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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
एवमन्तर्जले विष्णुमभिष्टूय स यादवः । अर्चयामास सर्वेशं धूपपुष्पैर्मनोमयैः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-यदुकुलोत्पन्न अक्रूरजीने श्रीविष्णुभगवान्का जलके भीतर इस प्रकार स्तवनकर उन सर्वेश्वरका मन:कल्पित धूप, दीप और पुष्पादिसे पूजन किया ॥ १ ॥ परित्यक्तान्यविषयो मनस्तत्र निवेश्य सः ।
ब्रह्मभूते चिरं स्थित्वा विरराम समाधितः ॥ २ ॥ उन्होंने अपने मनको अन्य विषयोंसे हटाकर उन्हीं में लगा दिया और चिरकालतक उन ब्रह्मभूतमें ही समाहितभावसे स्थित रहकर फिर समाधिसे विरत हो गये ॥ २ ॥ कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमामौ महामतिः ।
आजगाम रथं भूयो निर्गम्य यमुनाम्भसः ॥ ३ ॥ तदनन्तर महामति अक्रूरजी अपनेको कृतकृत्यसा मानते हुए यमुनाजलसे निकलकर फिर रथके पास चले आये ॥ ३ ॥ ददर्श रामकृष्णौ च यथापुर्वमवस्थितौ ।
विस्मिताक्षस्तदाक्रूरस्तं च कृष्णोऽभ्यभाषत ॥ ४ ॥ वहाँ आकर उन्होंने आश्चर्ययुक्त नेत्रोंसे राम और कृष्णको पूर्ववत् रथमें बैठे देखा । उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने अकूरजीसे कहा ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण उवाच
नूनं ते दृष्टमाश्चर्यमक्रूर यमुनाजले । विस्मयोत्फुल्लनयनो भवान्संलक्ष्यते यतः ॥ ५ ॥ श्रीकृष्णजी बोले-अक्रूरजी ! आपने अवश्य ही यमुना-जलमें कोई आश्चर्यजनक बात देखी है, क्योंकि आपके नेत्र आश्चर्यचकित दीख पड़ते हैं ॥ ५ ॥ अक्रूर उवाच
अन्तर्जले यदाश्चर्यं दृष्टं तत्र मयाच्युत । तदत्रापि हि पश्यामि मूर्तिमत्पुरतः स्थितम् ॥ ६ ॥ अक्रूरजी बोले-हे अच्युत ! मैंने यमुनाजलमें जो आश्चर्य देखा है उसे मैं इस समय भी अपने सामने मूर्तिमान् देख रहा हूँ ॥ ६ ॥ जगदेतन्महाश्चर्यरूपं यस्य महात्मनः ।
तेनाश्चर्यपरेणाहं भवता कृष्ण सङ्गतः ॥ ७ ॥ हे कृष्ण ! यह महान् आश्चर्यमय जगत् जिस महात्माका स्वरूप है उन्हीं परम आश्चर्यस्वरूप आपके साथ मेरा समागम हुआ है ॥ ७ ॥ तत्किमेतेन मथुरां यास्यामो मधुसूदन ।
बिभेमि कंसाद्धिग्जन्म परिपिण्डोपजीविनाम् ॥ ८ ॥ हे मधुसूदन ! अब उस आश्चर्यके विषयमें और अधिक कहनेसे लाभ ही क्या है ? चलो, हमें शीघ्र ही मथुरा पहुँचना है; मुझे कंससे बहुत भय लगता है । दूसरेके दिये हुए अन्नसे जीनेवाले पुरुषोंके जीवनको धिक्कार है ! ॥ ८ ॥ इत्युक्त्वा चोदयामास स हयान् वातरंहसः ।
सम्प्राप्तश्चापि सायाह्ने सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम् ॥ ९ ॥ ऐसा कहकर अक्रूरजीने वायुके समान वेगवाले घोड़ोंको हाँका और सार्यकालके समय मथुरापुरीमें पहुँच गये ॥ ९ ॥ विलोक्य मथुरां कृष्णं रामं चाह स यादवः ।
पद्भ्यां यातं महावीरौ रथेनैको विशाम्यहम् ॥ १० ॥ मथुरापुरीको देखकर अक्रूरने राम और कृष्णसे कहा-"हे वीरवरो ! अब मैं अकेला ही रथसे जाऊँगा, आप दोनों पैदल चले आवें ॥ १० ॥ गन्तव्यं वसुदेवस्य नो भवद्भ्यां तथा गृहम् ।
युवयोर्हि कृते वृद्धः स कंसेन निरस्यते ॥ ११ ॥ मधुरामें पहुंचकर आप वसुदेवजीके घर न जायें क्योंकि आपके कारण ही उन वृद्ध वसुदेवजीका कंस सर्वदा निरादर करता रहता है" ॥ ११ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा प्रविवेशाथ सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम् । प्रविष्टौ रामकृष्णौ च राजमार्गमुपागतौ ॥ १२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कह-अक्रूरजी मथुरापुरीमें चले गये । उनके पीछे राम और कृष्ण भी नगरमें प्रवेशकर राजमार्गपर आये ॥ १२ ॥ स्त्रीभिर्नरैश्च सानन्दं लोतनैरभिवीक्षितौ ।
जग्मतुर्लीलया वीरौ मत्तौ बालगजाविव ॥ १३ ॥ वहाँके नर-नारियोंसे आनन्दपूर्वक देखे जाते हुए वे दोनों वीर मतवाले तरुण हाथियों के समान लीलापूर्वक जा रहे थे ॥ १३ ॥ भ्रममाणौ ततो दृष्ट्वा रजकं रङ्गकारकम् ।
अयोचेतां सूरूपाणि वासांसि रुचिराणि तौ ॥ १४ ॥ मार्गमें उन्होंने एक वस्त्र रँगनेवाले रजकको घूमते देख उससे रंग-विरंगे सुन्दर वस्त्र माँगे ॥ १४ ॥ कंसस्य रजकः सोऽथ प्रसादारूढविस्मयः ।
बहून्याक्षेपवाक्यानि प्राहोच्चै रामकेशवौ ॥ १५ ॥ वह रजक कंसका था और राजाके मुँहलगा होनेसे बड़ा घमण्डी हो गया था, अतः राम और कृष्णके वस्त्र माँगनेपर उसने विस्मित होकर उनसे बड़े जोरोंके साथ अनेक दुर्वाक्य कहे ॥ १५ ॥ ततस्तलप्रहारेण कृष्णस्तस्य दुरात्मनः ।
पातयामास रोषेण रजकस्य शिरो भुवि ॥ १६ ॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रने क्रुद्ध होकर अपने करतलके प्रहारसे उस दुष्ट रजकका सिर पृथिवीपर गिरा दिया ॥ १६ ॥ हत्वादाय च वस्त्राणि पीतनीलाम्बरौ ततः ।
कृष्णरामौ मुदा युक्तौ मालाकारगृहं गतौ ॥ १७ ॥ इस प्रकार उसे मारकर राम और कृष्णने उसके वस्त्र छीन लिये तथा क्रमशः नील और पीत वस्त्र धारणकर वे प्रसन्नचित्तसे मालीके घर गये ॥ १७ ॥ विकासिनेत्रयुगलो मालाकारोऽतिविस्मितः ।
एतौ कस्य सुतौ यातौ मैत्रेयाचिन्तयत्तदा ॥ १८ ॥ हे मैत्रेय ! उन्हें देखते ही उस मालीके नेत्र आनन्दसे खिल गये और वह आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि 'ये किसके पुत्र हैं और कहाँसे आये हैं ?' ॥ १८ ॥ पीतनीलाम्बरधरौ तौ दृष्ट्वातिमनोहरौ ।
स तर्कयामास तदा भुवं देवावुपागतौ ॥ १९ ॥ पीले और नीले वस्त्र धारण किये उन अति मनोहर बालकोंको देखकर उसने समझा मानो दो देवगण ही पृथिवीतलपर पधारे हैं ॥ १९ ॥ विकासिमुखपद्माभ्यां ताभ्यां पुष्पाणि याचितः ।
भुवं विष्टभ्य हस्ताभ्यां पस्पर्श शिरसा महीम् ॥ २० ॥ जब उन विकसितमुखकमल बालकोंने उससे पुष्प माँगे तो उसने अपने दोनों हाथ पृथिवीपर टेककर सिरसे भूमिको स्पर्श किया ॥ २० ॥ प्रसादपरमौ नाथौ मम गेहमुपागतौ ।
धन्योऽहमर्चयिष्यामीत्याह तौ माल्यजीवनः ॥ २१ ॥ फिर उस मालीने कहा- "हे नाथ ! आपलोग बड़े ही कृपालु हैं जो मेरे घर पधारे । मैं धन्य हूँ, क्योंकि आज मैं आपका पूजन कर सकूँगा" ॥ २१ ॥ ततः प्रहृष्टवदनस्तयोः पुष्पाणि कामतः ।
चारूण्येतान्यथैतानि प्रददौ स प्रलोभयन् ॥ २२ ॥ तदनन्तर उसने देखिये, ये बहुत सुन्दर हैं, ये बहुत सुन्दर हैं'-इस प्रकार प्रसन्नमुखसे लुभा-लुभाकर उन्हें इच्छानुसार पुष्प दिये ॥ २२ ॥ पुनःपुनः प्रणम्योभौ मालाकारो नरोत्तमौ ।
ददौ पुष्पाणि चारूणि गन्धवन्त्यमलानि च ॥ २३ ॥ उसने उन दोनों पुरुषश्रेष्ठोंको पुनः-पुनः प्रणामकर अति निर्मल और सुगन्धित मनोहर पुष्प दिये ॥ २३ ॥ मालाकाराय कृष्णोऽपि प्रसन्नः प्रददौ वरान् ।
श्रीस्त्वां मत्संश्रया भद्र न कदाचित्त्यजिष्यति ॥ २४ ॥ तब कृष्णचन्द्रने भी प्रसन्न होकर उस मालीको यह वर दिया कि "हे भद्र ! मेरे आश्रित रहनेवाली लक्ष्मी तुझे कभी न छोड़ेगी ॥ २४ ॥ बलहानिर्न ते सौम्य धनहानिरथापि वा ।
यावद्दिनानि तावच्च न नशिष्यति सन्ततिः ॥ २५ ॥ हे सौम्य ! तेरे बल और धनका हास कभी न होगा और जबतक दिन (सूर्य)की सत्ता रहेगी तबतक तेरी सन्तानका उच्छेद न होगा ॥ २५ ॥ भुक्त्वा च विपुलान्भोगांस्त्वमन्ते मत्प्रसादतः ।
ममानुस्मरणं प्राप्य दिव्यं लोकमवाप्स्यसि ॥ २६ ॥ तू भी यावज्जीवन नाना प्रकारके भोग भोगता हुआ अन्तमें मेरी कृपासे मेरा स्मरण करनेके कारण दिव्य लोकको प्राप्त होगा ॥ २६ ॥ धर्मे मनश्च ते भद्र सर्वकालं भविष्यति ।
युष्मत्सन्ततिजातानां धीर्घमायुर्भविष्यति ॥ २७ ॥ हे भद्र ! तेरा मन सर्वदा धर्मपरायण रहेगा तथा तेरे वंशमें जन्म लेनेवालोंकी आयु दीर्घ होगी ॥ २७ ॥ नोपसर्गादिकं दोषं युष्मत्सन्ततिसम्भवः ।
अवाप्स्यति महाभाग यावत्सूर्यो भविष्यति ॥ २८ ॥ हे महाभाग ! जबतक सूर्य रहेगा तबतक तेरे वंशमें उत्पन्न हुआ कोई भी व्यक्ति उपसर्ग (आकस्मिक रोग) आदि दोषोंको प्राप्त न होगा" ॥ २८ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा तद्गृहात्कृष्णो बलदेवसहायवान् । निर्जगाम मुनिश्रेष्ठ मालाकारेण पूजितः ॥ २९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर श्रीकृष्णचन्द्र बलभद्रजीके सहित मालाकारसे पूजित हो उसके घरसे चल दिये ॥ २९ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे एकोनविंशोऽध्यायः (१९)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ |