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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
भूय एवाहमिच्छामि बलभद्रस्य धीमतः । श्रोतुं पराक्रमं ब्रह्मन् तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे ब्रह्मन् ! अब मैं फिर मतिमान् बलभद्रजीके पराक्रमकी वार्ता सुनना चाहता हूँ, आप वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ यमुनाकर्षणादीनि श्रुतानि भगवन्मया ।
तत्कथ्यतां महाभाग यदन्यत्कृतवान्बलः ॥ २ ॥ हे भगवन् ! मैंने उनके यमुनाकर्षणादि पराक्रम तो सुन लिये; अब हे महाभाग ! उन्होंने जो और-और विक्रम दिखलाये हैं, उनका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥ श्रीपराशर उवाच
मैत्रेय श्रुयतां कर्म यद्रामेणाभवत्कृतम् । अनन्ते नाप्रमेयेन शेषेण धरणीधृता ॥ ३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! अनन्त, अप्रमेय, धरणीधर शेषावतार श्रीबलरामजीने जो कर्म किये थे, वह सुनो- ॥ ३ ॥ सुयोधनस्य तनयां स्वयंवरकृतक्षणाम् ।
बलादादत्तवान्वीरः साम्बो जाम्बवतीसुतः ॥ ४ ॥ एक बार जाम्बवतीनन्दन वीरवर साम्बने स्वयंवरके अवसरपर दुर्योधनकी पुत्रीको बलात् हरण किया ॥ ४ ॥ ततः क्रुद्धा महावीर्याः कर्णदुर्योधनादयः ।
भीष्मद्रोणादयश्चैनं बबन्धुर्युधि निर्जितम् ॥ ५ ॥ तब महावीर कर्ण, दुर्योधन, भीष्म और द्रोण आदिने क्रुद्ध होकर उसे युद्ध में हराकर बाँध लिया ॥ ५ ॥ तच्छुत्वा यादवाः सर्वे क्रोधं दुर्योधनादिषु ।
मैत्रेय चक्रुः कृष्णश्च तान्निहन्तुं महोद्यमम् ॥ ६ ॥ यह समाचार पाकर कृष्णचन्द्र आदि समस्त यादवोंने दुर्योधनादिपर क्रुद्ध होकर उन्हें मारनेके लिये बड़ी तैयारी की ॥ ६ ॥ तान्निवार्य बलः प्राह मदलोलकलाक्षरम् ।
मोक्ष्यन्ति ते मद्वचनाद्यास्याम्येको हि कौरवान् ॥ ७ ॥ उनको रोककर श्रीबलरामजीने मदिराके उन्मादसे लड़खड़ाते हुए शब्दोंमें कहा-"कौरवगण मेरे कहनेसे साम्बको छोड़ देंगे, अतः मैं अकेला ही उनके पास जाता हूँ" ॥ ७ ॥ श्रीपराशर उवाच
बलदेवस्ततो दृष्ट्वा नगरं नागसाह्वयम् । बाह्योपवनमध्येऽभून्न विवेश च तत्पुरम् ॥ ८ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर, श्रीबलदेवजी हस्तिनापुरके समीप पहुँचकर उसके बाहर एक उद्यानमें ठहर गये; उन्होंने नगरमें प्रवेश नहीं किया ॥ ८ ॥ बलमागतमाज्ञाय भूपा दुर्योधनादयः ।
गामर्घ्यमुदकं चैव रामाय प्रत्यवेदयन् ॥ ९ ॥ बलरामजीको आये जान दुर्योधन आदि राजाओंने उन्हें गौ, अर्घ्य और पाद्यादि निवेदन किये ॥ ९ ॥ गृहीत्वा विधिवत्सर्वं ततस्तानाह कौरवान् ।
आज्ञापयत्युग्रसेनः साम्बमाशु विमुञ्चत ॥ १० ॥ उन सबको विधिवत् ग्रहण कर बलभद्रजीने कौरवोंसे कहा-"राजा उग्रसेनकी आज्ञा है आपलोग साम्बको तुरन्त छोड़ दें" ॥ १० ॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा भीष्मद्रोणादयो नृपाः ।
कर्मदुर्योधनाद्याश्च चुक्षुभुर्द्विजसत्तम ॥ ११ ॥ हे द्विजसत्तम ! बलरामजीके इन वचनोंको सुनकर भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि राजाओंको बड़ा क्षोभ हुआ ॥ ११ ॥ ऊचुश्च कुपिताः सर्वे बाह्लिकाद्याश्च कौरवाः ।
अराज्यार्हं यदोर्वंशमवेक्ष्य मुसलायुधम् ॥ १२ ॥ और यदुवंशको राज्यपदके अयोग्य समझ बाहिक आदि सभी कौरवगण कुपित होकर मूसलधारी बलभद्रजीसे कहने लगे- ॥ १२ ॥ भो भो किमेतद्भवता बलभद्रेरितं वचः ।
आज्ञां कुरुकुलोत्थानां यादवः कः प्रदास्यति ॥ १३ ॥ "हे बलभद्र ! तुम यह क्या कह रहे हो; ऐसा कौन यदुवंशी है जो कुरुकुलोत्पन्न किसी वीरको आज्ञा दे ? ॥ १३ ॥ उग्रसेनोऽपि यद्याज्ञां कौरवाणां प्रदास्यति ।
तदलं पाण्डुरैश्छत्रैर्नृपयोग्यैर्विडम्बनैः ॥ १४ ॥ यदि उग्रसेन भी कौरवोंको आज्ञा दे सकता है तो राजाओंके योग्य कौरवोंके इस श्वेत छत्रका क्या प्रयोजन है ? ॥ १४ ॥ तद्गच्छबल मा वा त्वं साम्बमन्यायचेष्टितम् ।
विमोक्ष्यामो न भवतश्चोग्रसेनस्य शासनात् ॥ १५ ॥ अतः हे बलराम ! तुम जाओ अथवा रहो, हमलोग तुम्हारी या उग्रसेनकी आज्ञासे अन्यायकर्मा साम्बको नहीं छोड़ सकते ॥ १५ ॥ प्रणतिर्या कृतास्माकं मान्यानां कुकुरान्धकैः ।
न नाम सा कृता केयमाज्ञा स्वामिनि भृत्यतः ॥ १६ ॥ पूर्वकालमें कुकुर और अन्धकवंशीय यादवगण हम माननीयोंको प्रणाम किया करते थे सो अब वे ऐसा नहीं करते तो न सही, किन्तु स्वामीको यह सेवककी ओरसे आज्ञा देना कैसा ? ॥ १६ ॥ गर्वमारोपिता यूयं समानासनभोजनैः ।
को दोषो भवतां नीतिर्यत्प्रीत्या नावलोकिता ॥ १७ ॥ तुमलोगोंके साथ समान आसन और भोजनका व्यवहार करके तुम्हें हमहीने गर्वीला बना दिया है । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है; क्योंकि हमने ही प्रीतिवश नीतिका विचार नहीं किया ॥ १७ ॥ अस्माभिरर्घो भवतो योयं बल निवेदितः ।
प्रेम्णैतन्नैतदस्माकं कुलाद्युष्मत्कुलोचितम् ॥ १८ ॥ हे बलराम ! हमने जो तुम्हें यह अर्घ्य आदि निवेदन किया है यह प्रेमवश ही किया है, वास्तवमें हमारे कुलकी तरफसे तुम्हारे कुलको अादि देना उचित नहीं है" ॥ १८ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा कुरवः साम्बं मुञ्चामो न हरेःसुतम् । कृतैतनिश्चयस्तूर्णं विविशुर्गजसाह्वयम् ॥ १९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कहकर कौरवगण यह निश्चय करके कि "हम कृष्णके पुत्र साम्बको नहीं छोड़ेंगे" तुरन्त हस्तिनापुरमें चले गये ॥ १९ ॥ मत्तः कोपेन चाघूर्णंस्ततोऽधिक्षेपजन्मना ।
उत्थाय पार्ष्ण्या वसुधां जघान स हलायुधः ॥ २० ॥ तदनन्तर हलायुध श्रीबलरामजीने उनके तिरस्कारसे उत्पन्न हुए क्रोधसे मत्त होकर घूरते हुए पृथिवीमें लात मारी ॥ २० ॥ ततो विदारिता पृथ्वी पार्ष्णिघातान्महात्मनः ।
आस्फोटयामास तदा दिशः शब्देन पूरयन् ॥ २१ ॥ उवाच चातिताम्राक्षो भृकुटीकुटिलाननः ॥ २२ ॥ अहो मदावलेपोऽयमसाराणां दुरात्मनाम् । महात्मा बलरामजीके पाद-प्रहारसे पृथिवी फट गयी और वे अपने शब्दसे सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजाकर कम्पायमान करने लगे तथा लाललाल नेत्र और टेड़ी भृकुटि करके बोले- ॥ २१-२२ ॥ कौरवाणां महीपत्वमस्माकं किल कालजम् ।
उग्रसेनस्य येनाज्ञां मन्यन्तेऽद्यपि लङ्घनम् ॥ २३ ॥ "अहो ! इन सारहीन दुरात्मा कौरवोंको यह कैसा राजमदका अभिमान है । कौरवोंका महीपालत्व तो स्वतःसिद्ध है और हमारा सामयिक-ऐसा समझकर ही आज ये महाराज उग्रसेनकी आज्ञा नहीं मानते; बल्कि उसका उल्लंघन कर रहे हैं । ॥ २३ ॥ उग्रसेनः समध्यास्ते सुधर्मां न शचीपतिः ।
धिङ्मानुषशतोच्छिष्टे तुष्टिरेषां नृपासने ॥ २४ ॥ आज राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभामें स्वयं विराजमान होते हैं, उसमें शचीपति इन्द्र भी नहीं बैठने पाते । परन्तु इन कौरवोंको धिक्कार है जिन्हें सैकड़ों मनुष्योंके उच्छिष्ट राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है । ॥ २४ ॥ पारिजाततरोः पुष्पमञ्जरीर्वनिताजनः ।
बिभर्ति यस्य भृत्यानां सोऽप्येषां न महीपतिः ॥ २५ ॥ जिनके सेवकोंकी स्त्रियाँ भी पारिजात वृक्षकी पुष्प-मंजरी धारण करती हैं वह भी इन कौरवोंके महाराज नहीं हैं ? [यह कैसा आश्चर्य है ?] ॥ २५ ॥ समस्तभूभृतां नाथ उग्रसेनः स तिष्ठतु ।
अद्य निष्कौरवामुर्वीं कृत्वा यास्यामि तत्पुरीम् ॥ २६ ॥ वे उग्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओंके महाराज बनकर रहें । आज मैं अकेला ही पृथिवीको कौरवहीन करके उनकी द्वारकापुरीको जाऊँगा ॥ २६ ॥ कर्णं दुर्योधनं द्रोणमद्य भीष्मं सबाह्लिकम् ।
दुःशासनादीन्भूरिं च भूरिश्रवसमेव च ॥ २७ ॥ सोमदत्तं शलं चैव भीमार्जुनयुधिष्ठिरान् । यमौ च कौरवांश्चान्यान्हत्वा साश्वरथद्विपान् ॥ २८ ॥ वीरमादाय तं साम्बं सपत्नीकं ततः पुरीम् । द्वारकामुग्रसेनादीन्गत्वा द्रक्ष्यामि बान्धवान् ॥ २९ ॥ आज कर्ण, दुर्योधन, द्रोण, भीष्म, बाहिक, दुश्शासनादि, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त, शल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवोंको उनके हाथी-घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधूके साथ वीरवर साम्बको लेकर ही मैं द्वारकापुरीमें जाकर उग्रसेन आदि अपने बन्धुबान्धवोंको दे गा ॥ २७-२९ ॥ अथ वा कौरवावासं समस्तैः कुरुभिः सह ।
भागीरथ्यां क्षिपाम्याशु नगरं नागसाह्वयम् ॥ ३० ॥ अथवा समस्त कौरवोंके सहित उनके निवासस्थान इस हस्तिनापुर नगरको ही अभी गंगाजीमें फेंके देता हूँ" ॥ ३० ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा मदरक्ताक्षः कर्षणाधोमुखं हलम् । प्राकारवप्रदुर्गस्य चकर्ष मुसलायुधः ॥ ३१ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कहकर मदसे अरुणनयन मुसलायुध श्रीबलभद्रजीने हलकी नोंकको हस्तिनापुरके खाई और दुर्गसे युक्त प्राकारके मूल में लगाकर खींचा ॥ ३१ ॥ आघूर्णितं तत्सहसा ततो वै हास्तिनं पुरम् ।
दृष्ट्वा संक्षुब्धहृदयाश्चुक्षुभुः सर्वकौरवाः ॥ ३२ ॥ उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसा डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्धचित्त होकर भयभीत हो गये ॥ ३२ ॥ राम राम महाबाहो क्षम्यतां क्षम्यतां त्वया ।
उपसंह्रियतां कोपः प्रसीद मुसलायुध ॥ ३३ ॥ [और कहने लगे-]"हे राम ! हे राम ! हे महाबाहो ! क्षमा करो, क्षमा करो । हे मुसलायुध ! अपना कोप शान्त करके प्रसन्न होइये ॥ ३३ ॥ एष साम्बःसपत्नीकस्तवनिर्यातितो बलात् ।
अविज्ञातप्रभावाणां क्ष्मयतामपराधिनाम् ॥ ३४ ॥ हे बलराम ! हम आपको पत्नीके सहित इस साम्बको सौंपते हैं । हम आपका प्रभाव नहीं जानते थे, इसीसे आपका अपराध किया; कृपया क्षमा कीजिये" ॥ ३४ ॥ श्रीपराशर उवाच
ततो निर्यातयामासुः साम्बं पत्नीसमन्वितम् । निष्क्रम्य स्वपुरात्तूर्णं कौरवा मुनिपुङ्गव ॥ ३५ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर कौरवोंने तुरन्त ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया ॥ ३५ ॥ भीष्मद्रोणकृपादीनां प्रणम्य वदतां प्रियम् ।
क्षान्तमेव मयेत्याह बलो बलवतां वरः ॥ ३६ ॥ तब प्रणामपूर्वक प्रिय वाक्य बोलते हुए भीष्म, द्रोण, कृप आदिसे वीरवर बलरामजीने कहा-"अच्छा मैंने क्षमा किया" ॥ ३६ ॥ अद्याप्याघूर्णिताकारं लक्ष्यते तत्पुरं द्विज ।
एष प्रभावो रामस्य बलशौर्योपलक्षणः ॥ ३७ ॥ हे द्विज ! इस समय भी हस्तिनापुर [गंगाकी ओर] कुछ झुका हुआ-सा दिखायी देता है, यह श्रीबलरामजीके बल और शूरवीरताका परिचय देनेवाला उनका प्रभाव ही है ॥ ३७ ॥ ततस्तु कौरवाः साम्बं सम्पूज्य हलिना सह ।
प्रेषयामासुरुद्वाहधनभार्यासमन्वितम् ॥ ३८ ॥ तदनन्तर कौरवोंने बलरामजीके सहित साम्बका पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें द्वारकापुरी भेज दिया ॥ ३८ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः (३५)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ |