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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
चक्रे कर्म महच्छौरिर्बीभ्रणो मानुषीं तनुम् । जिगाय शक्रं शर्वं च सर्वान्देवांश्च लीलया ॥ १ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे गुरो ! श्रीविष्णुभगवान्ने मनुष्य-शरीर धारणकर जो लीलासे ही इन्द्र, शंकर और सम्पूर्ण देवगणको जीतकर महान् कर्म किये थे [वह मैं सुन चुका ] ॥ १ ॥ यच्चान्यदकरोत्कर्म दिव्यचेष्टविघातकृत् ।
तत्कथ्यतां महाभाग परं कौतूहलं हि मे ॥ २ ॥ इनके सिवा देवताओंकी चेष्टाओंका विघात करनेवाले उन्होंने और भी जो कर्म किये थे, हे महाभाग ! वे सब मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥ २ ॥ श्रीपराशर उवाच
गदतो मम विप्रर्षे श्रूयतामिदमादरात् । नरावतारे कृष्णेन दग्धा वाराणसी यथा ॥ ३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे ब्रह्मर्षे ! भगवान्ने मनुष्यावतार लेकर जिस प्रकार काशीपुरी जलायी थी वह मैं सुनाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो ॥ ३ ॥ पौण्ड्रको वासुदेवस्तु वासुदेवोऽभवद्भुवि ।
अवतीर्णस्त्वमित्युक्तो जनैरज्ञानमोहितैः ॥ ४ ॥ पौण्ड्रकवंशीय वासुदेव नामक एक राजाको अज्ञानमोहित पुरुष 'आप वासुदेवरूपसे पृथिवीपर अवतीर्ण हुए हैं' ऐसा कहकर स्तुति किया करते थे ॥ ४ ॥ स मेने वासुदेवोऽहमवतीर्णो महीतले ।
नष्टस्मृतिस्ततःसर्वं विष्णुचिह्नमचीकरत् ॥ ५ ॥ अन्तमें वह भी यही मानने लगा कि 'मैं वासुदेवरूपसे पृथिवीमें अवतीर्ण हुआ हूँ । ' इस प्रकार आत्मविस्मृत हो जानेसे उसने विष्णुभगवान्के समस्त चिह्न धारण कर लिये ॥ ५ ॥ दूतं च प्रेषयामास कृष्णाय सुमहात्मने ।
त्यक्त्वा चक्रादिकं चिह्नं मदीयं नाम चात्मनः ॥ ६ ॥ वासुदेवात्मकं मूढ त्यक्त्वा सर्वमशेषतः । आत्मनो जीवितार्थाय ततो मे प्रणतिं व्रज ॥ ७ ॥ और महात्मा कृष्णचन्द्रके पास यह सन्देश लेकर दूत भेजा कि "हे मूढ़ ! अपने वासुदेव नामको छोड़कर मेरे चक्र आदि सम्पूर्ण चिह्नोंको छोड़ दे और यदि तुझे जीवनकी इच्छा है तो मेरी शरणमें आ" ॥ ६-७ ॥ इत्युक्तःसम्प्रहस्यैनं दूतं प्राह जनार्दनः ।
निजचिह्नमहं चक्रं समुत्सृक्ष्ये त्वयीति वै ॥ ८ ॥ वाच्यश्च पौण्ड्रको गत्वा त्वया दूत वचो मम । ज्ञातस्त्वद्वाक्यसद्भावो यत्कार्यं तद्विधीयताम् ॥ ९ ॥ दूतने जब इसी प्रकार कहा तो श्रीजनार्दन उससे हँसकर बोले-"ठीक है, मैं अपने चित चक्रको तेरे प्रति छोड़ेगा । हे दूत ! मेरी ओरसे तू पौण्ड्रकसे जाकर यह कहना कि मैंने तेरे वाक्यका वास्तविक भाव समझ लिया है, तुझे जो करना हो सो कर ॥ ८-९ ॥ गृहीतचिह्नवेषोऽहमागमिष्यामि ते पुरम् ।
उत्स्रक्ष्यामि च तच्चक्रं निजचिह्नमसंशयम् ॥ १० ॥ मैं अपने चिहल और वेष धारणकर तेरे नगरमें आऊँगा और निस्सन्देह अपने चित चक्रको तेरे ऊपर छोड़ेगा ॥ १० ॥ आज्ञापूर्वं च यदिदमागच्छेति त्वयोदितम् ।
सम्पादयिष्ये श्वस्तुभ्यं समागम्याविलम्बितम् ॥ ११ ॥ 'और तूने जो आज्ञा करते हुए 'आ' ऐसा कहा है, सो मैं उसे भी अवश्य पालन करूँगा और कल शीघ्र ही तेरे पास पहुँचूँगा ॥ ११ ॥ शरणं ते समभ्येत्य कर्तास्मि नृपते तथा ।
यथा त्वत्तो भयं भूयो न मे किञ्चिद्भविष्यति ॥ १२ ॥ हे राजन् ! तेरी शरणमें आकर मैं वही उपाय करूँगा जिससे फिर तुझसे मुझे कोई भय न रहे ॥ १२ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तेपगते दूते संस्मृत्याभ्यागतं हरिः । गरुत्मन्तमथारुह्य त्वरितस्तत्पुरं ययौ ॥ १३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जब दूत चला गया तो भगवान् स्मरण करते ही उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर तुरंत उसको राजधानीको चले ॥ १३ ॥ ततस्तु केशवोद्योगं श्रुत्वा काशीपतिस्तदा ।
सर्वसैन्यपरिवारः पार्ष्णिग्राह उपाययौ ॥ १४ ॥ भगवान्के आक्रमणका समाचार सुनकर काशीनरेश भी उसका पृष्ठपोषक (सहायक) होकर अपनी सम्पूर्ण सेना ले उपस्थित हुआ ॥ १४ ॥ ततो बलेन महता काशीराजबलेन च ।
पौण्ड्रको वासुदेवोऽसौ केशवाभिमुखो ययौ ॥ १५ ॥ तदनन्तर अपनी महान् सेनाके सहित काशीनरेशकी सेना लेकर पौण्ड्रक वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आया ॥ १५ ॥ तं ददर्श हरिर्दूरादुदारस्यन्दने स्थितम् ।
चक्रहस्तं गदाशार्ङ्गबाहुं पाणिगताम्बुजम् ॥ १६ ॥ भगवान्ने दूरसे ही उसे हाथमें चक्र, गदा, शाङ्गधनुष और पा लिये एक उत्तम रथपर बैठे देखा ॥ १६ ॥ स्रग्धरं पीतवसनं सुपर्णरचितध्वजम् ।
वक्षःस्थले कृतं चास्य श्रीवत्सं ददृशे हरिः ॥ १७ ॥ श्रीहरिने देखा कि उसके कण्ठमें वैजयन्तीमाला है, शरीरमें पीताम्बर है, गरुडरचित ध्वजा है और वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचित हैं ॥ १७ ॥ किरीटकुण्डलधरं नानारत्नोपशोभितम् ।
तं दृष्ट्वा भावगम्भीरं जहास गरुडध्वजः ॥ १८ ॥ उसे नाना प्रकारके रत्नोंसे सुसज्जित किरीट और कुण्डल धारण किये देखकर श्रीगरुडध्वज भगवान् गम्भीरभावसे हँसने लगे ॥ १८ ॥ युयुधे च बलेनास्य हस्त्यश्वबलिना द्विज ।
निस्त्रिंशासिगदाशूलशक्तिकार्मुकशालिना ॥ १९ ॥ और हे द्विज ! उसकी हाथी-घोड़ोंसे बलिष्ठ तथा निस्त्रिंश खड्ग, गदा, शूल, शक्ति और धनुष आदिसे सुसज्जित सेनासे युद्ध करने लगे ॥ १९ ॥ क्षणेन शार्ङ्गनिर्मुक्तैः शरैररिविदारणैः ।
गदाचक्रनिपातैश्च सूदयामास तद्बलम् ॥ २० ॥ श्रीभगवान्ने एक क्षणमें ही अपने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े हुए शत्रुओंको विदीर्ण करनेवाले तीक्ष्ण बाणों तथा गदा और चक्रसे उसकी सम्पूर्ण सेनाको नष्ट कर डाला ॥ २० ॥ काशीराजबलं चैवं क्षयं नीत्वा जनार्दनः ।
उवाच पैण्ड्रकं मूढमात्मचिह्नोपलक्षितम् ॥ २१ ॥ इसी प्रकार काशिराजकी सेनाको भी नष्ट करके श्रीजनार्दनने अपने चिहनोंसे युक्त मूढमति पौण्ड्रकसे कहा ॥ २१ ॥ श्रीभगवानुवाच
पैण्ड्रकोक्तं त्वया यत्तु दूतवक्त्रेण मां प्रति । समुत्सृजेति चिह्नानि तत्ते सम्पादयाम्यहम् ॥ २२ ॥ श्रीभगवान् बोले-हे पौण्ड्रक ! मेरे प्रति तूने जो दूतके मुखसे यह कहलाया था कि मेरे चिहनोंको छोड़ दे सो मैं तेरे सम्मुख उस आज्ञाको सम्पन्न करता हूँ ॥ २२ ॥ चक्रमेतत्समुत्सृष्टं गदेयं ते विसर्जिता ।
गरुत्मानेष चोत्सृष्टः समारोहतु ते ध्वजम् ॥ २३ ॥ देख, यह मैंने चक्र छोड़ दिया, यह तेरे ऊपर गदा भी छोड़ दी और यह गरुड भी छोड़े देता हूँ, यह तेरी ध्वजापर आरूढ़ हों ॥ २३ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युच्चार्य विमुक्तेन चक्रेणासौ विदारितः । पातितो गदया भग्नो ध्वजश्चास्य गरुत्मता ॥ २४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कहकर छोड़े हुए चनने पौण्डकको विदीर्ण कर डाला, गदाने नीचे गिरा दिया और गरुडने उसकी ध्वजा तोड़ डाली ॥ २४ ॥ ततो हाहाकृते लोके काशीपुर्यधिपो बली ।
युयुधे वासुदेवेन मित्रस्यापचितौ स्थितः ॥ २५ ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण सेनामें हाहाकार मच जानेपर अपने मित्रका बदला चुकानेके लिये खड़ा हुआ काशीनरेश श्रीवासुदेवसे लड़ने लगा ॥ २५ ॥ ततः शार्ङ्गधनुर्मुक्तैश्छित्त्वा तस्य शिरः शरैः ।
काशीपुर्यां स चिक्षेप कुर्वंल्लोकस्य विस्मयम् ॥ २६ ॥ तब भगवान्ने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े हुए एक बाणसे उसका सिर काटकर सम्पूर्ण लोगोंको विस्मित करते हुए काशीपुरीमें फेंक दिया ॥ २६ ॥ हत्वा त पौड्रकं शौरि काशीराजं च सानुगम् ।
पुनर्द्वारवतीं प्राप्तो रेमे स्वर्गगतो यथा ॥ २७ ॥ इस प्रकार पौण्ड्रक और काशीनरेशको अनुचरोंसहित मारकर भगवान् फिर द्वारकाको लौट आये और वहाँ स्वर्ग सदृश सुखका अनुभव करते हुए रमण करने लगे ॥ २७ ॥ तच्छिरः पतितं तत्र दृष्ट्वा काशीपतेः पुरे ।
जनः किमेतदित्याहच्छिन्नं केनेति विस्मितः ॥ २८ ॥ इधर काशीपुरीमें काशिराजका सिर गिरा देख सम्पूर्ण नगरनिवासी विस्मयपूर्वक कहने लगे-'यह क्या हुआ ? इसे किसने काट डाला ?' ॥ २८ ॥ ज्ञात्वा तं वासुदेवेन हतं तस्य सुतस्ततः ।
पुरोहितेन सहितस्तोषयामास शङ्करम् ॥ २९ ॥ जब उसके पुत्रको मालूम हुआ कि उसे श्रीवासुदेवने मारा है तो उसने अपने पुरोहितके साथ मिलकर भगवान् शंकरको सन्तुष्ट किया ॥ २९ ॥ अविमुक्ते महाक्षेत्रे तोषितस्तेन शङ्करः ।
वरं वृणीष्वेति तदा तं प्रोवाच नृपात्मजम् ॥ ३० ॥ अविमुक्त महाक्षेत्रमें उस राजकुमारसे सन्तुष्ट होकर श्रीशंकरने कहा-'वर माँग' ॥ ३० ॥ स वव्रे भगवन्कृत्या पितृहन्तुर्वधाय मे ।
समुत्तिष्ठतु कृष्णस्य त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥ ३१ ॥ वह बोला-"हे भगवन् ! हे महेश्वर ! ! आपकी कृपासे मेरे पिताका वध करनेवाले कृष्णका नाश करनेके लिये (अग्निसे) कृत्या उत्पन्न हो"* ॥ ३१ ॥ श्रीपराशर उवाच
एवं भविष्यतीत्युक्ते दक्षिणाग्नेरनन्तरम् । महाकृत्या समुत्तस्थौ तस्यैवाग्नेर्विनाशिनी ॥ ३२ ॥ श्रीपराशरजी बोले- भगवान् शंकरने कहा, 'ऐसा ही होगा । ' उनके ऐसा कहनेपर दक्षिणाग्निका चयन करनेके अनन्तर उससे उस अग्निका ही विनाश करनेवाली कृत्या उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ ततो ज्वालाकरालास्या ज्वलत्केशकपालिका ।
कृष्णकृष्णेति कुपिता कृत्या द्वारवतीं ययौ ॥ ३३ ॥ उसका कराल मुख ज्वालामालाओंसे पूर्ण था तथा उसके केश अग्निशिखाके समान दीप्तिमान् और ताम्रवर्ण थे । वह क्रोधपूर्वक 'कृष्ण ! कृष्ण ! !' कहती द्वारकापुरीमें आयी ॥ ३३ ॥ तामवेक्ष्य जनस्त्रासाद्विचलल्लोचनो मुने ।
ययौ शरण्यं जगतां शरणं मधुसूदनम् ॥ ३४ ॥ हे मुने ! उसे देखकर लोगोंने भय-विचलित नेत्रोंसे जगद्गति भगवान् मधुसूदनकी शरण ली ॥ ३४ ॥ काशीराजसुतेनेयमाराध्य वृषभध्वजम् ।
उत्पादिता महाकृत्येत्यवगम्याथ चक्रिणा ॥ ३५ ॥ जहिकृत्यामिमामुग्रां वह्निज्वालाजटालकाम् । चक्रमुत्सृष्टमक्षेषु क्रीडासक्तेन लीलया ॥ ३६ ॥ जब भगवान् चक्रपाणिने जाना कि श्रीशंकरकी उपासना कर काशिराजके पुत्रने ही यह महाकृत्या उत्पन्न की है तो अक्षक्रीडामें लगे हुए उन्होंने लीलासे ही यह कहकर कि इस अग्निज्वालामयी जटाओंवाली भयंकर कृत्याको मार डाल' अपना चक्र छोड़ा ॥ ३५-३६ ॥ तदग्निमालाजटिलज्वालोद्गारातिभीषणाम् ।
कृत्यामनुजगामाशु विष्णुचक्रं सुदर्शनम् ॥ ३७ ॥ तब भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्रने उस अग्निमालामण्डित जटाओंवाली और अग्निज्वालाओंके कारण भयानक मुखवाली कृत्याका पीछा किया ॥ ३७ ॥ चक्रप्रतापनिर्दग्धा कृत्या माहेश्वरी तदा ।
ननाश वेगिनी वेगात्तदप्यनुजगाम ताम् ॥ ३८ ॥ उस चक्रके तेजसे दग्ध होकर छिन्न-भिन्न होती हुई वह माहेश्वरी कृत्या अति वेगसे दौड़ने लगी तथा वह चक्र भी उतनेही वेगसे उसका पीछा करने लगा ॥ ३८ ॥ कृत्या वाराणसीमेव प्रविवेश त्वरान्विता ।
विष्णुचक्रप्रतिहतप्रभावा मुनिसत्तम ॥ ३९ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्तमें विष्णुचक्रसे हतप्रभाव हुई कृत्याने शीघ्रतासे काशीमें ही प्रवेश किया ॥ ३९ ॥ ततः काशीबलं भूरि प्रमथानां तथा बलम् ।
समस्तशस्त्रास्त्रयुतं चक्रस्याभिमुखं ययौ ॥ ४० ॥ उस समय काशी-नरेशकी सम्पूर्ण सेना और प्रथमगण अस्त्रशस्त्रोंसे सुसज्जित होकर उस चक्रके सम्मुख आये ॥ ४० ॥ शस्त्रास्त्रमोक्षचतुरं दग्ध्वा तद्बलमोजसा ।
कृत्या गर्भमशेषां तां तदा वाराणसीं पुरीम् ॥ ४१ ॥ तब वह चक्र अपने तेजसे शस्त्रास्त्र-प्रयोगमें कुशल उस सम्पूर्ण सेनाको दग्धकर कृत्याके सहित सम्पूर्ण वाराणसीको जलाने लगा ॥ ४१ ॥ सभूभृद्भृत्यपौरां तु साश्वमातङ्गमानवाम् ।
अशेषगोष्ठकोशां तां दुर्निरिक्ष्यां सुरैरपि ॥ ४२ ॥ ज्वालापरिष्कृताशेषगृहप्राकारचत्वराम् । ददाह तद्धरेश्चक्रं सकलामेव तां पुरीम् ॥ ४३ ॥ जो राजा, प्रजा और सेवकोंसे पूर्ण थी, घोड़े, हाथी और मनुष्योंसे भरी थी सम्पूर्ण गोष्ठ और कोशोंसे युक्त थी और देवताओंके लिये भी दुर्दर्शनीय थी, उसी काशीपुरीको भगवान् विष्णुके उस चक्रने उसके गृह, कोट और चबूतरोंमें अग्निकी चालाएँ प्रकटकर जला डाला ॥ ४२-४३ ॥ अक्षीणामर्षमत्युग्रसाध्यसाधनसस्पृहम् ।
तच्चक्रं प्रस्फुरद्दीप्ति विष्णोरभ्याययौ करम् ॥ ४४ ॥ अन्तमें, जिसका क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ तथा जो अत्यन्त उग्र कर्म करनेको उत्सुक था और जिसकी दीप्ति चारों ओर फैल रही थी, वह चक्र फिर लौटकर भगवान् विष्णुके हाथमें आ गया ॥ ४४ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्जमेंऽशे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः (३४)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥ |