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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
बाणोऽपि प्रणिपत्याग्रे मैत्रेयाह त्रिलोचनम् ।
देव बाहुसहस्रेण निर्विण्णोस्म्याहवं विना ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! एक बार बाणासुरने भी भगवान् त्रिलोचनको प्रणाम करके कहा था कि हे देव ! बिना युद्धके इन हजार भुजाओंसे मुझे बड़ा ही खेद हो रहा है ॥ १ ॥

कच्चिन्ममैषां बाहूनां साफल्यजनको रणः ।
भविष्यति विना युद्धं भाराय मम किं भुजैः ॥ २ ॥
क्या कभी मेरी इन भुजाओंको सफल करनेवाला युद्ध होगा ? भला विना युद्धके इन भाररूप भुजाओंसे मुझे लाभ ही क्या है ? ॥ २ ॥

श्रीशङ्‍कर उवाच
मयूरध्वजभङ्‍गस्ते यदा बाण भविष्यति ।
पिशिताशिजनानन्दं प्राप्स्यसे त्वं तदा रणम् ॥ ३ ॥
श्रीशंकरजी बोले-हे बाणासुर ! जिस समय तेरी मयूरचिरनवाली ध्वजा टूट जायगी, उसी समय तेरे सामने मांसभोजी यक्ष-पिशाचादिको आनन्द देनेवाला युद्ध उपस्थित होगा ॥ ३ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततः प्रणम्य वरदं शम्भुमभ्यागतो गृहम् ।
सभग्नं ध्वजमालोक्य हृष्टो हर्षं पुनर्ययौ ॥ ४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर, वरदायक श्रीशंकरको प्रणामकर बाणासुर अपने घर आया और फिर कालान्तरमें उस ध्वजाको टूटी देखकर अति आनन्दित हुआ ॥ ४ ॥

एतस्मिन्नेव काले तु योगविद्याबलेन तम् ।
अनिरुद्धमथानिन्ये चित्रलेखा वराप्सराः ॥ ५ ॥
इसी समय अप्सराश्रेष्ठ चित्रलेखा अपने योगबलसे अनिरुद्धको वहाँ ले आयी ॥ ५ ॥

कन्यान्तःपुरमभ्येत्य रममाणं सहोषया ।
विज्ञाय रक्षिणो गत्वा शशंसुर्दैत्यभूपते ॥ ६ ॥
अनिरुद्धको कन्यान्तःपुरमें आकर उषाके साथ रमण करता जान अन्तःपुररक्षकोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त दैत्यराज बाणासुरसे कह दिया ॥ ६ ॥

व्यादिष्टं किङ्‍कराणां तु सैन्यं तेन महात्मना ।
जघान परिघं घोरमादाय परवीरहा ॥ ७ ॥
तब महावीर बाणासुरने अपने सेवकोंको उससे युद्ध करनेकी आज्ञा दी; किंतु शत्रु-दमन अनिरुद्धने अपने सम्मुख आनेपर उस सम्पूर्ण सेनाको एक लोहमय दण्डसे मार डाला ॥ ७ ॥

हतेषु तेषु बाणोऽपि रथस्थस्तद्वधोद्यतः ।
युध्यमानो यथाशक्ति यदुवीरेण निर्जितः ॥ ८ ॥
अपने सेवकोंके मारे जानेपर बाणासुर अनिरुद्धको मार डालनेकी इच्छासे रथपर चढ़कर उनके साथ युद्ध करने लगा; किंतु अपनी शक्तिभर युद्ध करनेपर भी वह यदुवीर अनिरुद्धजीसे परास्त हो गया ॥ ८ ॥

मायया युयुधे तेन स तदा मन्त्रिचोदितः ।
ततस्तं पन्नगास्त्रेण बबन्ध यदुनन्दनम् ॥ ९ ॥
तब वह मन्त्रियोंकी प्रेरणासे मायापूर्वक युद्ध करने लगा और यदुनन्दन अनिरुद्धको नागपाशसे बाँध लिया ॥ ९ ॥

द्वारवत्यां क्व यातोऽसावनिरुद्धेति जल्पताम् ।
यदूनामाचचक्षे तं बद्धं बाणेन नारदः ॥ १० ॥
इधर द्वारकापुरीमें जिस समय समस्त यादवोंमें यह चर्चा हो रही थी कि 'अनिरुद्ध कहाँ गये ?' उसी समय देवर्षि नारदने उनके बाणासुरद्वारा बाँधे जानेकी सूचना दी ॥ १० ॥

तं शोशितपुरं नीतं श्रुत्वा विद्याविदग्धया ।
योषिता प्रत्ययं जग्मुर्यादवा नामरैरिति ॥ ११ ॥
नारदजीके मुखसे योगविद्या में निपुण युवती चित्रलेखाद्वारा उन्हें शोणितपुर ले जाये गये सुनकर यादवोंको विश्वास हो गया कि देवताओंने उन्हें नहीं चुराया ॥ ११ ॥

ततो गरुडमारुह्य स्मृतमात्रागतं हरिः ।
बलप्रद्युम्नसहितो बाणस्य प्रययौ पुरम् ॥ १२ ॥
तब स्मरणमात्रसे उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर श्रीहरि बलराम और प्रद्युम्नके सहित बाणासुरको राजधानीमें आये ॥ १२ ॥

पुरप्रवेशे प्रमथैर्युद्धमासीन्महात्मनः ।
ययौ बाणपुराभ्याशं नीत्वा तान्संक्षयं हरिः ॥ १३ ॥
नगरमें घुसते ही उन तीनोंका भगवान् शंकरके पार्षद प्रमथगणोंसे युद्ध हुआ; उन्हें नष्ट करके श्रीहरि बाणासुरकी राजधानीके समीप चले गये ॥ १३ ॥

ततस्त्रिपादस्त्रिशिरा ज्वरो माहेश्वरो महान् ।
बाणरक्षार्थमभ्येत्य युयुधे शार्ङ्‍गधन्वना ॥ १४ ॥
तदनन्तर बाणासुरको रक्षाके लिये तीन सिर और तीन पैरवाला माहेश्वर नामक महान् ज्वर आगे बढ़कर श्रीभगवान्से लड़ने लगा ॥ १४ ॥

तद्‍भस्मस्पर्शसम्भूततापः कृष्णाङ्‍गसङ्‍गमात् ।
अवाप बलदेवोऽपि श्रममामीलितेक्षणः ॥ १५ ॥
[उस ज्वरका ऐसा प्रभाव था कि उसके फेंके हुए भस्मके स्पर्शसे सन्तप्त हुए श्रीकृष्णचन्द्र के शरीरका आलिंगन करनेपर बलदेवजीने भी शिथिल होकर नेत्र मूंद लिये ॥ १५ ॥

ततः स युद्ध्यमानस्तु सह देवेन शार्ङ्‍गिणा ।
वैष्णवेन ज्वरेणाशु कृष्णदेहान्निराकृतः ॥ १६ ॥
इस प्रकार भगवान् शार्ङ्‌गधरके साथ [उनके शरीरमें व्याप्त होकर] युद्ध करते हुए उस माहेश्वर ज्वरको वैष्णव ज्वरने तुरंत उनके शरीरसे निकाल दिया ॥ १६ ॥

नारायणभुजाघातपारिपीडनविह्वलम् ।
तं वीक्ष्य क्षम्यतामस्येत्याह देवः पितामहः ॥ १७ ॥
उस समय श्रीनारायणकी भुजाओंके आघातसे उस माहेश्वर । ज्वरको पीड़ित और विह्वल हुआ देखकर पितामह ब्रह्माजीने भगवान्से कहा-'इसे क्षमा कीजिये' ॥ १७ ॥

ततश्च क्षान्तमेवेति प्रोक्त्वा तं वैष्णवं ज्वरम् ।
आत्मन्येव लयं निन्ये भगवान्मधुसूदनः ॥ १८ ॥
तब भगवान् मधुसूदनने अच्छा, मैंने क्षमा की' ऐसा कहकर उस वैष्णव ज्वरको अपने में लीन कर लिया ॥ १८ ॥

ज्वर उवाच
मम त्वाय समं युद्धं ये स्मरीष्यन्ति मानवाः ।
विज्वरास्ते भविष्यन्तीत्युक्त्वा चैनं ययौ ज्वरः ॥ १९ ॥
ज्वर बोला-जो मनुष्य आपके साथ मेरे इस युद्धका स्मरण करेंगे वे ज्वरहीन हो जायेंगे, ऐसा कहकर वह चला गया ॥ १९ ॥

ततोग्नीन्भगवान्पञ्च जित्वा नीत्वा तथा क्षयम् ।
दानवानां बलं कृष्णश्‍चूर्णयामास लीलया ॥ २० ॥
तदनन्तर भगवान् कृष्णचन्द्रने पंचाग्नियोंको जीतकर नष्ट किया और फिर लीलासे ही दानवसेनाको नष्ट करने लगे ॥ २० ॥

ततःसमस्तसैन्येन दैतेयानां बलेःसुतः ।
युयुधे शङ्‍करश्चैव कार्त्तिकेयश्च शौरिणा ॥ २१ ॥
तब सम्पूर्ण दैत्यसेनाके सहित बलि-पुत्र वाणासुर, भगवान् शंकर और स्वामिकार्तिकेयजी भगवान् कृष्णके साथ युद्ध करने लगे ॥ २१ ॥

हरिशङ्‍करयोर्युद्धमतीवासीत्सुदारुणम् ।
चुक्षुभुः स कला लोकाः शस्त्रास्त्रांशुप्रतापितिः ॥ २२ ॥
श्रीहरि और श्रीमहादेवजीका परस्पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, इस युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रास्त्रोंके किरणजालसे सन्तप्त होकर सम्पूर्ण लोक क्षुब्ध हो गये ॥ २२ ॥

प्रलयोऽयमशेषस्य जगतो नूनमागतः ।
मेनिरे त्रिदशास्तत्र वर्तमाने महारणे ॥ २३ ॥
इस घोर युद्धके उपस्थित होनेपर देवताओंने समझा कि निश्चय ही यह सम्पूर्ण जगत्का प्रलयकाल आ गया है । ॥ २३ ॥

जृम्भकास्त्रेण गोविन्दो जृम्भयामास शङ्‍करम् ।
ततः प्रणेमुर्दैतेयाः प्रमथाश्च समन्ततः ॥ २४ ॥
श्रीगोविन्दने जृम्भकास्त्र छोड़ा जिससे महादेवजी निद्रितसे होकर जमुहाई लेने लगे; उनकी ऐसी दशा देखकर दैत्य और प्रमथगण चारों ओर भागने लगे । ॥ २४ ॥

जृम्भाभिभूतस्तु हरो रथोपस्थ उपाविशत् ।
न शशाक ततो योद्धुं कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा ॥ २५ ॥
भगवान् शंकर निद्राभिभूत होकर रथके पिछले भागमें बैठ गये और फिर अनायास ही अद्‌भुत कर्म करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध न कर सके ॥ २५ ॥

गरुडक्षतवाहश्च प्रद्युम्नास्त्रेण पीडितः ।
कृष्णहुङ्‍कारनिर्धूतशक्तिश्चापययौ गुहः ॥ २६ ॥
तदनन्तर गरुडद्वारा वाहनके नष्ट हो जानेसे, प्रद्युम्नजीके शस्त्रोंसे पीड़ित होनेसे तथा । कृष्णचन्द्र के हुंकारसे शक्तिहीन हो जानेसे स्वामिकार्तिकेय भी भागने लगे ॥ २६ ॥

जृम्भिते शङ्‍करे नष्टे दैत्यसैन्ये गुहे जिते ।
नीते प्रमथसैन्ये च संक्षयं शार्ङ्‍गधन्वना ॥ २७ ॥
नन्दिना सङ्‍गृहीताश्वमधिरूढो महारथम् ।
बाणस्तत्राययौ योद्धुं कृष्णकार्ष्णिबलैः सह ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा महादेवजीके निद्राभिभूत, दैत्य-सेनाके नष्ट, स्वामिकार्तिकेयके पराजित और शिवगणोंके क्षीण हो जानेपर कृष्ण, प्रद्युम्न और बलभद्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये वहाँ बाणासुर साक्षात् नन्दीश्वरद्वारा हाँके जाते हुए महान् रथपर चढ़कर आया ॥ २७-२८ ॥

बलभद्रो महावीर्यो बाणसैन्यमनेकधा ।
विव्याध बाणैः प्रभ्रश्य धर्मतश्चापलायत ॥ २९ ॥
उसके आते ही महावीर्यशाली बलभद्रजीने अनेकों बाण बरसाकर बाणासुरकी सेनाको छिन्न-भिन्न कर डाला; तब वह वीरधर्मसे भ्रष्ट होकर भागने लगी ॥ २९ ॥

आकृष्य लाङ्‍गलाग्रेण मुकलेनाशु ताडितम् ।
बलं बलेन ददृशे बाणो बाणैश्च चक्रिणा ॥ ३० ॥
बाणासुरने देखा कि उसकी सेनाको बलभद्रजी बड़ी फुर्तीसे हलसे खींच-खींचकर मूसलसे मार रहे हैं और श्रीकृष्णचन्द्र उसे बाणोंसे बीधे डालते हैं ॥ ३० ॥

ततः कृष्णेन बाणस्य युद्धमासीत्सुदारुणम् ॥ ३१ ॥
समस्यतोरिषून्दीप्तान्कायत्राणविभेदिनः ।
कृष्णश्चिच्छेद बाणैस्तान् बाणेन प्रहिताञ्छितान् ।
विव्याध केशवं बाणो बाणं विव्याध चक्रधृक् ॥ ३२ ॥
तब बाणासुरका श्रीकृष्णचन्द्रके साथ घोर युद्ध छिड़ गया । वे दोनों परस्पर कवचभेदी बाण छोड़ने लगे । परंतु भगवान् कृष्णने बाणासुरके छोड़े हुए तीखे बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला, और फिर बाणासुर कृष्णको तथा कृष्ण बाणासुरको बींधने लगे ॥ ३१-३२ ॥

मुमुचाते तथास्त्राणि बाणकृष्णौ जिगीषया ।
परस्परं क्षतिकरौ लाघवादनिशं द्विज ॥ ३३ ॥
हे द्विज ! उस समय परस्पर चोट करनेवाले बाणासुर और कृष्ण दोनों ही विजयकी इच्छासे निरन्तर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्र छोड़ने लगे ॥ ३३ ॥

भिद्यमानेष्वशेषेषु शरेष्वस्त्रे च सीदति ।
प्राचुर्येण ततो बाणं हन्तुं चक्रे हरिर्मनः ॥ ३४ ॥
अन्तमें, समस्त वाणोंके छिन्न और सम्पूर्ण अस्त्रशस्त्रोंके निष्फल हो जानेपर श्रीहरिने बाणासुरको मार डालनेका विचार किया ॥ ३४ ॥

ततोर्कशतसङ्‍घाततेजसा सदृशद्युति ।
जग्राह दैत्यचक्रारिर्हरिश्चक्रं सुदर्शनम् ॥ ३५ ॥
तब दैत्यमण्डलके शत्रु भगवान् कृष्णने सैकड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान अपने सुदर्शनचक्रको हाथमें ले लिया ॥ ३५ ॥

मुञ्चतो बाणनाशाय ततश्चक्रं मधुद्विषः ।
नग्ना दैतेयविद्याभूत्कोटरी पुरतो हरेः ॥ ३६ ॥
जिस समय भगवान् मधुसूदन बाणासुरको मारनेके लिये चक्र छोड़ना ही चाहते थे उसी समय दैत्योंकी विद्या (मन्त्रमयी कुलदेवी) कोटरी भगवान्के सामने नग्नावस्थामें उपस्थित हुई ॥ ३६ ॥

तामग्रतो हरिर्दृष्ट्‍वा मीलिताक्षः सुदर्शनम् ।
मुमोच बाणमुद्दिश्यच्छेत्तुं बाहुवनं रिपोः ॥ ३७ ॥
उसे देखते ही भगवान्ने नेत्र मूंद लिये और बाणासुरको लक्ष्य करके उस शत्रुकी भुजाओंके वनको काटनेके लिये सुदर्शनचक्र छोड़ा ॥ ३७ ॥

क्रमेण तत्तु बाहूनां बाणस्याच्युतचोदितम् ।
चेदं चक्रेऽसुरापास्तशस्त्रौघक्षपणादृतम् ॥ ३८ ॥
भगवान् अच्युतके द्वारा प्रेरित उस चक्रने दैत्योंके छोड़ेहुए अस्त्रसमूहको काटकर क्रमश: बाणासुरकी भुजाओंको काट डाला [केवल दो भुजाएँ छोड़ दी] ॥ ३८ ॥

चिन्ने बाहुवने तत्तु करस्थं मधुसूदनः ।
मुमुक्षुर्बाणनाशाय विज्ञातस्त्रिपुरद्विषा ॥ ३९ ॥
तब त्रिपुरशत्रु भगवान् शंकर जान गये कि श्रीमधुसूदन बाणासुरके बाहुवनको काटकर अपने हाथमें आये हुए चक्रको उसका वध करनेके लिये फिर छोड़ना चाहते है ॥ ३९ ॥

समुपेत्याह गोविन्दं सामपूर्वमुमापतिः ।
विलोक्य बाणं दोर्दण्डच्छेदासृक्स्राववर्षिणम् ॥ ४० ॥
अतः बाणासुरको अपने खण्डित भुजदण्डोंसे लोहकी धारा बहाते देख श्रीउमापतिने गोविन्दके पास आकर सामपूर्वक कहा- ॥ ४० ॥

शङ्‍कर उवाच
कृष्णकृष्ण जगन्नाथ जाने त्वां पुरुषोत्तमम् ।
परेशं परमात्मानमनादिनिधनं हरिम् ॥ ४१ ॥
श्रीशंकरजी बोले-हेकृष्ण ! हेकृष्ण ! ! हेजगन्नाथ ! ! मैं यह जानता है कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर. परमात्मा और आदि-अन्तसे रहित श्रीहरि हैं ॥ ४१ ॥

देवतिर्यङ्‍मनुष्येषु शरीरग्रहणात्मिका ।
लीलेयं सर्वभूतस्य तव चेष्टोपलक्षणा ॥ ४२ ॥
आप सर्वभूतमय हैं । आप जो देव, तिर्यक् और मनुष्यादि योनियों में शरीर धारण करते हैं यह आपकी स्वाधीन चेष्टाकी उपलक्षिका लीला ही है ॥ ४२ ॥

तत्प्रसीदाभयं दत्तं बाणस्यास्य मया प्रभो ।
तत्त्वाय नानृतं कार्यं यन्मया व्याहृतं वचः ॥ ४३ ॥
हे प्रभो ! आप प्रसन्न होइये । मैंने इस बाणासुरको अभयदान दिया है । हे नाथ ! मैंने जो वचन दिया है उसे आप मिथ्या न करें ॥ ४३ ॥

अस्मत्संश्रयदृप्तोऽयं नापराधी तवाव्यय ।
मया दत्तवरो दैत्यस्ततस्त्वां क्षमयाम्यहम् ॥ ४४ ॥
हे अव्यय ! यह आपका अपराधी नहीं है; यह तो मेरा आश्रय पानेसे ही इतना गर्वीला हो गया है । इस दैत्यको मैंने ही वर दिया था, इसलिये मैं ही आपसे इसके लिये क्षमा कराता हूँ ॥ ४४ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तः प्राह गोविदः शुलपाणिमुमापतिम् ।
प्रसन्नवदनो भूत्वा गतामर्षोऽसुरं प्रति ॥ ४५ ॥
श्रीपराशरजी बोले-त्रिशूलपाणि भगवान् उमापतिके इस प्रकार कहनेपर श्रीगोविन्दने बाणासुरके प्रति क्रोधभाव त्याग दिया और प्रसन्नवदन होकर उनसे कहा- ॥ ४५ ॥

श्रीभगवानुवाच
युष्मद्दत्तवरो बाणो जीवतामेष शङ्‍कर ।
त्वद्वाक्यगौरवादेतन्मया चक्रं निवर्तितम् ॥ ४६ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे शंकर ! यदि आपने इसे वर दिया है तो यह बाणासुर जीवित रहे । आपके वचनका मान रखनेके लिये मैं इस चक्रको रोके लेता हूँ ॥ ४६ ॥

त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया ।
मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्टुमर्हसि शङ्‍कर ॥ ४७ ॥
आपने जो अभय दिया है वह सब मैंने भी दे दिया । हे शंकर ! आप अपनेको मुझसे सर्वथा अभिन्न देखें ॥ ४७ ॥

योहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम् ।
मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि ॥ ४८ ॥
आप यह भली प्रकार समझ लें कि जो मैं हूँ सो आप हैं तथा यह सम्पूर्ण जगत्, देव, असुर और मनुष्य आदि कोई भी मुझसे भिन्न नहीं हैं ॥ ४८ ॥

अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः ।
वदन्ति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर ॥ ४९ ॥
प्रसन्नोऽहं गमिष्यामि त्वं गच्छ वृषभध्वज ॥ ५० ॥
हे हर ! जिन लोगोंका चित्त अविद्यासे मोहित है, वे भिन्नदर्शी पुरुष ही हम दोनोंमें भेद देखते और बतलाते हैं । हे वृषभध्वज ! मैं प्रसन्न हूँ, आप पधारिये, मैं भी अब जाऊँगा ॥ ४९-५० ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा प्रययौ कृष्णः प्राद्युम्निर्यत्र तिष्ठति ।
तद्‍बन्धफणिनो नेशुर्गरुडानिलपोथिताः ॥ ५१ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार कहकर भगवान् कृष्ण जहाँ प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध थे वहाँ गये । उनके पहुँचते ही अनिरुद्धके बन्धनरूप समस्त नागगण गरुडके वेगसे उत्पन्न हुए वायुके प्रहारसे नष्ट हो गये ॥ ५१ ॥

ततोऽनिरुद्धमारोप्य सपत्‍नीकं गरुत्मति ।
आजग्मुर्द्वारकां रामकार्ष्णिदामोदराः पुरीम् ॥ ५२ ॥
तदनन्तर सपत्नीक अनिरुद्धको गरुडपर चढ़ाकर बलराम, प्रद्युम्न और कृष्णचन्द्र द्वाराकापुरीमें लौट आये ॥ ५२ ॥

पुत्रपौत्रैः परिवृतस्तत्र रेमे जनार्दनः ।
देवीभिः सततं विप्र भूभारतरमेच्छया ॥ ५३ ॥
हे विप्र ! वहाँ भू-भार-हरणकी इच्छासे रहते हुए अपने पुत्र-पौत्रादिसे घिरे रहकर अपनी रानियोंके साथ रमण करने लगे ॥ ५३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः (३३)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

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