![]() |
॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
चिन्तयन्नितिगोविन्दमुपगम्य स यादवः । अक्रुरोस्मीति चरणौ ननाम शिरसा हरेः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! यदुवंशी अक्रूरजीने इस प्रकार चिन्तन करते श्रीगोविन्दके पास पहुँचकर उनके चरणों में सिर झुकाते हुए 'मैं अकूर हूँ' ऐसा कहकर प्रणाम किया ॥ १ ॥ सोऽप्येनं ध्वजवज्राब्जकृतचिह्नेन पाणिना ।
संस्पृश्याकृष्य च प्रीत्य सुगाढं परिषस्वजे ॥ २ ॥ भगवान्ने भी अपने ध्वजावज्र-पद्मांकित करकमलोंसे उन्हें स्पर्शकर और प्रीतिपूर्वक अपनी ओर खींचकर गाढ़ आलिंगन किया ॥ २ ॥ कृतसंवन्दनौ तेन यथावद्बलकेशवौ ।
ततः प्रवीष्टौ संहृष्टौ तमादायात्ममन्दिरम् ॥ ३ ॥ तदनन्तर अक्रूरजीके यथायोग्य प्रणामादि कर चुकनेपर श्रीबलरामजी और कृष्णचन्द्र अति आनन्दित हो उन्हें साथ लेकर अपने घर आये ॥ ३ ॥ सह ताभ्यां तदाक्रूरः कृतसंवन्दनादिकः ।
भुक्तभोज्यो यथान्याय्यमाचचक्षे ततस्तयोः ॥ ४ ॥ यथा निर्भत्सितस्तेन कंसेनानकदुन्दुभिः । यथा च देवकी देवी दानवेन दुरात्मना ॥ ५ ॥ उग्रसेने यथा कंसः स दुरात्मा च वर्तते । यं चैवार्थं समुद्दिश्य कंसेन तु विसर्जितः ॥ ६ ॥ फिर उनके द्वारा सत्कृत होकर यथायोग्य भोजनादि कर चुकनेपर अक्रूरने उनसे वह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहना आरम्भ किया जैसे कि दुरात्मा दानव कंसने आनकदुन्दुभि वसुदेव और देवी देवकीको डॉटा था तथा जिस प्रकार वह दुरात्मा अपने पिता उग्रसेनसे दुर्व्यवहार कर रहा है और जिसलिये उसने उन्हें (अक्रूरजीको) वृन्दावन भेजा है ॥ ४-६ ॥ तत्सर्वं विस्तराच्छ्रुत्वा भगवान्देवकीसुतः ।
उवाचाखिलमप्येतज्ज्ञातं दानपते मया ॥ ७ ॥ भगवान् देवकीनन्दनने यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनकर कहा- "हे दानपते ! ये सब बातें मुझे मालूम हो गयीं ॥ ७ ॥ करिष्ये तन्महाभाग यदत्रौपयिकं मतम् ।
विचिन्त्यं नान्यथैतत्ते विद्धि कंसं हतं मया ॥ ८ ॥ हे महाभाग ! इस विषयमें मुझे जो उपयुक्त जान पड़ेगा वही करूँगा । अब तुम कंसको मेरेद्वारा मरा हुआ ही समझो, इसमें किसी और तरहका विचार न करो ॥ ८ ॥ अहं रामश्च मथुरां श्वो यास्यावः सह त्वया ।
गोपवृद्धाश्च यास्यन्ति ह्यादायोपायनं बहु ॥ ९ ॥ भैया बलराम और मैं दोनों ही कल तुम्हारे साथ मथुरा चलेंगे, हमारे साथ ही दूसरे बड़े-बूढ़े गोप भी बहुतसा उपहार लेकर जायंगे ॥ ९ ॥ निशेयं नीयतां वीर न चिन्तां कर्तुमर्हसि ।
त्रिरात्राभ्यन्तरे कंसं निहनष्यामि सानुगम् ॥ १० ॥ हे वीर ! आप यह रात्रि सुखपूर्वक बिताइये, किसी प्रकारकी चिन्ता न कीजिये । तीन रात्रिके भीतर मैं कंसको उसके अनुचरोंसहित अवश्य मार डालूँगा" ॥ १० ॥ श्रीपराशर उवाच
समादिश्य ततो गोपानक्रूरोऽपि च केशवः । सुष्वाप बलभद्रश्च नन्दगोपगृहे ततः ॥ ११ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर अक्रूरजी, श्रीकृष्णचन्द्र और बलरामजी सम्पूर्ण गोपोंको कंसकी आज्ञा सुना नन्दगोपके घर सो गये ॥ ११ ॥ ततः प्रभाते विमले कृष्णरामौ महाद्युती ।
अक्रूरेण समं गन्तुमुद्यतौ मथुरां पुरीम् ॥ १२ ॥ दृष्ट्वा गोपीजनः सास्रः श्लथद्वलयबाहुकः । निःशश्वासातिदुःखार्तः प्राह चेदं परस्परम् ॥ १३ ॥ दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल होते ही महातेजस्वी राम और कृष्णको अक्रूरके साथ मथुरा चलनेकी तैयारी करते देख जिनकी भुजाओंके कंकण ढीले हो गये हैं वे गोपियाँ नेत्रोंमें आँसू भरकर तथा दुःखार्त्त होकर दीर्घ निश्श्वास छोड़ती हुई परस्पर कहने लगीं- ॥ १२-१३ ॥ मथुरां प्राप्य गोविन्दः कथं गोकुलमेष्यति ।
नगरस्त्रीकलालापमधु श्रोत्रेण पास्यति ॥ १४ ॥ "अब मथुरापुरी जाकर श्रीकृष्णचन्द्र फिर गोकुलमें क्यों आने लगे ? क्योंकि वहाँ तो ये अपने कानोंसे नगरनारियोंके मधुर आलापरूप मधुका ही पान करेंगे ॥ १४ ॥ विलासिवाक्यपानेषु नागरीणां कृतास्पदम् ।
चित्तमस्य कथं भूयो ग्राम्यगोपीषु यास्यति ॥ १५ ॥ नगरकी [ विदग्ध ] वनिताओंके विलासयुक्त वचनोंके रसपानमें आसक्त होकर फिर इनका चित्त गवारी गोपियोंकी ओर क्यों जाने लगा ? ॥ १५ ॥ सारं समस्तगोष्ठस्य विधिना हरता हरिम् ।
प्रहृतं गोपयोषित्सु निर्घृणेन दुरात्मना ॥ १६ ॥ आज निर्दयी दुरात्मा विधाताने समस्त व्रजके सारभूत (सर्वस्वस्वरूप) श्रीहरिको हरकर हम गोपनारियोंपर घोर आघात किया है ॥ १६ ॥ भावगर्भस्मितं वाक्यं विलासललिता गतिः ।
नागरीणामतीवैतत्कटाक्षेक्षितमेव च ॥ १७ ॥ ग्राम्यो हरिरयं तासां विलासनिगडैर्युतः । भवतीनां पुनः पार्श्वं कया युक्त्या समेष्यति ॥ १८ ॥ नगरकी नारियोंमें भावपूर्ण मसकानमयी बोली, विलासललित गति और कटाक्षपूर्ण चितवनकी स्वभावसे ही अधिकता होती है । उनके विलास-बन्धनोंसे बंधकर यह ग्राम्य हरि फिर किस युक्तिसे तुम्हारे [हमारे] पास आवेगा ? ॥ १७-१८ ॥ एषैष रथमारुह्य मथुरां याति केशवः ।
क्रूरेणाक्रूरकेणात्र निर्घृणेन प्रतारितः ॥ १९ ॥ देखो, देखो, क्रूर एवं निर्दयी अङ्करके बहकावेमें आकर ये कृष्णचन्द्र रथपर चढ़े हुए मथुरा जा रहे हैं ॥ १९ ॥ किं न वेत्ति नृशंसोयमनुरागपरं जनम् ।
येनैवमक्ष्णोराह्लादं नयत्यन्यत्र नो हरिम् ॥ २० ॥ यह नृशंस अक्रूर क्या अनुरागीजनोंके हृदयका भाव तनिक भी नहीं जानता ? जो यह इस प्रकार हमारे नयनानन्दवर्धन नन्दनन्दनको अन्यत्र लिये जाता है ॥ २० ॥ एष रामेण सहितः प्रयात्यत्यन्तनिर्घृणः ।
रथमारुह्य गोविन्दस्त्वर्यतामस्य वारणे ॥ २१ ॥ देखो, यह अत्यन्त निष्ठुर गोविन्द रामके साथ रथपर चढ़कर जा रहे हैं; अरी । इन्हें रोकने में शीघ्रता करो" ॥ २१ ॥ गुरूणामग्रतो वक्तुं किं ब्रवीषि न नः क्षमम् ।
गुरवः किं करिष्यन्ति दग्धानां विरहाग्निना ॥ २२ ॥ [इसपर गुरुजनोंके सामने ऐसा करने में असमर्थता प्रकट करनेवाली किसी गोपीको लक्ष्य करके उसने फिर कहा-] "अरी ! तू क्या कह रही है कि अपने गुरुजनोंके सामने हम ऐसा नहीं कर सकती ?" भला अब विरहाग्निसे भस्मीभूत हुई हमलोगोंका गुरुजन क्या करेंगे ? ॥ २२ ॥ नंदगोपमुखा गोपा गन्तुमेते समुद्यताः ।
नोद्यमं कुरुते कश्चिद्गोविन्दविनिवर्तने ॥ २३ ॥ देखो, यह नन्दगोप आदि गोपगण भी उन्हींके साथ जानेकी तैयारी कर रहे हैं । इनमेंसे भी कोई गोविन्दको लौटानेका प्रयत्न नहीं करता ॥ २३ ॥ सुप्रभाताद्य रजनी मथुरावासयोषिताम् ।
पास्यन्त्यच्युतवक्त्राब्जं यासां नेत्रालिपङ्क्तयः ॥ २४ ॥ आजकी रात्रि मथुरावासिनी स्त्रियों के लिये सुन्दर प्रभातवाली हुई है; क्योंकि आज उनके नयन-भंग श्रीअच्युतके मुखारविन्दका मकरन्द पान करेंगे ॥ २४ ॥ धन्यास्ते पथि ये कृष्णमितो यान्त्यनिवारिताः ।
उद्वहिष्यन्ति पश्यन्तः स्वदेहं पुलकाञ्चितम् ॥ २५ ॥ जो लोग इधरसे बिना रोक-टोक श्रीकृष्णचन्द्रका अनुगमन कर रहे हैं वे धन्य हैं; क्योंकि वे उनका दर्शन करते हुए अपने रोमांचयुक्त शरीरका वहन करेंगे ॥ २५ ॥ मथुरानगरीपौरनयनानां महोत्सवः ।
गोविन्दावयवैर्दृष्टैरतीवाद्य भविष्यति ॥ २६ ॥ 'आज श्रीगोविन्दके अंग-प्रत्यंगोंको देखकर मथुरावासियोंके नेत्रोंको अत्यन्त महोत्सव होगा ॥ २६ ॥ को नु स्वप्रः सभाग्याभिर्दृष्टस्ताभिरधोक्षजम् ।
विस्तारिकांतिनयना या द्रक्ष्यन्त्यनिवारिताः ॥ २७ ॥ आज न जाने उन भाग्यशालिनियोंने ऐसा कौन शुभ स्वप्न देखा है जो वे कान्तिमय विशाल नयनोंवाली (मथुरापुरीकी स्त्रियाँ) स्वच्छन्दतापूर्वक श्रीअधोक्षजको निहारेंगी ? ॥ २७ ॥ अहो गोपीजनस्यास्य दर्शयित्वा महानिधिम् ।
उत्कृत्तान्यत्र नेत्राणि विधिना करुणात्मना ॥ २८ ॥ अहो ! निष्ठुर विधाताने गोपियोंको महानिधि दिखलाकर आज उनके नेत्र निकाल लिये ॥ २८ ॥ अनुरागेण शैथिल्यमस्मासु व्रजिते हरौः ।
शैथिल्यमुपयान्त्याशु करेषु वलयान्यपि ॥ २९ ॥ देखो ! हमारे प्रति श्रीहरिके अनुरागमें शिथिलता आ जानेसे हमारे हाथोंके कंकण भी तुरंत ही ढीले पड़ गये हैं ॥ २९ ॥ अक्रूरः क्रूरहृदयः शीघ्रं प्रेरयते हयान् ।
एवमार्तासु योषित्सु कृपा कस्य न जायते ॥ ३० ॥ भला हम-जैसी दुःखिनी अबलाओंपर किसे दया न आवेगी ? परन्तु देखो, यह क्रूर-हदय अक्रूर तो बड़ी शीघ्रतासे घोड़ोंको हाँक रहा है ! ॥ ३० ॥ एष कृष्णरथस्योच्चैश्चक्ररेणुर्निरीक्ष्यताम् ।
दूरीभूतो हरिर्येन सोऽपि रेणुर्नलक्ष्यते ॥ ३१ ॥ देखो, यह कृष्णचन्द्रके रथकी धूलि दिखलायी दे रही है । किन्तु हा ! अब तो श्रीहरि इतनी दूर चले गये कि वह धूलि भी नहीं दीखती ॥ ३१ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्येवमतिहार्द्देन गोपीजननिरीक्षितः । तत्याज व्रजभूभागं सह रामेण केशवः ॥ ३२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार गोपियोंके अति अनुरागसहित देखते-देखते श्रीकृष्णचन्द्रने बलरामजीके सहित व्रजभूमिको त्याग दिया ॥ ३२ ॥ गच्छन्तो जवनाश्वेन रथेन यमुनातटम् ।
प्राप्ता मध्याह्नसमये रामाक्रूरजनार्दनाः ॥ ३३ ॥ तब वे राम, कृष्ण और अक्रूर शीघ्रगामी घोड़ोंवाले रथसे चलतेचलते मध्याह्नके समय यमुनातटपर आ गये ॥ ३३ ॥ अथाह कृष्णमक्रूरो भवद्भ्यां तावदास्यताम् ।
यावत्करोमि कालिन्द्या आह्निकार्हणमम्भसि ॥ ३४ ॥ वहाँ पहुँचनेपर अक्रूरने श्रीकृष्णचन्द्रसे कहा-"जबतक मैं यमुनाजलमें मध्याह्नकालीन उपासनासे निवृत्त होऊँ तबतक आप दोनों यहीं विराजें" ॥ ३४ ॥ श्रीपराशर उवाच
तथेत्युक्तस्ततस्नातः स्वाचान्तः स महामतिः । दध्यौ ब्रह्म परं विप्र ग्रविष्टो यमुनाजले ॥ ३५ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे विप्र ! तब भगवान्के 'बहुत अच्छा' कहनेपर महामति अक्रूरजी यमुनाजलमें घुसकर स्नान और आचमन आदिके अनन्तर परब्रह्मका ध्यान करने लगे ॥ ३५ ॥ फणासहस्रमालाढ्यं बलभद्रं ददर्श सः ।
कुन्दमालाङ्गमुन्निद्रपद्मपत्रायतेक्षणम् ॥ ३६ ॥ उस समय उन्होंने देखा कि बलभद्रजी सहस्रफणावलिसे सुशोभित हैं, उनका शरीर कुन्दमालाओंके समान [शुभ्रवर्ण] है तथा नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल हैं ॥ ३६ ॥ वृतं वासुकिरम्भाद्यैर्महद्भिः पवनाशिभिः ।
संस्तूयमानमुद्गन्धिवनमालाविभूषितम् ॥ ३७ ॥ वे वासुकि और रम्भ आदि महासर्पोसे घिरकर उनसे प्रशंसित हो रहे हैं तथा अत्यन्त सुगन्धित वनमालाओंसे विभूषित हैं ॥ ३७ ॥ दधानमसिते वस्त्रे चारुरूपावतंसकम् ।
चारुकुण्डलिनं भान्तमन्तर्जलतले स्थितम् ॥ ३८ ॥ वे दो श्याम वस्त्र धारण किये, सुन्दर कर्णभूषण पहने तथा मनोहर कुण्डली (गडुली) मारे जलके भीतर विराजमान हैं ॥ ३८ ॥ तस्योत्सङ्गे घनश्याममाताम्रायतलोचनम् ।
चतुर्बाहुमुदाराङ्गं चक्राद्यायुधभूषणम् ॥ ३९ ॥ पीते वसानं वसने चित्रमाल्योपशोभितम् । शक्रचापतडिन्मालाविचित्रमिव तोयदम् ॥ ४० ॥ श्रीवत्सवक्षसं चारु स्फुरन्मकरकुण्डलम् । ददर्श कृष्णमक्लिष्टं पुण्डरीकावतंसकम् ॥ ४१ ॥ उनकी गोदमें उन्होंने आनन्दमय कमलभूषण श्रीकृष्णचन्द्रको देखा, जो मेषके समान श्यामवर्ण, कुछ लाल-लाल विशाल नयनोंवाले, चतुर्भुज, मनोहर अंगोपांगोवाले तथा शंख-चक्रादि आयुधोंसे सुशोभित हैं; जो पीताम्बर पहने हुए हैं और विचित्र वनमालासे विभूषित हैं, तथा [उनके कारण] इन्द्रधनुष और विद्युन्मालामण्डित सजल मेघके समान जान पड़ते हैं तथा जिनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न और कानोंमें देदीप्यमान मकराकृत कुण्डल विराजमान है ॥ ३९-४१ ॥ सनन्दनाद्यैर्मुनिभिः सिद्धयोगैरकल्मषैः ।
सञ्चिन्त्यमानं तत्रस्थैर्नासाग्रन्यस्तलोचनैः ॥ ४२ ॥ [अक्रूरजीने यह भी देखा कि सनकादि मुनिजन और निष्पाप सिद्ध तथा योगिजन उस जलमें ही स्थित होकर नासिकाग्र दृष्टिसे उन (श्रीकृष्णचन्द्र)का ही चिन्तन कर रहे हैं ॥ ४२ ॥ बलकृष्णौ तथाक्रूरः प्रत्यभिज्ञाय विस्मितः ।
अचिन्तयद्रथाच्छीघ्रं कथमत्रागताविति ॥ ४३ ॥ इस प्रकार वहाँ राम और कृष्णको पहचानकर अक्रूरजी बड़े ही विस्मित हुए और सोचने लगे कि ये यहाँ इतनी शीघ्रतासे रथसे कैसे आ गये ? ॥ ४३ ॥ विवक्षोस्तम्भयामास वाचं तस्य जनार्दनः ।
ततो निष्क्रम्य सलिलाद्रथमभ्यागतः पुनः ॥ ४४ ॥ ददर्श तत्र चैवोभौ रथस्योपरि निष्ठितौ । रामकृष्णौ यथापूर्वं मनुष्यवपुषान्वितौ ॥ ४५ ॥ जब उन्होंने कुछ कहना चाहा तो भगवान्ने उनकी वाणी रोक दी । तब वे जलसे निकलकर रथके पास आये और देखा कि वहाँ भी राम और कृष्ण दोनों ही मनुष्य-शरीरसे पूर्ववत् स्थपर बैठे हुए हैं ॥ ४४-४५ ॥ निमग्नश्च पुनस्तोये ददर्श च तथैव तौ ।
संस्तूयमानौ गन्धर्वैर्मुनिसिद्धमहोरगैः ॥ ४६ ॥ तदनन्तर, उन्होंने जलमें घुसकर उन्हें फिर गन्धर्व, सिद्ध, मुनि और नागादिकोंसे स्तुति किये जाते देखा ॥ ४६ ॥ ततो विज्ञातसद्भावः स तु दानपतिस्तदा ।
तुष्टाव सर्व विज्ञानमयमच्युतमीश्वरम् ॥ ४७ ॥ तय तो दानपति अकरजी वास्तविक रहस्य जानकर उन सर्वविज्ञानमय अच्युत भगवानकी स्तुति करने लगे ॥ ४७ ॥ अक्रूर उवाच
सन्मात्ररूपिणेऽचिन्त्यमहिम्ने परमात्मने । व्यापिने नैकरूपैकस्वरूपाय नमो नमः ॥ ४८ ॥ अकूरजी बोले-जो सन्मात्रस्वरूप, अचिन्त्यमहिम, सर्वव्यापक तथा [कार्यरूपसे] अनेक और [कारणरूपसे] एक रूप हैं उन परमात्माको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ ४८ ॥ सर्वरूपाय तेऽचिन्त्य हविर्भूताय ते नमः ।
नमो विज्ञानपाराय पराय प्रकृतेः प्रभोः ॥ ४९ ॥ हे अचिन्तनीय प्रभो ! आप सर्वरूप एवं हविःस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है । आप बुद्धिसे अतीत और प्रकृतिसे परे हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ ४९ ॥ भूतात्मा चेन्द्रियात्मा च प्रधानात्मा तथा भवान् ।
आत्मा च परमात्मा च त्वमेकः पञ्चधा स्थितः ॥ ५० ॥ आप भूतस्वरूप, इन्द्रियस्वरूप और प्रधानस्वरूप हैं तथा आप ही जीवात्मा और परमात्मा हैं । इस प्रकार आप अकेले ही पाँच प्रकारसे स्थित हैं ॥ ५० ॥ प्रसीद सर्व सर्वात्मन् क्षराक्षरमयेश्वर ।
ब्रह्मविष्णुशिवाख्याभिः कल्पनाभिरुदीरितः ॥ ५१ ॥ हे सर्व ! हे सर्वात्मन् ! हे क्षराक्षरमय ईश्वर ! आप प्रसन्न होइये । एक आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि कल्पनाओंसे वर्णन किये जाते हैं ॥ ५१ ॥ अनाख्येयस्वरूपात्मन्ननाख्येयप्रयोजन ।
अनाख्येन भिधानं त्वां नतोऽस्मि परमेश्वर ॥ ५२ ॥ हे परमेश्वर ! आपके स्वरूप, प्रयोजन और नाम आदि सभी अनिर्वचनीय हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ५२ ॥ न यत्र नाथ विद्यन्ते नामजात्यादिकल्पनाः ।
तद्ब्रह्म परमं नित्यमविकारि भवानजः ॥ ५३ ॥ हे नाथ ! जहाँ नाम और जाति आदि कल्पनाओंका सर्वथा अभाव है आप वही नित्य अविकारी और अजन्मा परब्रह्म हैं ॥ ५३ ॥ न कल्पनामृतेऽर्थस्य सर्वस्याधिगमो यतः ।
ततः कृष्णच्युतानन्तविष्णुसंज्ञाभिरिड्यते ॥ ५४ ॥ क्योंकि कल्पनाके बिना किसी भी पदार्थका ज्ञान नहीं होता इसीलिये आपका कृष्ण, अच्युत, अनन्त और विष्णु आदि नामोंसे स्तवन किया जाता है [वास्तवमें तो आपका किसी भी नामसे निर्देश नहीं किया जा सकता] ॥ ५४ ॥ सर्वार्थस्त्वमज विकल्पनाभिरेतै-
र्देवाद्यैर्भवति हि यैरनन्तविश्वम् । विश्वात्मा त्वमिति विकारहीनमेत- त्सर्वस्मिन्न हि भवतोऽस्ति किञ्चिदन्यत् ॥ ५५ ॥ हे अज ! जिन देवता आदि कल्पनामय पदार्थोंसे अनन्त विश्वकी उत्पत्ति हुई है वे समस्त पदार्थ आप ही हैं तथा आप ही विकारहीन आत्मवस्तु हैं, अतः आप विश्वरूप हैं । हे प्रभो ! इन सम्पूर्ण पदार्थोंमें आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥ ५५ ॥ त्वं ब्रह्मा पशुपतिर्यमा विधाता
धाता त्वं त्रिदशपतिः समीरणोऽग्निः । तोयेशो धनपतिंरतकस्त्वमेको भिन्नार्थैर्जगदभिपासिशक्तिभेदैः ॥ ५६ ॥ आप ही ब्रह्मा, महादेव, अर्यमा, विधाता, धाता, इन्द्र, वायु, अग्नि, वरुण, कुबेर और यम हैं । इस प्रकार एक आप ही भिन्न-भिन्न कार्यवाले अपनी शक्तियोंके भेदसे इस सम्पूर्ण जगत्को रक्षा कर रहे हैं ॥ ५६ ॥ विश्वं भवान्सृजति सूर्यगभस्तिरूपो
विश्वेश ते गुणमयोयमतः प्रपञ्चः । रूपं परं सदिति वाचकमक्षरं य- ज्ज्ञानात्मने सदसते प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥ ५७ ॥ हे विश्वेश ! सूर्यकी किरणरूप होकर आप ही [वृष्टिद्वारा] विश्वकी रचना करते हैं, अतः यह गुणमय प्रपंच आपका ही रूप है । 'सत्' पद [ ॐ तत् , सत्' इस रूपसे] जिसका वाचक है वह 'ॐ' अक्षर आपका परम स्वरूप है, आपके उस ज्ञानात्मा सदसत्स्वरूपको नमस्कार है ॥ ५७ ॥ ॐ नमो वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च ।
प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नमः ॥ ५८ ॥ हे प्रभो ! वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धस्वरूप आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ ५८ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशेऽष्टादशोऽध्यायः (१८)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशेऽष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ |