्थे मामक्रूरेति वक्ष्यति ॥ १२ ॥ जो अनन्त (शेषजी) अपने मस्तकपर रखी हुई पृथिवीको धारण करते हैं, संसारके हितके लिये अवतीर्ण हुए वे ही आज मुझसे 'अक्रूर' कहकर बोलेंगे ॥ १२ ॥ पितृपुत्रसुहृद्भ्रातृमातृबन्धुमयीमिमाम् ।
यन्मायां नालमुत्तर्तुं जगत्तस्मै नमो नमः ॥ १३ ॥ 'जिनकी इस पिता, पुत्र, सुहृद्, भ्राता, माता और बन्धुरूपिणी मायाको पार करनेमें संसार सर्वथा असमर्थ है, उन मायापतिको बारम्बार नमस्कार है ॥ १३ ॥ तरत्यविद्यां विततां हृदि यस्मिन्निवेशिते ।
योगमायाममेयाय तस्मै विद्यात्मने नमः ॥ १४ ॥ जिनमें हृदयको लगा देनेसे पुरुष इस योगमायारूप विस्तृत अविद्याको पार कर जाता है, उन विद्यास्वरूप श्रीहरिको नमस्कार है ॥ १४ ॥ यज्वभिर्यज्ञपुरुषो वासुदेवश्च सात्त्वतैः ।
वेदान्तवेदिभिर्विष्णुः प्रोच्यते यो नतोऽस्मि तम् ॥ १५ ॥ जिन्हें याज्ञिकलोग 'यज्ञपुरुष', सात्वत (यादव अथवा भगवद्भक्त)-गण 'वासुदेव' और वेदान्तवेत्ता 'विष्णु' कहते हैं उन्हें बारम्बार नमस्कार है ॥ १५ ॥ यथा यत्र जगद्धाम्नि धातर्येतत्प्रतिष्ठितम् ।
सदसत्तेन सत्येन मय्यसौ यातु सौम्यताम् ॥ १६ ॥ जिस (सत्य)-से यह सदसद्रूप जगत् उस जगदाधार विधातामें ही स्थित है उस सत्यबलसे ही वे प्रभु मुझपर प्रसन्न हों ॥ १६ ॥ स्मृते सकलकल्याणभाजनं यत्र जायते ।
पुरुषस्तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥ १७ ॥ जिनके स्मरणमात्रसे पुरुष सर्वथा कल्याणपात्र हो जाता है, मैं सर्वदा उन अजन्मा हरिकी शरणमें प्राप्त होता हूँ ॥ १७ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्थं सञ्चिन्तयन्विष्णुं भक्तिनम्रात्ममानसः । अक्रूरो गोकुलं प्राप्तः किञ्चित्सूर्ये विराजति ॥ १८ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! भक्तिविनम्रचित्त अक्रूरजी इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्का चिन्तन करते कुछ कुछ सूर्य रहते ही गोकुलमें पहुँच गये ॥ १८ ॥ स ददर्श तदा कृष्णमादावादोहने गवाम् ।
वत्समध्यागतं फुल्लनीलोत्पलदलच्छविम् ॥ १९ ॥ वहाँ पहुँचनेपर पहले उन्होंने खिले हुए नीलकमलकीसी कान्तिवाले श्रीकृष्णचन्द्रको गौओंके दोहनस्थानमें बछड़ोंके बीच विराजमान देखा ॥ १९ ॥ प्रफुल्लपद्मपत्राक्षं श्रीवत्साङ्कितवक्षसम् ।
प्रलम्बबाहुमायामतुङ्गोरस्थलमुन्नसम् ॥ २० ॥ जिनके नेत्र खिले हुए कमलके समान थे, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिल सुशोभित था, भुजाएँ लम्बी-लम्बी थीं, वक्षःस्थल विशाल और ऊँचा था तथा नासिका उन्नत थी ॥ २० ॥ सविलासस्मिताधारं बिभ्राणं मुखपङ्कजम् ।
तुङ्गरक्तनखं पद्भ्यां धरण्यां सुप्रतिष्ठितम् ॥ २१ ॥ जो सविलास हासयुक्त मनोहर मुखारविन्दसे सुशोभित थे तथा उन्नत और रक्तनखयुक्त चरणोंसे पृथिवीपर विराजमान थे ॥ २१ ॥ बिभ्राणं वाससी पीते वन्यपुष्पविभूषितम् ।
सेन्दुनीलाचलाभं तं सिताम्भोजावतंसकम् ॥ २२ ॥ जो दो पीताम्बर धारण किये थे, वन्यपुष्पोंसे विभूषित थे तथा जिनका श्वेत कमलके आभूषणोंसे युक्त श्याम शरीर सचन्द्र नीलाचलके समान सुशोभित था ॥ २२ ॥ हंसकुन्देन्दुधवलं नीलाम्बरधरं द्विज ।
तस्यानु बलभद्रं च ददर्श यदुनन्दनम् ॥ २३ ॥ हे द्विज ! श्रीव्रजचन्द्रके पीछे उन्होंने हंस, कुन्द और चन्द्रमाके समान गौरवर्ण नीलाम्बरधारी यदुनन्दन श्रीबलभद्रजीको देखा ॥ २३ ॥ प्रांशुमुत्तुङ्गबाह्वंसं विकासिमुखपङ्कजम् ।
