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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
मैत्रेयैतद्बलं तस्य बलस्य बलशालिनः । कृतं यदन्यत्तेनाभूत्तदपि श्रूयतां त्वया ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! बलशाली बलरामजीका ऐसा ही पराक्रम था । अब, उन्होंने जो और एक कर्म किया था वह भी सुनो ॥ १ ॥ नरकस्यासुरेद्रस्य देवपक्षविरोधिनः ।
सखाभवन्महावीर्यो द्विविदो वानरर्षभः ॥ २ ॥ द्विविद नामक एक महावीर्यशाली वानरत्रेष्ठ देवविरोधी दैत्यराज नरकासुरका मित्र था ॥ २ ॥ वैरानुबन्धं बलवान्स चकार सुरान्प्रति ।
नरकं हतवान्कृष्णो देवराजेन चोदितः ॥ ३ ॥ भगवान् कृष्णाने देवराज इन्द्रकी प्रेरणासे नरकासुरका वध किया था, इसलिये वीर वानर द्विविदने देवताओंसे वैर ठाना ॥ ३ ॥ करिष्ये सर्वदेवानां तस्मादेतत्प्रतीक्रियाम् ।
यज्ञविध्वंसनं कुर्वन् मर्त्यलोकक्षयं तथा ॥ ४ ॥ [उसने निश्चय किया कि] "मैं मर्त्यलोकका क्षय कर दूंगा और इस प्रकार यज्ञ-यागादिका उच्छेद करके सम्पूर्ण देवताओंसे इसका बदला चुका लूँगा" ॥ ४ ॥ ततो विध्वंसयामास यज्ञानज्ञानमोहितः ।
बिभेद साधुमर्यादां क्षयं चक्रे च देहिनाम् ॥ ५ ॥ तबसे वह अज्ञानमोहित होकर यज्ञोंको विध्वंस करने लगा और साधुमर्यादाको मिटाने तथा देहधारी जीवोंको नष्ट करने लगा ॥ ५ ॥ ददाह सवनान्देशान्पुरग्रमान्तराणि च ।
क्वचिच्च पर्वताक्षेपैर्ग्रामादीन्समचूर्णयत् ॥ ६ ॥ वह वन, देश, पुर और भिन्न-भिन्न ग्रामोंको जला देता तथा कभी पर्वत गिराकर ग्रामादिकॉको चूर्ण कर डालता ॥ ६ ॥ शैलानुत्पाट्य तोयेषु मुमोचाम्बुनिधौ तथा ।
पुनश्चार्णवमध्यस्थः क्षोभयामास सागरम् ॥ ७ ॥ कभी पहाड़ोंकी चट्टान उखाड़कर समुद्रके जलमें छोड़ देता और फिर कभी समुद्र में घुसकर उसे क्षुभित कर देता ॥ ७ ॥ तेन विक्षोभितश्चाब्धिरुद्वेलो द्विज जायते ।
प्लावयंस्तीरजान्ग्रामान्पुरादीनतिवेगवान् ॥ ८ ॥ हे द्विज ! उससे क्षुभित हुआ समुद्र ऊँचीऊँची तरंगोंसे उठकर अति वेगसे युक्त हो अपने तीरवर्ती ग्राम और पुर आदिको डुबो देता था ॥ ८ ॥ कामरूपी महारूपी कृत्वा सस्यान्यशेषतः ।
लुठन्भ्रमणसंमर्दैः सञ्चूर्णयति वानरः ॥ ९ ॥ वह कामरूपी वानर महान् रूप धारणकर लोटने लगता था और अपने लुण्ठनके संघर्षसे सम्पूर्ण धान्यों (खेतों) को कुचल डालता था ॥ ९ ॥ तेन विप्रकृतं सर्वं जगदेतद्दुरात्मना ।
निःस्वाध्यायवषट्कारं मैत्रेयासीत्सुदुःखितम् ॥ १० ॥ हे द्विज ! उस दुरात्माने इस सम्पूर्ण जगत्को स्वाध्याय और वषट्कारसे शून्य कर दिया था, जिससे यह अत्यन्त दुःखमय हो गया ॥ १० ॥ एकदारैवतोद्याने पपौ पानं हलायुधः ।
रेवती च महाभागा तथैवान्या वरस्त्रियः ॥ ११ ॥ एक दिन श्रीबलभद्रजी रैवतोद्यानमें [क्रीड़ासक्त होकर] मद्यपान कर रहे थे । साथ ही महाभागा रेवती तथा अन्य सुन्दर रमणियाँ भी थीं ॥ ११ ॥ उद्गीयमानो विलसल्ललनामौलिमध्यगः ।
रेमे यदुकुलश्रेष्ठः कुबेर इव मन्दरे ॥ १२ ॥ उस समय यदुश्रेष्ठ श्रीबलरामजी मन्दराचलपर्वतपर कुबेरके समान [रैवतकपर स्वयं] रमण कर रहे थे ॥ १२ ॥ ततःस वानरोऽभ्येत्य गृहीत्वा सीरिणो हलम् ।
मुसलं च चकारास्य संमुखं च विडम्बनम् ॥ १३ ॥ इसी समय वहाँ द्विविद वानर आया और श्रीहलधरके हल और मूसल लेकर उनके सामने ही उनकी नकल करने लगा ॥ १३ ॥ तथैव योषितां तासां जहासाभिमुखं कपिः ।
पानपूर्णांश्च करकाञ्चिक्षेपाहत्य वै तदा ॥ १४ ॥ वह दुरात्मा वानर उन स्त्रियोंकी ओर देख-देखकर हँसने लगा और उसने मदिरासे भरे हुए घड़े फोड़कर फेंक दिये ॥ १४ ॥ ततः कोपपरीतात्मा भर्त्सयामास तं हली ।
तथापि तमवज्ञाय चक्रे किलकिलध्वनिम् ॥ १५ ॥ तब श्रीहलधरने कुद्ध होकर उसे धमकाया तथापि वह उनकी अवज्ञा करके किलकारी मारने लगा ॥ १५ ॥ ततः स्मयित्वा स बलो जग्राह मुसलं रुषा ।
सोऽपि शैलशिलां भीमां जग्राह प्लवगोत्तमः ॥ १६ ॥ तदनन्तर श्रीबलरामजीने मुसकाकर क्रोधसे अपना मूसल उठा लिया तथा उस वानरने भी एक भारी चट्टान ले ली ॥ १६ ॥ चिक्षेप स च तां क्षिप्तां मुसलेन सहस्रधा ।
विभेद यादवश्रेष्ठः सा पपात महीतले ॥ १७ ॥ और उसे बलरामजीके ऊपर फेंकी, किन्तु यदुवीर बलभद्रजीने मूसलसे उसके हजारों टुकड़े कर दिये जिससे वह पृथिवीपर गिर पड़ी ॥ १७ ॥ अथ तन्मुसलं चासौ समुल्लङ्घ्य प्लवङ्गमः ।
वेगेनागत्य रोषेण करेणोरस्यताडयत् ॥ १८ ॥ तब उस वानरने बलरामजीके मूसलका वार बचाकर रोषपूर्वक अत्यन्त वेगसे उनकी छातीमें घूसा मारा ॥ १८ ॥ ततो बलेन कोपेन मुष्टिना मूर्ध्नि ताडितः ।
पपात रुधिरोद्गारी द्विविदः क्षीणजीवितः ॥ १९ ॥ तत्पश्चात् बलभद्रजीने भी क्रुद्ध होकर द्विविदके सिरमें घूसा मारा जिससे वह रुधिर वमन करता हुआ निर्जीव होकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥ १९ ॥ पतता तच्छरीरेण गिरेः शृङ्गमशीर्यत ।
मैत्रेय शतधा वज्रिवज्रेणेव विदारितम् ॥ २० ॥ हे मैत्रेय ! उसके गिरते समय उसके शरीरका आघात पाकर इन्द्र-वज्रसे विदीर्ण होनेके समान उस पर्वतके शिखरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ २० ॥ पुष्पवृष्टिं ततो देवा रामस्योपरि चिक्षिपुः ।
प्रशशंसुस्ततोऽभ्येत्य साध्वेतत्ते महत्कृतम् ॥ २१ ॥ उस समय देवतालोग बलरामजीके ऊपर फूल बरसाने लगे और वहाँ आकर "आपने यह बड़ा अच्छा किया" ऐसा कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २१ ॥ अनेन दुष्टकपिना दैत्यपक्षोपकारिणा ।
जगन्निराकृतं वीर दिष्ट्या स क्षयमागतः ॥ २२ ॥ इत्युक्त्वा दिवमाजग्मुर्देवा हृष्टाःसगुह्यकाः ॥ २३ ॥ "हे वीर ! दैत्यपक्षके उपकारक इस दुष्ट वानरने संसारको बड़ा कष्ट दे रखा था; यह बड़े ही सौभाग्यका विषय है कि आज यह आपके हाथों मारा गया । " ऐसा कहकर गुह्यकोंके सहित देवगण अत्यन्त हर्षपूर्वक स्वर्गलोकको चले आये ॥ २२-२३ ॥ श्रीपराशर उवाच
एवंविधान्यनेकानि बलदेवस्य धीमतः । कर्माण्यपरिमेयानि शेषस्य धरणीभृतः ॥ २४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-शेषावतार धरणीधर धीमान् बलभद्रजीके ऐसे ही अनेकों कर्म हैं, जिनका कोई परिमाण (तुलना) नहीं बताया जा सकता ॥ २४ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे षट्त्रिंशोध्यायः (३६)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ |