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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
एवं दैत्यवधं कृष्णे बलदेव सहायवान् ।
चक्रे दुष्टक्षितीशानां तथैव जगतः कृते ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! इसी प्रकार संसारके उपकारके लिये बलभद्रजीके सहित श्रीकृष्णचन्द्रने दैत्यों और दुष्ट राजाओंका वध किया ॥ १ ॥

क्षितेश्च भारं भगवान्फाल्गुनेन समन्वितः ।
अवतारयामास विभुःसमस्ताक्षोहिणीवधात् ॥ २ ॥
तथा अन्तमें अर्जुनके साथ मिलकर भगवान् कृष्णने अठारह अक्षौहिणी सेनाको मारकर पृथिवीका भार उतारा ॥ २ ॥

कृत्वा भारावतरणं भुवो हत्वाखिलान्नृपान् ।
शापव्याजेन विप्राणामुपसंहृतवान्कुलम् ॥ ३ ॥
इस प्रकार सम्पूर्ण राजाओंको मारकर पृथिवीका भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणों के शापके मिषसे अपने कुलका भी उपसंहार कर दिया ॥ ३ ॥

उत्सृज्य द्वारकां कृष्णस्त्यक्त्वा मानुष्यमात्मनः ।
सांशो विष्णुमयं स्थानं प्रविवेश मुने निजम् ॥ ४ ॥
हे मुने ! अन्तमें द्वारकापुरीको छोड़कर तथा अपने मानव-शरीरको त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने अंश (बलराम-प्रद्युम्नादि)-के सहित अपने विष्णुमय धाममें प्रवेश किया ॥ ४ ॥

मैत्रेय उवाच
स विप्रशापव्याजेन संजह्रेस्वकुलं कथम् ।
कथं च मानुषं देहमुत्ससर्जजनार्दनः ॥ ५ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे मुने ! श्रीजनार्दनने विप्रशापके मिषसे किस प्रकार अपने कुलका नाश किया और अपने मानव-देहको किस प्रकार छोड़ा ? ॥ ५ ॥

श्रीपराशर उवाच
विश्वमित्रस्तथाकण्वो नारदश्चमहामुनिः ।
पिण्डारके महारीर्थे दृष्ट्‍वा यदुकुमारकैः ॥ ६ ॥
श्रीपराशरजी बोले-एक बार कुछ यदुकुमारोंने महातीर्थ पिण्डारक क्षेत्रमें विश्वामित्र, कण्व और नारद आदि महामुनियोंको देखा ॥ ६ ॥

ततस्ते यौवनोन्मत्ता भाविकार्यप्रचोदिताः ।
साम्बं जाम्बवतीपुत्रं भूषयित्वा स्त्रियं यथा ॥ ७ ॥
प्रश्रितास्तान्मुनीनूचुः प्रणिपातपुरःसरम् ।
इयं स्त्री पुत्रकामा वै ब्रूत किं जनयिष्यति ॥ ८ ॥
तब यौवनसे उन्मत्त हुए उन बालकोंने होनहारकी प्रेरणासे जाम्बवतीके पुत्र साम्बका स्वी वेष बनाकर उन मुनीश्वरोंको प्रणाम करनेके अनन्तर अति नम्रतासे पूछा-"इस स्त्रीको पुत्रकी इच्छा है, हे मुनिजन ! कहिये यह क्या जनेगी ?" ॥ ७-८ ॥

श्रीपराशर उवाच
दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते विप्रलब्धाः कुमारकैः ।
मुनयः कुपिताः प्रोचुर्मुसलं जनयिष्यति ॥ ९ ॥
सर्वयादवसंहारकारणं भुवनोत्तरम् ।
येनाखिलकुलोत्सादौ यादवानां भविष्यति ॥ १० ॥
श्रीपराशरजी बोले-यदुकुमारोंके इस प्रकार धोखा देनेपर उन दिव्य ज्ञानसम्पन्न मुनिजनोंने कुपित होकर कहा-"यह एक लोकोत्तर मूसल जनेगी, जो समस्त यादोंके नाशका कारण ोगा और जिससे यादोंका सम्पूर्ण कुल संसारमें निर्मूल हो जायगा ॥ ९-१० ॥

इत्युक्तास्ते कुमारास्तु आचचक्षुर्यथातथम् ।
उग्रसेनाय मुसलं जज्ञे साम्बस्य चोदरात् ॥ ११ ॥
मुनिगणके इस प्रकार कहनेपर उन कुमारोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों राजा उग्रसेनसे कह दिया तथा साम्बके पेटसे एक मूसल उत्पन्न हुआ ॥ ११ ॥

तदुग्रसेनो मुसलमयश्‍चूर्णमकारयत् ।
जज्ञे तदेरकायूर्णं प्रक्षिप्तं तैर्महोदधौ ॥ १२ ॥
उग्रसेनने उस लोहमय मूसलका चूर्ण करा डाला और उसे उन बालकोंने [ले जाकर] समुद्रमें फेंक दिया, उससे वहाँ बहुत-से सरकण्डे उत्पन्न हो गये ॥ १२ ॥

मुसलस्याथ लोहस्य पूर्णितस्य तु यादवैः ।
खण्डं चूर्णितशेषं तु ततो यत्तोमराकृति ॥ १३ ॥
तदप्यम्बुनिधौ क्षिप्तं मत्स्यो जग्राह जालिभिः ।
घातितस्योदरात्तस्य लुब्धो जग्रह तज्जराः ॥ १४ ॥
यादोंद्वारा चूर्ण किये गये इस मूसलके लोहेका जो भालेकी नोंकके समान एक खण्ड चूर्ण करनेसे बचा उसे भी समुद्रहीमें फिकवा दिया । उसे एक मछली निगल गयी । उस मछलीको मछेरोंने पकड़ लिया तथा चीरनेपर उसके पेटसे निकले हुए उस मूसलखण्डको जरा नामक व्याधने ले लिया ॥ १३-१४ ॥

विज्ञातपरमार्थोऽपि भगवान्मधुसूदनः ।
नैच्छत्तदन्यथा कर्तुं विधिना यत्समीहितम् ॥ १५ ॥
भगवान् मधुसूदन इन समस्त बातोंको यथावत् जानते थे तथापि उन्होंने विधाताकी इच्छाको अन्यथा करना न चाहा ॥ १५ ॥

देवैश्च प्रहितो वायुः प्रणिपत्याह केशवम् ।
रजस्येवमहं दूतः प्रहितो भगवन्सुरैः ॥ १६ ॥
इसी समय देवताओंने वायुको भेजा । उसने एकान्तमें श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करके का-"भगवन् ! मुझे देवताओंने दूत बनाकर भेजा है ॥ १६ ॥

वस्वश्विमरुदादित्यरुद्रसाध्यादिभिः सह ।
विज्ञापयति शक्रस्त्वां तदिदं श्रूयतां विभो ॥ १७ ॥
"हे विभो ! वसुगण, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, मरुद्‌गण और साध्यादिके सहित इन्द्रने आपको जो सन्देश भेजा है वह सुनिये ॥ १७ ॥

भारावतरणार्थाय वर्षाणामधिकं शतम् ।
भगवानवतीर्णोऽत्र त्रिदशशैः सह चोदितः ॥ १८ ॥
हे भगवन् ! देवताओंकी प्रेरणासे उनके ही साथ पृथिवीका भार उतारनेके लिये अवतीर्ण हुए आपको सौ वर्षसे अधिक बीत चुके हैं ॥ १८ ॥

दुर्वृत्ता निहता दैत्या भुवो भारोऽवतारितः ।
त्वया सनाथास्त्रिदशा भवन्तु त्रिदिवे सदा ॥ १९ ॥
अब आप दुराचारी दैत्योंको मार चुके और पृथिवीका भार भी उतार चुके, अतः [हमारी प्रार्थना है कि अब देवगण सर्वदा स्वर्गमें ही आपसे सनाथ हों [अर्थात् आप स्वर्ग पधारकर देवताओंको सनाथ करें] ॥ १९ ॥

तदतीतं जगन्नाथ वर्षाणामधिकं शतम् ।
इदानीं गम्यतां स्वर्गो भवता यदि रोचते ॥ २० ॥
हे जगन्नाथ ! आपको भूमण्डलमें पधारे हुए सौ वर्षसे अधिक हो गये, अब यदि आपको पसन्द आवे तो स्वर्गलोक पधारिये ॥ २० ॥

देवैर्विज्ञाप्यते देव तथात्रैव रतिस्तव ।
तत्स्थीयतां यथाकालमास्थेयमनुजीविभिः ॥ २१ ॥
हे देव ! देवगणका यह भी कधन है कि यदि आपको यहीं रहना अच्छा लगे तो रहें, सेवकोंका तो यही धर्म है कि [स्वामीको] यथासमय कर्तव्यका निवेदन कर दे" ॥ २१ ॥

श्रीभगवानुवाच
यत्त्वमात्थाखिलं दूत वेद्म्येतदहमप्युत ।
प्रारब्ध एव हि मया यादवानां परिक्षयः ॥ २२ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे दूत ! तुम जो कुछ कहते हो वह मैं सब जानता हूँ, इसलिये अब मैंने यादवोंके नाशका आरम्भ कर ही दिया है ॥ २२ ॥

भुवो नाद्यापि भारोऽयं यादवैरनिबर्हितैः ।
अवतार्य करोम्येतत्सप्तरात्रेण सत्वरः ॥ २३ ॥
इन यादवोंका संहार हुए बिना अभीतक पृथिवीका भार हल्का नहीं हुआ है, अतः अब सात रात्रिके भीतर [इनका संहार करके] पृथिवीका भार उतारकर मैं शीघ्र ही [जैसा तुम कहते हो] वही करूँगा ॥ २३ ॥

यथा गृहीतमम्भोधेर्दत्त्वाहं द्वारकाभुवम् ।
यादवानुपसंहृत्य यास्यामि त्रिदशालयम् ॥ २४ ॥
जिस प्रकार यह द्वारकाकी भूमि मैंने समुद्रसे मांगी थी इसे उसी प्रकार उसे लौटाकर तथा यादवोंका उपसंहार कर मैं स्वर्गलोकमें आऊँगा ॥ २४ ॥

मनुष्यदेहमुत्सृज्य संकर्षणसहायवान् ।
प्राप्त एवास्मि मन्तव्यो देवेन्द्रेण तथामरैः ॥ २५ ॥
अब देवराज इन्द्र और देवताओंको यह समझना चाहिये कि संकर्षणके सहित मैं मनुष्य-शरीरको छोड़कर स्वर्ग पहुँच ही चुका हूँ ॥ २५ ॥

जरासन्धादयो येऽन्ये निहता भारहेतवः ।
क्षितेस्तेभ्यः कुमारोऽपि यदूनां नापचीयते ॥ २६ ॥
पृथिवीके भारभूत जो जरासन्ध आदि अन्य राजागण मारे गये हैं, ये यदुकुमार भी उनसे कम नहीं हैं ॥ २६ ॥

तदेतं सुमहाभारमवतार्य क्षितेरहम् ।
यास्याम्यमरलोकस्य पालनाय ब्रवीहि तान् ॥ २७ ॥
अत: तुम देवताओंसे जाकर कहो कि मैं पथिवीके इस महाभारको उतारकर ही देवलोकका पालन करनेके लिये स्वर्गमें आऊँगा । ॥ २७ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तो वासुदेवेन देवदूतः प्रणम्य तम् ।
मैत्रेय दिव्यया गत्या देवराजान्तिकं ययौ ॥ २८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! भगवान् वासुदेवके इस प्रकार कहनेपर देवदूत वायु उन्हें प्रणाम करके अपनी दिव्य गतिसे देवराजके पास चले आये ॥ २८ ॥

भगवानप्यथोत्पातान्दिव्यभौमान्तरिक्षजान् ।
ददर्श द्वारकापुर्यां विनाशाय दिवानिशम् ॥ २९ ॥
भगवान्ने देखा कि द्वारकापुरीमें रात-दिन नाशके सूचक दिव्य, भौम और अन्तरिक्ष-सम्बन्धी महान् उत्पात हो रहे हैं ॥ २९ ॥

तान्दृष्ट्‍वा यादवानाह पश्यध्वमतिदारुणान् ।
महोत्पाताञ्चमायैषां प्रभासं याम मा चिरम् ॥ ३० ॥
उन उत्पातोंको देखकर भगवान्ने यादवोंसे कहा- "देखो, ये कैसे घोर उपद्रव हो रहे हैं, चलो, शीघ्र ही इनकी शान्तिके लिये प्रभासक्षेत्रको चलें" ॥ ३० ॥

श्रीपराशर उवाच
एवमुक्ते तु कृष्णेन यादवप्रवारस्ततः ।
महाभागवतः प्राह प्रणिपत्योद्धवो हरिम् ॥ ३१ ॥
श्रीपराशरजी बोले-कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर महाभागवत यादवश्रेष्ठ उद्धवने श्रीहरिको प्रणाम करके कहा- ॥ ३१ ॥

भगवन्यन्मया कार्यं तदाज्ञापय साम्प्रतम् ।
मन्ये कुलमिदं सर्वं भगवान्संहरिष्यति ॥ ३२ ॥
नाशायास्य निमित्तानि कुलस्याच्युत लक्षये ॥ ३३ ॥
"भगवन् ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब आप इस कुलका नाश करेंगे; क्योंकि हे अच्युत ! इस समय सब ओर इसके नाशके सूचक कारण दिखायी दे रहे हैं, अतः मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूँ ?" ॥ ३२-३३ ॥

श्रीभगवानुवाच
गच्छ त्वं दिव्यया गत्या मत्प्रसादसमुत्थया ।
यद्‍बदर्याश्रमं पुण्यं गन्धमादनपर्वते ।
नरनारायणस्थाने तत्पवित्रं महीतले ॥ ३४ ॥
श्रीभगवान् बोले-हे उद्धव ! अब तुम मेरी कृपासे प्राप्त हुई दिव्य गतिसे नर-नारायणके निवासस्थान गन्धमादनपर्वतपर जो पवित्र बदरिकाश्रम क्षेत्र है वहाँ जाओ । पृथिवीतलपर वही सबसे पावन स्थान है ॥ ३४ ॥

मन्मना मत्प्रसादेन तत्र सिद्धिमवाप्स्यसि ।
अहं स्वर्गं गमिष्यामि ह्युपसंहृत्य वैकुलम् ॥ ३५ ॥
वहाँपर मुझमें चित्त लगाकर तुम मेरी कृपासे सिद्धि प्राप्त करोगे । अब मैं भी इस कुलका संहार करके स्वर्गलोकको चला जाऊँगा ॥ ३५ ॥

द्वारकां च मया त्यक्तां समुद्रः प्लावयिष्यति ।
मद्वेश्म चैकं मुक्त्वातु भयान्मत्तो जलाशये ।
तत्र सन्निहितश्चाहं भक्तानां हितकाम्यया ॥ ३६ ॥
मेरे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण द्वारकाको समुद्र जलमें डुबो देगा; मुझसे भय माननेके कारण केवल मेरे भवनको छोड़ देगा; अपने इस भवनमें मैं भक्तोंकी हितकामनासे सर्वदा निवास करता हूँ ॥ ३६ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तः प्रणिपत्यैनं जगामाशु तपोवनम् ।
नरनारायणस्थानं केशवेनानुमोदितः ॥ ३७ ॥
श्रीपराशरजी बोले- भगवान्के ऐसा कहनेपर उद्धवजी उन्हें प्रणामकर तुरन्त ही उनके बतलाये हुए तपोवन श्रीनरनारायणके स्थानको चले गये ॥ ३७ ॥

ततस्ते यादवाःसर्वे रथानारुह्य शीघ्रगान् ।
प्रभासं प्रययुःसार्धं कृष्णरामादिभिर्द्विज ॥ ३८ ॥
हे द्विज ! तदनन्तर कृष्ण और बलराम आदिके सहित सम्पूर्ण यादव शीघ्रगामी रथोंपर चढ़कर प्रभासक्षेत्रमें आये ॥ ३८ ॥

प्रभासं समनुप्राप्ताः कुकुरान्धकवृष्णयः ।
चक्रुस्तत्र महापानं वासुदेवेन चोदिताः ॥ ३९ ॥
वहाँ पहुँचकर कुकुर, अन्धक और वृष्णि आदि वंशोंके समस्त यादवोंने कृष्णचन्द्रकी प्रेरणासे महापान और भोजन किया ॥ ३९ ॥

पिबतां तत्र चैतेषां सङ्‍घर्षेण परस्परम् ।
अतिवादेन्धनो जज्ञे कलहाग्निः क्षयावहः ॥ ४० ॥
पान करते समय उनमें परस्पर कुछ विवाद हो जानेसे वहाँ कुवाक्यरूप ईधनसे युक्त प्रलयकारिणी कलहाग्नि धधक उठी ॥ ४० ॥

मैत्रेय उवाच
स्वं स्वं वै भुञ्जतां तेषां कलहः किंनिमित्तकः ।
सङ्‍घर्षो वा द्विजश्रेष्ठ तन्ममाख्यातुमर्हसि ॥ ४१ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे द्विज ! अपना-अपना भोजन करते हुए उन यादवोंमें किस कारणसे कलह (वाग्युद्ध) अथवा संघर्ष (हाथापाई) हुआ, सो आप कहिये ॥ ४१ ॥

श्रीपराशर उवाच
मृष्टं मदीयमन्नं ते न मृष्टमिति जल्पताम् ।
मृष्टामृष्टकथा जज्ञे सङ्‍घर्षकलहौ ततः ॥ ४२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-'मेरा भोजन शुद्ध है, तेरा अच्छा नहीं है । ' इस प्रकार भोजनके अच्छे-बुरेकी चर्चा करते-करते उनमें परस्पर विवाद और हाथापाई हो गयी ॥ ४२ ॥

ततश्चान्योन्यमभ्येत्य क्रिधसंरक्तलोचनाः ।
जघ्नुः परस्परं ते तु शस्त्रैर्दैवबलात्कृताः ॥ ४३ ॥
क्षीणशस्त्राश्च जगृहुः प्रत्यासन्नामथैरकाम् ॥ ४४ ॥
तब वे दैवी प्रेरणासे विवश होकर आपसमें क्रोधसे रक्तनेत्र हुए एक-दूसरेपर शस्त्रप्रहार करने लगे और जब शस्त्र समाप्त हो गये तो पासहीमें उगे हुए सरकण्डे ले लिये ॥ ४३-४४ ॥

एरका तु गृहीता वै वज्रभूतेव लक्ष्यते ।
तया परस्परं जघ्नुः सम्प्रहारे सुदारुणे ॥ ४५ ॥
उनके हाथमें लगे हुए वे सरकण्डे वज्रके समान प्रतीत होते थे, उन वज्रतुल्य सरकण्डोंसे ही वे उस दारुण युद्धमें एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे ॥ ४५ ॥

प्रद्युम्नसाम्बप्रमुखाः कृतवर्माथ सात्यकिः ।
अनिरुद्धादयश्चान्ये पृथुर्विपृथुरेव च ॥ ४६ ॥
चारुवर्मा चारुकश्च तथाक्रूरादयो द्विज ।
एरकारूपिभिर्वज्रैस्ते निजघ्नुः परस्परम् ॥ ४७ ॥
हे द्विज ! प्रद्युम्न और साम्ब आदि कृष्णपुत्रगण, कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध आदि तथा पृथु, विपृथु, चारुवर्मा, चारुक और अक्रूर आदि यादवगण एक-दूसरेपर एरकारूपी वोंसे प्रहार करने लगे ॥ ४६-४७ ॥

निवारयामास हरिर्यादवांस्ते च केशवम् ।
सहायं मेनिरेऽरीणां प्राप्तं जघ्नुः परस्परम् ॥ ४८ ॥
जब श्रीहरिने उन्हें आपसमें लड़नेसे रोका तो उन्होंने उन्हें अपने प्रतिपक्षीका सहायक होकर आये हुए समझा और [उनकी बातकी अवहेलनाकर एक-दूसरेको मारने लगे ॥ ४८ ॥

कृष्णोऽपि कुपितस्तेषामेरकामुष्टिमाददे ।
वधाय सोऽपि मुसलं मुष्टर्लौहमभूत्तदा ॥ ४९ ॥
कृष्णचन्द्रने भी कुपित होकर उनका वध करनेके लिये एक मुट्ठी सरकण्डे उठा लिये । वे मुट्ठीभर सरकण्डे लोहेके मूसल [समान] हो गये ॥ ४९ ॥

जघान तेन निःशेषान्यादवानाततायिनः ।
जघ्नुस्ते सहसाभ्येत्य तथान्येऽपि परस्परम् ॥ ५० ॥
उन मूसलरूप सरकण्डोंसे कृष्णचन्द्र सम्पूर्ण आततायी यादवोंको मारने लगे तथा अन्य समस्त यादव भी वहाँ आ-आकर एक-दूसरेको मारने लगे ॥ ५० ॥

ततश्चार्णवमध्येन जैत्रोऽसौ चक्रिणो रथः ।
पश्यतो दारुकस्याथ प्रायादश्वैर्धृतो द्विज ॥ ५१ ॥
हे द्विज ! तदनन्तर भगवान् कृष्णचन्द्रका जैत्र नामक रथ घोड़ोंसे आकृष्ट हो दारुकके देखते-देखते समुद्रके मध्यपथसे चला गया ॥ ५१ ॥

चक्रं गदा तथा शार्ङ्‍ग तूणी शङ्‍खोसिरेव च ।
प्रदक्षिणं हरिं कृत्वा जग्मुरादित्यवर्त्मना ॥ ५२ ॥
इसके पश्चात् भगवान्के शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्‌गधनुष, तरकश और खड्ग आदि आयुध श्रीहरिको प्रदक्षिणा कर सूर्यमार्गसे चले गये ॥ ५२ ॥

क्षणेन नाभवत्कश्चिद्यादवानामघातितः ।
ऋते कृष्णं महात्मानं दारुकं च महामुने ॥ ५३ ॥
हे महामुने ! एक क्षणमें ही महात्मा कृष्णचन्द्र और उनके सारथी दारुकको छोड़कर और कोई यदुवंशी जीवित न बचा ॥ ५३ ॥

चङ्‍क्रम्यमाणौ तौ रामं वृक्षमूले कृतासनम् ।
ददृशाते मुखाच्चास्य निष्क्रामन्तं महोरगम् ॥ ५४ ॥
उन दोनोंने वहाँ घूमते हुए देखा कि श्रीबलरामजी एक वृक्षके तले बैठे हैं और उनके मुखसे एक बहुत बड़ा सर्प निकल रहा है ॥ ५४ ॥

निष्क्रम्य स मुखात्तस्य महाभोगो भुजङ्‍गमः ।
प्रययावर्णवं सिद्धैः पुज्यमानस्तथोरगैः ॥ ५५ ॥
वह विशाल फणधारी सर्प उनके मुखसे निकलकर सिद्ध और नागोंसे पूजित हुआ समुद्रकी ओर गया ॥ ५५ ॥

ततोऽर्घ्यमादाय तदा जलधिः संमुखं ययौ ।
प्रविवेश ततस्तोयं पूजितः पन्नगोत्तमैः ॥ ५६ ॥
उसी समय समुद्र अर्घ्य लेकर उस (महासर्प)-के सम्मुख उपस्थित हुआ और वह नागश्रेष्ठोंसे पूजित हो समुद्रमें घुस गया ॥ ५६ ॥

दृष्ट्‍वा बलस्य निर्याणं दारुकं प्राह केशवः ।
इदं सर्वं समाचक्ष्व वसुदेवोग्रसेनयोः ॥ ५७ ॥
इस प्रकार श्रीबलरामजीका प्रयाण देखकर श्रीकृष्णचन्द्रने दारुकसे कहा-"तुम यह सब वृत्तान्त उग्रसेन और वसुदेवजीसे जाकर कहो" ॥ ५७ ॥

निर्याणं बलभद्रस्य यादवानां तथा क्षयम् ।
योगो स्थित्वाहमप्येतत्परित्यक्ष्ये कलेवरम् ॥ ५८ ॥
बलभद्रजीका निर्याण, यादवोंका क्षय और मैं भी योगस्थ होकर शरीर छोड़ेगा-[यह सब समाचार उन्हें] जाकर सुनाओ ॥ ५८ ॥

वाच्यश्च द्वारकावासी जनः सर्वस्तथाहुकः ।
यथेमां नगरीं सर्वां समुद्रः प्लावयिष्यति ॥ ५९ ॥
सम्पूर्ण द्वारकावासी और आहुक (उग्रसेन)से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरीको समुद्र डुबो देगा ॥ ५९ ॥

तस्माद्‍भवद्‌‍भिः सर्वैस्तु प्रतीक्ष्यो ह्यर्जुनागमः ।
न स्थेयं द्वारकामध्ये निष्क्रान्ते तत्र पाण्डवे ॥ ६० ॥
तेनैव सह गन्तव्यं यत्र याति स कौरवः ॥ ६१ ॥
इसलिये आप सब केवल अर्जुनके आगमनकी प्रतीक्षा और करें तथा अर्जुनके यहाँसे लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारकामें न रहे; जहाँ वे कुरुनन्दन जायँ वहीं सब लोग चले जायें ॥ ६०-६१ ॥

गत्वा च ब्रूहि कैन्तेयमर्जुनं वचनान्मम ।
पालनीयस्त्वया शक्त्या जनोऽयं मत्परिग्रहः ॥ ६२ ॥
कुन्तीपुत्र अर्जुनसे तुम मेरी ओरसे कहना कि "अपने सामर्थ्यानुसार तुम मेरे परिवारके लोगों की रक्षा करना" ॥ ६२ ॥

त्वमर्जुनेन सहितो द्वारवत्यां तथा जनम् ।
गृहीत्वा याहि वज्रश्च यदुराजो भविष्यति ॥ ६३ ॥
और तुम द्वारकावासी सभी लोगोंको लेकर अर्जुनके साथ चले जाना । [हमारे पीछे] वज़ यदुवंशका राजा होगा ॥ ६३ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तो दारुकः कृष्णं प्रणिपत्य पुनः पुनः ।
प्रदक्षिणं च बहुशः कृत्वा प्रायाद्यथोदितम् ॥ ६४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके इस प्रकार कहनेपर दारुकने उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और उनकी अनेक परिक्रमाएँ कर उनके कथनानुसार चला गया ॥ ६४ ॥

स च गत्वा तदाचष्ट द्वारकायां तथार्जुनम् ।
आनिनाय महाबुद्धिर्वज्रं चक्रे तथा नृपम् ॥ ६५ ॥
उस महाबुद्धिने द्वारकामें पहुंचकर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया और अर्जुनको वहाँ लाकर वज्रको राज्याभिषिक्त किया ॥ ६५ ॥

भगवानपि गोविन्दो वासुदेवात्मकं परम् ।
ब्रह्मात्मनि समारोप्य सर्वभूतेष्वधारयत् ।
निष्प्रपञ्चे महाभाग संयोज्यात्मानमात्मनि ।
तुर्यावस्थसलीलं च शेतेस्म पुरुषोत्तमः ॥ ६६ ॥
इधर भगवान् कृष्णचन्द्रने समस्त भूतोंमें व्याप्त वासुदेवस्वरूप परब्रह्मको अपने आत्मामें आरोपित कर उनका ध्यान किया तथा हे महाभाग ! वे पुरुषोत्तम लीलासे ही अपने चित्तको निष्प्रपंच परमात्मामें लीनकर तुरीयपदमें स्थित हुए ॥ ६६ ॥

संमानयन्द्विजवचो दुर्वासा यदुवाच ह ।
योगयुक्तोऽभवत्पादं कृत्वा जानुनि सत्तम ॥ ६७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! दुर्वासाजीने [श्रीकृष्णचन्द्रके लिये] जैसा कहा था उस द्विजवाक्यका* मान रखनेके लिये वे अपनी जानुऑपर चरण रखकर योगयुक्त होकर बैठे ॥ ६७ ॥

आययौ स जरानाम तदा तत्र स लुब्धकः ।
मुसलावशेषलोहैकसायकन्यस्ततोमरः ॥ ६८ ॥
इसी समय, जिसने मूसलके बचे हुए तोमर (बाणमें लगे हुए लोहेके टुकड़े)-के आकारवाले लोहखण्डको अपने बाणकी नोंकपर लगा लिया था; वह जरा नामक व्याध वहाँ आया ॥ ६८ ॥

स तत्पादं मृगाकरमवेक्ष्यारादविस्थितः ।
तले विव्याध तेनैव तोमरेण द्विजोत्तम ॥ ६९ ॥
हे द्विजोत्तम ! उस चरणको मृगाकार देख उस व्याधने उसे दूरहीसे खड़े-खड़े उसी तोमरसे बोध डाला ॥ ६९ ॥

ततश्च ददृशे तत्र चदुर्बाहुधरं नरम् ।
प्रणिपत्याह चैवैनं प्रसीदेति पुनः पुनः ॥ ७० ॥
किंतु वहाँ पहुँचनेपर उसने एक चतुर्भुजधारी मनुष्य देखा । यह देखते ही वह चरणोंमें गिरकर बारम्बार उनसे कहने लगा-"प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये ॥ ७० ॥

अजानता कृतमिदं मया हरिणशङ्‍कया ।
क्षम्यतां मम पापेन दग्धं मां त्रातुमर्हसि ॥ ७१ ॥
मैंने बिना जाने ही मृगकी आशंकासे यह अपराध किया है, कृपया क्षमा कीजिये । मैं अपने पापसे दग्ध हो रहा हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये" ॥ ७१ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततस्तं भगवानाह न तेस्तु भयमण्वपि ।
गच्छ त्वं मत्प्रसादेन लुब्ध स्वर्गं सुरास्पदम् ॥ ७२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब भगवान्ने उससे कहा-"लुब्धक ! तू तनिक भी न डर; मेरी कृपासे तू अभी देवताओंके स्थान स्वर्गलोकको चला जा ॥ ७२ ॥

श्रीपराशर उवाच
विमानमागतं सद्यस्तद्वाक्यसमनन्तरम् ।
आरुह्य प्रययौ स्वर्गं लुब्धकस्तत्प्रसादतः ॥ ७३ ॥
इन भगवद्वाक्योंके समाप्त होते ही वहाँ एक विमान आया, उसपर चढ़कर वह व्याध भगवान्की कृपासे उसी समय स्वर्गको चला गया ॥ ७३ ॥

गते तस्मिन्स भगवान्संयोज्यात्मानमात्मनि ।
ब्रह्मभूतेऽव्ययेऽचिन्त्ये वासुदेवमयेऽमले ॥ ७४ ॥
अजन्मन्यमरे विष्णावप्रमेयेऽखिलात्मनि ।
तत्याज मानुषं देहमतीत्य त्रिविधां गतिम् ॥ ७५ ॥
उसके चले जानेपर भगवान् कृष्णचन्द्रने अपने आत्माको अव्यय, अचिन्त्य, वासुदेवस्वरूप, अमल, अजन्मा, अमर, अप्रमेय, अखिलात्मा और ब्रह्मस्वरूप विष्णुभगवान्में लीन कर त्रिगुणात्मक गतिको पार करके इस मनुष्य-शरीरको छोड़ दिया ॥ ७४-७५ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तत्रिंशोध्यायः (३७)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्च मेंऽशे सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥

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