मेघमालापरिवृतं कैलासाद्रिमिवापरम् ॥ २४ ॥ विशाल भुजदण्ड, उन्नत स्कन्ध और विकसित मुखारविन्द श्रीबलभद्रजी मेघमालासे घिरे हुए दूसरे कैलासपर्वतके समान जान पड़ते थे ॥ २४ ॥ तौ दृष्ट्वा विकसद्वक्त्रसरोजः स महामतिः ।
पुलकाञ्चितसर्वाङ्गस्तदाक्रूरोऽभवन्मुने ॥ २५ ॥ हे मुने ! उन दोनों बालकोंको देखकर महामति अकूरजीका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया तथा उनके सर्वागमें पुलकावली छा गयी ॥ २५ ॥ तदेतत्परमं धाम तदेतत्परमं पदम् ।
भगवद्वासुदेवांशो द्विधा योऽयं व्यवस्थितः ॥ २६ ॥ [और वे मन-हीमन कहने लगे-] इन दो रूपोंमें जो यह भगवान् वासुदेवका अंश स्थित है वही परमधाम है और वही परमपद है ॥ २६ ॥ साफल्यमक्ष्णोर्युगमेतदत्र
दृष्टे जगद्धातरि यातमुच्चैः । अप्यङ्गमेतद्भगवत्प्रसादा- त्तदङ्गसङ्गे फलवन्मम स्यात् ॥ २७ ॥ इन जगद्विधाताके दर्शन पाकर आज मेरे नेत्रयुगल तो सफल हो गये; किंतु क्या अब भगवत्कृपासे इनका अंगसंग पाकर मेरा शरीर भी कृतकृत्य हो सकेगा ? ॥ २७ ॥ अप्येष पृष्ठे मम हस्तपद्मं
करिष्यति श्रीमदनन्तमूर्तिः । यस्याङ्गुलिस्पर्शहताखिलाघै- रवाप्यते सिद्धिरपास्तदोषा ॥ २८ ॥ जिनकी अंगुलीके स्पर्शमात्रसे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हुए पुरुष निर्दोषसिद्धि (कैवल्यमोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं क्या वे अनन्तमूर्ति श्रीमान् हरि मेरी पीठपर अपना करकमल रखेंगे ? ॥ २८ ॥ येनाग्निविद्युद्रविरश्मिमाला-
करालमत्युग्रमपेत चक्त्रम् । चक्रं घ्नता दैत्यपतेर्हृतानि दैत्याङ्गनानां नयनाञ्जनानि ॥ २९ ॥ जिन्होंने अग्नि, विद्युत् और सूर्यकी किरणमालाके समान अपने उग्र चक्रका प्रहार कर दैत्यपतिकी सेनाको नष्ट करते हुए असुर-सुन्दरियोंकी आँखोंके अंजन धो डाले थे ॥ २९ ॥ यत्राम्बु विन्यस्य बलिर्मनोज्ञा-
नवाप भोगान्वसुधातवलस्थः । तथामरत्वं त्रिदशाधिपत्वं मन्वन्तरं पूर्णमपेतशत्रुम् ॥ ३० ॥ जिनको एक जलबिन्दु प्रदान करनेसे राजा बलिने पृथिवीतलमें अति मनोज्ञ भोग और एक मन्वन्तरतक देवत्वलाभपूर्वक शत्रुविहीन इन्द्रपद प्राप्त किया था ॥ ३० ॥ अप्येष मां कंसपरिग्रहेण
दोषास्पदीभूतमदोषदुष्टम् । कर्तावमानोपहतं धिगस्तु तज्जन्म यत्साधुबहिष्कृतस्य ॥ ३१ ॥ वे ही विष्णुभगवान् मुझ निर्दोषको भी कंसके संसर्गसे दोषी ठहराकर क्या मेरी अवज्ञा कर देंगे ? मेरे ऐसे साधुजनबहिष्कृत पुरुषके जन्मको धिक्कार है ॥ ३१ ॥ ज्ञानात्मकस्यामलसत्त्वराशे-
रपेतदोषस्य सदा स्फुटस्य । किं वा जगत्यत्र समस्तपुंसा- मज्ञातमस्यास्ति हृदि स्थितस्य ॥ ३२ ॥ अथवा संसारमें ऐसी कौन वस्तु है जो उन ज्ञानस्वरूप, शुद्धसत्त्वराशि, दोषहीन, नित्य-प्रकाश और समस्त भूतोंके हृदयस्थित प्रभुको विदित न हो ? ॥ ३२ ॥ तस्मादहं भक्तिविनम्रचेता
व्रजामि सर्वेश्वरमीश्वराणाम् । अंशावतारं पुरुषोत्तमस्य ह्यनादिमध्यान्तमजस्य विष्णोः ॥ ३३ ॥ अतः मैं उन ईश्वरोंके ईश्वर, आदि, मध्य और अन्तरहित पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्रके पास भक्ति-विनम्रचित्तसे जाता हूँ । [मुझे पूर्ण आशा है, वे मेरी कभी अवज्ञा न करेंगे] ॥ ३३ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तशोऽध्यायः (१७)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ |