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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
अर्जुनोऽपि तदान्वीक्ष्य रामकृष्णकलेवरे । संस्कारं लम्भयामास तथान्येषामनुक्रमात् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-अर्जुनने राम और कृष्ण तथा अन्यान्य मुख्य-मुख्य यादवोंके मृत देहोकी खोज कराकर क्रमशः उन सबके औज़दैहिक संस्कार किये ॥ १ ॥ अष्टौ महिष्यः कथिता रुक्मिणीप्रमुखास्तु याः ।
उपगुह्य हरेर्देहं विविशुस्ता हुताशनम् ॥ २ ॥ भगवान् कृष्णकी जो रुक्मिणी आदि आठ पटरानी बतलायी गयी हैं, उन सबने उनके शरीरका आलिंगन कर अग्निमें प्रवेश किया ॥ २ ॥ रेवती चापि रामस्य देहमाश्लिष्य सत्तमा ।
विवेश ज्वलितं वाह्निं तत्सङ्गाह्लादशीतलम् ॥ ३ ॥ सती रेवतीजी भी बलरामजीके देहका आलिंगन कर, उनके अंग-संगके आहादसे शीतल प्रतीत होती हुई प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयीं ॥ ३ ॥ उग्रसेनस्तु तच्छ्रुत्वा तथैवानकदुन्दुभिः ।
देवकी रोहिणी चैव विविशुर्जातवेदसम् ॥ ४ ॥ इस सम्पूर्ण अनिष्टका समाचार सुनते ही उग्रसेन, वसुदेव, देवकी और रोहिणीने भी अग्निमें प्रवेश किया ॥ ४ ॥ ततोर्जुनः प्रेतकार्यं कृत्वा तेषां यथाविधि ।
निश्चक्राम जनं सर्वं गृहीत्वा वज्रमेव च ॥ ५ ॥ तदनन्तर अर्जुन उन सबका विधिपूर्वक प्रेतकर्म कर वज़ तथा अन्यान्य कुटुम्बियोंको साथ लेकर द्वारकासे बाहर आये ॥ ५ ॥ द्वारवत्या विनिष्क्रान्ताः कृष्णपत्न्यः सहस्रशः ।
वज्रं जनं च कौतेयः पालयञ्चनकैर्ययौ ॥ ६ ॥ द्वारकासे निकली हुई कृष्णचन्द्रकी सहस्रों पत्नियों तथा वज्र और अन्यान्य बान्धवोंकी [सावधानतापूर्वक] रक्षा करते हुए अर्जुन धीरे-धीरे चले ॥ ६ ॥ सभा सुधर्मा कृष्णेन मर्त्यलोके समुज्झिते ।
स्वर्गं जगाम मैत्रेय पारिजातश्च पादपः ॥ ७ ॥ हे मैत्रेय ! कृष्णचन्द्रके मर्त्यलोकका त्याग करते ही सुधर्मा सभा और पारिजातवृक्ष भी स्वर्गलोकको चले गये ॥ ७ ॥ यस्मिन्दिने हरिर्यातो दिवं सन्त्यज्य मेदिनीम् ।
तस्मिन्नेवावतीर्णोऽयं कालकायो बली कलिः ॥ ८ ॥ जिस दिन भगवान् पृथिवीको छोड़कर स्वर्ग सिधारे थे, उसी दिनसे यह मलिनदेह महाबली कलियुग पृथिवीपर आ गया ॥ ८ ॥ प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधिः ।
वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागरः ॥ ९ ॥ इस प्रकार जनशून्य द्वारकाको समुद्रने डुबो दिया, केवल एक कृष्णचन्द्रके भवनको वह नहीं डुबाता है ॥ ९ ॥ नातिक्रान्तुमलं ब्रह्मंस्तदद्यापि महोदधिः ।
नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान्केशवो यतः ॥ १० ॥ हे ब्रह्मन् ! उसे डुबानेमें समुद्र आज भी समर्थ नहीं है, क्योंकि उसमें भगवान् कृष्णचन्द्र सर्वदा निवास करते हैं ॥ १० ॥ तदतीव महापुण्यं सर्वपातकनाशनम् ।
विष्णुश्रियान्वितं स्थानं दृष्ट्वा पामाद्विमुच्यते ॥ ११ ॥ वह भगवदॆश्वर्यसम्पन्न स्थान अति पवित्र और समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है; उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है ॥ ११ ॥ पार्थः पञ्चनदे देशे बहुधान्यधनान्विते ।
चकार वासं सर्वस्य जनस्य मुनिसत्तमः ॥ १२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अर्जुनने उन समस्त द्वारकावासियोंको अत्यन्त धन-धान्य-सम्पन्न पंचनद (पंजाब) देशमें बसाया ॥ १२ ॥ ततो लोभःसमभवत्पार्थेनैकेन धन्विना ।
दृष्ट्वास्त्रियो नीयमाना दस्यूनां निहतेश्वराः ॥ १३ ॥ उस समय अनाथा स्त्रियोंको अकेले धनुर्धारी अर्जुनको ले जाते देख लुटेरोंको लोभ उत्पन्न हुआ । ॥ १३ ॥ ततस्ते पापकमाणो लोभोपहृतचेतसः ।
आभीरा मन्त्रयामासुः समेत्यान्यन्तदुर्मदाः ॥ १४ ॥ तब उन अत्यन्त दुर्मद, पापकर्मा और लुब्धहृदय आभीर दस्युओंने परस्पर मिलकर सम्मति की- ॥ १४ ॥ अयमेकोऽर्जुनो धन्वी स्त्रीजनं निहतेश्वरम् ।
नयत्यस्मानतिक्रम्य धिगेतद्भवतां बलम् ॥ १५ ॥ 'देखो, यह धनुर्धारी अर्जुन अकेला ही हमारा अतिक्रमण करके इन अनाथा स्त्रियोंको लिये जाता है; हमारे ऐसे बलपुरुषार्थको धिक्कार है ! ॥ १५ ॥ हत्वा गर्वसमारूढो भीष्मद्रोमजयद्रथान् ।
कर्णादींश्च न जानाति बलं ग्रामनिवासिनाम् ॥ १६ ॥ यह भीष्म, द्रोण, जयद्रथ और कर्ण आदि [नगर-निवासियों]-को मारकर ही इतना अभिमानी हो गया है, अभी हम ग्रामीणोंके बलको यह नहीं जानता ॥ १६ ॥ यष्टिहस्तानवेक्ष्यास्मान्धनुष्पाणिःस दुर्मतिः ।
सर्वानेवावजानाति किं वो बाहुभिरुन्नतैः ॥ १७ ॥ हमारे हाथों में लाठी देखकर यह दुर्मति धनुष लेकर हम सबकी अवज्ञा करता है, फिर हमारी इन ऊँची-ऊँची भुजाओंसे क्या लाभ है ?' ॥ १७ ॥ ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवो लोष्टधारिणः ।
सहस्रशोऽभ्यधावन्त तं जनं निहतेश्वरम् ॥ १८ ॥ ऐसी सम्मतिकर वे सहस्रों लुटेरे लाठी और ढेले लेकर उन अनाथ द्वारकावासियोंपर टूट पड़े ॥ १८ ॥ ततो निर्भर्त्स्य कौतेयः प्राहाभीरान्हसन्निव ।
निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि न स्थ मुमूर्षवः ॥ १९ ॥ तब अर्जुनने उन लुटेरोको झिड़ककर हँसते हए कहा-"अरे पापियो ! यदि तुम्हें मरनेकी इच्छा न हो तो अभी लौट जाओ" ॥ १९ ॥ अवज्ञाय वचस्तस्य जगृहुस्ते तदा धनम् ।
स्त्रीधनं चैव मैत्रेय विष्वक्सेनपरिग्रहम् ॥ २० ॥ किन्तु हे मैत्रेय ! लुटेरोंने उनके कथनपर कुछ भी ध्यान न दिया और भगवान् कृष्णके सम्पूर्ण धन और स्त्रीधनको अपने अधीन कर लिया ॥ २० ॥ ततोऽर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं युधि ।
आरोपयितुमारेभे न शशाक च वीर्यवान् ॥ २१ ॥ तब वीरवर अर्जुनने युद्धमें अक्षीण अपने गाण्डीव धनुषको चढ़ाना चाहा; किन्तु वे ऐसा न कर सके ॥ २१ ॥ चकार सज्यं कृच्छ्राच्च तच्चाभूच्छिथिलं पुनः ।
न सस्मार ततोस्त्राणि चिन्तयन्नपि पाण्डवः ॥ २२ ॥ उन्होंने जैसे-तैसे अति कठिनतासे उसपर प्रत्यंचा (डोरी) चढ़ा भी ली तो फिर वे शिथिल हो गये और बहुत कुछ सोचनेपर भी उन्हें अपने अस्वोंका स्मरण न हुआ ॥ २२ ॥ शरान्मुमोच चैतेषु पार्था वैरिष्वमर्षितः ।
त्वग्भेदं दे परं चक्रुरस्ता गाण्डीवधन्विना ॥ २३ ॥ तब वे क्रुद्ध होकर अपने शत्रुओंपर बाण बरसाने लगे; किन्तु गाण्डीवधारी अर्जुनके छोड़े हुए उन वाणोंने केवल उनकी त्वचाको ही बौंधा ॥ २३ ॥ वह्निना येऽक्षया दत्ताः शरास्तेपि क्षयं ययुः ।
युद्ध्यतःसह गोपालैरर्जुनस्य भवक्षये ॥ २४ ॥ अर्जुनका उद्भव क्षीण हो जानेके कारण अग्निसे दिये हुए उनके अक्षय बाण भी उन अहीरोंके साथ लड़ने में नष्ट हो गये ॥ २४ ॥ अचिन्तयच्च कौन्तेयः कृष्णस्यैव हि तद्बलम् ।
यन्मया शरसङ्घातैः सकला भूभृतो हताः ॥ २५ ॥ तब अर्जुनने सोचा कि मैंने जो अपने शरसमूहसे अनेकों राजाओंको जीता था, वह सब कृष्णचन्द्रका ही प्रभाव था ॥ २५ ॥ मिषतः पाण्डुपुत्रस्य ततस्ताः प्रमदोत्तमाः ।
आभीरैरपकृष्यन्त कामं चान्याः प्रदुद्रुवुः ॥ २६ ॥ अर्जुनके देखते-देखते वे अहीर उन स्त्रीरत्नोंको खींच-खींचकर ले जाने लगे तथा कोई कोई अपनी इच्छानुसार इधर-उधर भाग गयीं ॥ २६ ॥ ततः शरेषु क्षीणेषु धनुष्कोट्या धनञ्जयः ।
जघान दस्यूंस्ते चास्य प्रहाराञ्जहसुर्मुने ॥ २७ ॥ बाणोंके समाप्त हो जानेपर धनंजय अर्जुनने धनुषकी नोंकसे ही प्रहार करना आरम्भ किया, किन्तु हे मुने ! वे दस्युगण उन प्रहारोंकी और भी हँसी उड़ाने लगे ॥ २७ ॥ प्रेक्षतस्तस्य पार्थस्य वृष्ण्यन्धकवरस्त्रियः ।
जग्मुरादाय ते म्लेच्छाः समस्ता मुनिसत्तम ॥ २८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अर्जुनके देखते-देखते वे म्लेच्छगण वृष्टि और अन्धकवंशकी उन समस्त स्त्रियोंको लेकर चले गये ॥ २८ ॥ ततःसुदुःखितो जिष्णुः कष्टं कष्टमिति ब्रुवन् ।
अहो भगवतानेन वञ्चितोऽस्मि रुरोद ह ॥ २९ ॥ तव सर्वदा जयशील अर्जुन अत्यन्त दुःखी होकर 'हा ! कैसा कष्ट है ? कैसा कष्ट है ?' ऐसा कहकर रोने लगे [और बोले-]"अहो ! मुझे उन भगवान्ने ही ठग लिया ॥ २९ ॥ तद्धनुस्तानि शस्त्राणि स रथस्ते च वाजिनः ।
सर्वमेकपदे नष्टं दानमश्रोत्रिये यथा ॥ ३० ॥ देखो, वही धनुष है, वे ही शस्त्र हैं, वही रथ है और वे ही अश्व हैं, किन्तु अश्रोत्रियको दिये हुए दानके समान आज सभी एक साथ नष्ट हो गये ॥ ३० ॥ अहोतिबलवद्दैवं विना तेन महात्मना ।
यदसामर्थ्ययुक्तेऽपि निचवर्गे जयप्रदम् ॥ ३१ ॥ अहो ! दैव बड़ा प्रबल है, जिसने आज उन महात्मा कृष्णके न रहनेपर असमर्थ और नीच अहीरोंको जय दे दी ॥ ३१ ॥ तौ बाहू स च मे मुष्टिः स्थानं तत्सोऽस्मि चार्जुनः ।
पुण्येनैव विना तेन गतं सर्वमसारताम् ॥ ३२ ॥ देखो ! मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही मेरी मुष्टि (मुट्ठी) है, वही (कुरुक्षेत्र) स्थान है और मैं भी वही अर्जुन हूँ तथापि पुण्यदर्शन कृष्णके बिना आज सब सारहीन हो गये ॥ ३२ ॥ ममार्जुनत्वं भीमस्य भीमत्वं तत्कृते ध्रुवम् ।
विना तेन यदा भीरैर्जितोऽहं रथिनां वरः ॥ ३३ ॥ अवश्य ही मेरा अर्जुनत्व और भीमका भीमत्व भगवान् कृष्णकी कृपासे ही था । देखो, उनके बिना आज महारथियोंमें श्रेष्ठ मुझको तुच्छ आभीरोंने जीत लिया" ॥ ३३ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्थं वदन्ययौ जिष्णुरिद्रप्रस्थं पुरोत्तमम् । चकार तत्र राजानं वज्रं यादवनन्दनम् ॥ ३४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-अर्जुन इस प्रकार कहते हुए अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थमें आये और वहाँ यादवनन्दन वजका राज्याभिषेक किया ॥ ३४ ॥ स ददर्श ततो व्यासं फाल्गुनः काननाश्रयम् ।
तमुपेत्य महाभागं विनयेनाभ्यवादयत् ॥ ३५ ॥ तदनन्तर वे विपिनवासी व्यासमुनिसे मिले और उन महाभाग मुनिवरके निकट जाकर उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ तं वन्दमानं चरणाववलोक्य मुनिश्चिरम् ।
उवाच वाक्यं विच्छायः कथमद्य त्वमीदृशः ॥ ३६ ॥ अर्जुनको बहुत देरतक अपने चरणोंकी वन्दना करते देख मुनिवरने कहा"आज तुम ऐसे कान्तिहीन क्यों हो रहे हो ? ॥ ३६ ॥ अवीरजोऽनुगमनं ब्रह्महत्या कृताथ वा ।
दृढाशाभङ्गदुःखीव भ्रष्टच्छायोऽसि साम्प्रतम् ॥ ३७ ॥ क्या तुमने भेड़ों की धूलिका अनुगमन किया है अथवा ब्रह्महत्या की है या तुम्हारी कोई सुदृढ आशा भंग हो गयी है ? जिसके दुःखसे तुम इस समय इतने श्रीहीन हो रहे हो ॥ ३७ ॥ सान्तानिकादयो वाते याचमाना निराकृताः ।
अगम्यस्त्रीरतिर्वा त्वं येनासि विगतप्रभः ॥ ३८ ॥ तुमने किसी सन्तानके इच्छुकका विवाहके लिये याचना करनेपर निरादर तो नहीं किया अथवा किसी अगम्य स्त्रीसे रमण तो नहीं किया, जिससे तुम ऐसे तेजोहीन हो रहे हो ॥ ३८ ॥ भुङ्तेऽप्रदायविप्रेभ्यो मृष्टमेकोऽथ वा भवान् ।
किं वा कृपणवित्तानि हृतानि भवतार्जुन ॥ ३९ ॥ हे अर्जुन ! तुम ब्राह्मणोंको बिना दिये मिष्टान्न अकेले तो नहीं खा लेते हो अथवा तुमने किसी कृपणका धन तो नहीं हर लिया है ॥ ३९ ॥ कचिन्नु शुर्पवातस्य गोचरत्वं गतोऽर्जुन ।
दुष्टचक्षुर्हतो वासि निःश्रीकः कथमन्यथा ॥ ४० ॥ हे अर्जुन ! तुमने सूपकी वायुका तो सेवन नहीं किया ? क्या तुम्हारी आँखें दुखती हैं अथवा तुम्हें किसीने मारा है ? तुम इस प्रकार श्रीहीन कैसे हो रहे हो ? ॥ ४० ॥ स्पृष्टो नखाम्भसा वाथ घटवार्युक्षितोऽपि वा ।
केन त्वं वासि विच्छायो न्यूनैर्वा युधि निर्जितः ॥ ४१ ॥ तुमने नखजलका स्पर्श तो नहीं किया ? तुम्हारे ऊपर पड़ेसे छलके हुए जलकी छीटें तो नहीं पड़ गयीं अथवा तुम्हें किसी हीनबल पुरुषने युद्ध में पराजित तो नहीं किया ? फिर तुम इस तरह हतप्रभ कैसे हो रहे हो ?" ॥ ४१ ॥ श्रीपराशरौवाच
ततः पार्थो विनिश्वास्य श्रूयतां भगवन्निति । प्रोक्त्वा यथावदाचष्टे व्यासायात्मपराभवम् ॥ ४२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तब अर्जुनने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा-"भगवन् ! सुनिये" ऐसा कहकर उन्होंने अपने पराजयका सम्पूर्ण वृत्तान्त व्यासजीको ज्यों-का-त्यों सुना दिया । ॥ ४२ ॥ अर्जुन उवाच
यद्बलं यच्च मत्तेजो यद्वीर्यं यः पराक्रमः । या श्रीश्छाया च नः सोस्मान्परित्यज्य हरिर्गतः ॥ ४३ ॥ अर्जुन बोले-जो हरि मेरे एकमात्र बल, तेज, वीर्य, पराक्रम, श्री और कान्ति थे, वे हमें छोड़कर चले गये ॥ ४३ ॥ ईश्वरेणापि महता स्मितपूर्वाभिभाषिणा ।
हीना वयं मुने तेन जातास्तृणमया इव ॥ ४४ ॥ जो सब प्रकार समर्थ होकर भी हमसे मित्रवत् हँस-हँसकर बातें किया करते थे, हे मुने ! उन हरिके बिना हम आज तृणमय पुतलेके समान निःसत्त्व हो गये हैं ॥ ४४ ॥ अस्त्राणां सायकानां च गाण्डीवस्य तथा मम ।
सारता याभवन्मूर्तिः स गतः पुरुषोत्तमः ॥ ४५ ॥ जो मेरे दिव्यास्त्रों, दिव्यबाणों और गाण्डीव धनुषके मूर्तिमान् सार थेवे पुरुषोत्तम भगवान् हमें छोड़कर चले गये हैं ॥ ४५ ॥ यस्यावलोकनादस्माञ्छ्रीर्जयः सम्पदुन्नतिः ।
न तत्याज स गोविन्दस्त्यक्त्वास्मान्भगवान्गतः ॥ ४६ ॥ जिनकी कृपादृष्टिसे श्री, जय, सम्पत्ति और उन्नतिने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा, वे ही भगवान् गोविन्द हमें छोड़कर चले गये हैं ॥ ४६ ॥ भीष्मद्रोणाङ्गराजाद्यास्तथा दुर्योधनादयः ।
यत्प्रभावेण निर्दग्धाः स कृष्णस्त्यक्तवान्भुवम् ॥ ४७ ॥ जिनकी प्रभावाग्निमें भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि अनेक शूरवीर दग्ध हो गये थे, उन कृष्णचन्द्रने इस भूमण्डलको छोड़ दिया है ॥ ४७ ॥ निर्यौवना गतश्रीका नष्टच्छायेव मेदिनी ।
विभाति तात नैऽकोहं विरहे तस्य चक्रिणः ॥ ४८ ॥ हे तात ! उन चक्रपाणि कृष्णचन्द्रके विरहमें एक मैं ही क्या, सम्पूर्ण पृथिवी ही यौवन, श्री और कान्तिसे हीन प्रतीत होती है ॥ ४८ ॥ यस्य प्रभावाद्भीष्माद्यैर्मय्यग्नौ शलभायितम् ।
विना तेनाद्य कृष्णेन गोपालैरस्मि निर्जितः ॥ ४९ ॥ जिनके प्रभावसे अग्निरूप मुझमें भीष्म आदि महारथीगण पतंगवत् भस्म हो गये थे, आज उन्हीं कृष्णके बिना मुझे गोपोंने हरा दिया ! ॥ ४९ ॥ गाण्डीवस्त्रिषु लोकेषु ख्यातिं यदनुभावतः ।
गतस्तेन विनाभीरलगुडैः स तिरस्कृतः ॥ ५० ॥ जिनके प्रभावसे यह गाण्डीव धनुष तीनों लोकोंमें विख्यात हुआ था उन्हींके बिना आज यह अहीरोंकी लाठियोंसे तिरस्कृत हो गया ! ॥ ५० ॥ स्त्रीसहस्राण्यनेकानि मन्नाथानि महामुने ।
यततो मम नीतानि दस्युभिर्लगुडायुधैः ॥ ५१ ॥ हे महामुने ! भगवान्की जो सहस्रों स्त्रियाँ मेरी देख-रेखमें आ रही थीं उन्हें, मेरे सब प्रकार यत्न करते रहनेपर भी दस्युगण अपनी लाठियोंके बलसे ले गये ॥ ५१ ॥ आनीयमानमाभीरैः कृष्ण कृष्णावरोधनम् ।
हृतं यष्टिप्रहरणैः परिभूय बलं मम ॥ ५२ ॥ हे कृष्णद्वैपायन ! लाठियाँ ही जिनके हथियार हैं उन आभीरोंने आज मेरे बलको कुण्ठितकर मेरे द्वारा साथ लाये हुए सम्पूर्ण कृष्ण-परिवारको हर लिया ॥ ५२ ॥ निःश्रीकता न मे चित्रं यज्जीवामि तदद्भुतम् ।
नीचावमानपङ्काङ्की निर्लज्जोस्मि पितामह ॥ ५३ ॥ ऐसी अवस्थामें मेरा श्रीहीन होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; हे पितामह ! आश्चर्य तो यह है कि नीच पुरुषोंद्वारा अपमान-पंकमें सनकर भी मैं निर्लज्ज अभी जीवित ही हूँ ॥ ५३ ॥ व्यास उवाच
अलं ते व्रीडया पार्थ न त्वं शोचितुमर्हसि । अवेहि सर्वभूतेषु कालस्य गतिरीदृशी ॥ ५४ ॥ श्रीव्यासजी बोले-हे पार्थ ! तुम्हारी लज्जा व्यर्थ है, तुम्हें शोक करना उचित नहीं है । तुम सम्पूर्ण भूतोंमें कालकी ऐसी ही गति जानो ॥ ५४ ॥ कालो भवाय भूतानामभवाय च पाण्डव ।
कालमूलमिदं ज्ञात्वा भव स्थैर्यपरोऽर्जुन ॥ ५५ ॥ हे पाण्डव ! प्राणियोंकी उन्नति और अवनतिका कारण काल ही है, अतः हे अर्जुन ! इन जय-पराजयोंको कालके अधीन समझकर तुम स्थिरता धारण करो ॥ ५५ ॥ नद्यः समुद्रा गिरयःसकला च वसुन्धरा ।
देवा मनुष्याः पशवस्तरवश्च सरीसृपाः ॥ ५६ ॥ सृष्टाः कालेन कालेन पुनर्यास्यन्ति संक्षयम् । कालात्मकमिदं सर्वं ज्ञात्वा शममवाप्नुहि ॥ ५७ ॥ नदियाँ, समुद्र, गिरिगण, सम्पूर्ण पृथिवी, देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और सरीसृप आदि सम्पूर्ण पदार्थ कालके ही रचे हुए हैं और फिर कालहीसे ये क्षीण हो जाते हैं, अत: इस सारे प्रपंचको कालात्मक जानकर शान्त होओ ॥ ५६-५७ ॥ कालस्वरूपी भगवान्कृष्णः कमललोचनः ।
यच्चात्थ कृष्णमाहात्म्यं तत्तथैव धनञ्जय ॥ ५८ ॥ हे धनंजय ! तुमने कृष्णचन्द्रका जैसा माहात्य बतलाया है वह सब सत्य ही है; क्योंकि कमलनयन भगवान् कृष्ण साक्षात् कालस्वरूप ही हैं ॥ ५८ ॥ भारावतारकार्यार्थमवतीर्णस्य मेदिनीम् ।
भाराक्रान्ता धरा याता देवानां समितिं पुरा ॥ ५९ ॥ उन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोकमें अवतार लिया था । एक समय पूर्वकालमें पृथिवी भाराक्रान्त होकर देवताओंकी सभामें गयी थी ॥ ५९ ॥ तदर्थमवतीर्णोऽसौ कालरूपी जनार्दनः ।
तच्च निष्पादिनं कार्यमशेषा भूभुजो हताः ॥ ६० ॥ कालस्वरूपी श्रीजनार्दनने उसीके लिये अवतार लिया था । अब सम्पूर्ण दुष्ट राजा मारे जा चुके, अतः वह कार्य सम्पन्न हो गया ॥ ६० ॥ वृष्ण्यन्धककुलं सर्वं तथा पार्थोपसंहृतम् ।
न किञ्चिदन्यत्कर्तव्यं तस्य भूमितले प्रभोः ॥ ६१ ॥ हे पार्थ ! वृष्णि और अन्धक आदि सम्पूर्ण यदुकुलका भी उपसंहार हो गया; इसलिये उन प्रभुके लिये अब पृथिवीतलपर और कुछ भी कर्तव्य नहीं रहा ॥ ६१ ॥ अतो गतःस भगवान्कृतकृत्यो यथेच्छया ।
सृष्टिं सर्गे करोत्येष देवदेवः स्थितौ स्थितिम् । अन्तेऽन्ताय समर्थोऽयं साम्प्रतं वै यथा गतः ॥ ६२ ॥ अतः अपना कार्य समाप्त हो चुकनेपर भगवान् स्वेच्छानुसार चले गये, ये देवदेव प्रभु सर्गके आरम्भमें सृष्टि-रचना करते हैं, स्थितिके समय पालन करते हैं और अन्तमें ये ही उसका नाश करनेमें समर्थ हैं-जैसे इस समय वे [राक्षस आदिका संहार करके] चले गये हैं ॥ ६२ ॥ तस्मात्पार्थ न सन्तापस्त्वया कार्यः पराभवे ।
भवन्ति भावाः कालेषु पुरुषाणां यतः स्तुतिः ॥ ६३ ॥ अतः हे पार्थ ! तुझे अपनी पराजयसे दुःखी न होना चाहिये, क्योंकि अभ्युदय-काल उपस्थित होनेपर ही पुरुषोंसे ऐसे कर्म बनते हैं जिनसे उनकी स्तुति होती है ॥ ६३ ॥ त्वयैकेन हता भीष्मद्रोणकर्मादयो रणे ।
तेषामर्जुन कालोत्थः किं न्यूनाभिभवो न सः ॥ ६४ ॥ हे अर्जुन ! जिस समय तुझ अकेलेने ही युद्धमें भीष्ण, द्रोण और कर्ण आदिको मार डाला था वह क्या उन वीरोंका कालक्रमसे प्राप्त हीनबल पुरुषसे पराभव नहीं था ? ॥ ६४ ॥ विष्णोस्तस्य प्रभावेण यथा तेषां पराभवः ।
कृतस्तथैव भवतो दस्युभ्यः स पराभवः ॥ ६५ ॥ जिस प्रकार भगवान् विष्णुके प्रभावसे तुमने उन सबोंको नीचा दिखलाया था, उसी प्रकार तुझे दस्युओंसे दवना पड़ा है ॥ ६५ ॥ स देवेशः शरीराणि समाविश्य जगत्स्थितिम् ।
करोति सर्वभूतानां नाशमन्ते जगत्पतिः ॥ ६६ ॥ वे जगत्पति देवेश्वर ही शरीरोंमें प्रविष्ट होकर जगत्की स्थिति करते हैं और वे ही अन्तमें समस्त जीवोंका नाश करते हैं ॥ ६६ ॥ भगोदये ते कैन्तेय सहायोऽभूज्जनार्दनः ।
तथान्ते तद्विपक्षास्ते केशवेन विलोकिताः ॥ ६७ ॥ हे कौन्तेय ! जिस समय तेरा भाग्योदय हुआ था उस समय श्रीजनार्दन तेरे सहायक थे और जब उस (सौभाग्य)-का अन्त हो गया तो तेरे विपक्षियोपर श्रीकेशवकी कृपादृष्टि हुई है ॥ ६७ ॥ कः श्रद्दद्ध्यात्सगाङ्गेयान्हन्यास्त्वं कौरवानिति ।
आभीरेभ्यश्च भवतः कः श्रद्दध्यात्पराभवम् ॥ ६८ ॥ तू गंगानन्दन भीष्मपितामहके सहित सम्पूर्ण कौरवोंको मार डालेगाइस बातको कौन मान सकता था और फिर यह भी किसे विश्वास होगा कि तू आभीरोंसे हार जायगा ॥ ६८ ॥ पार्थैतत्सर्वभूतस्य हरेर्लीलाविचेष्टितम् ।
त्वया यत्कौरवा ध्वस्ता यदाभीरैर्भवाञ्जितः ॥ ६९ ॥ । हे पार्थ ! यह सब सर्वात्मा भगवान्की लीलाका ही कौतुक है कि तुझ अकेलेने कौरवोंको नष्ट कर दिया और फिर स्वयं अहीरोंसे पराजित हो गया ॥ ६९ ॥ गृहीता दस्युभिर्याश्च भवाञ्छोचति ताःस्त्रियः ।
एतस्याहं यथावृत्तं कथयामि तवार्जुन ॥ ७० ॥ हे अर्जुन ! तू जो उन दस्युओंद्वारा हरण की गयी स्त्रियोंके लिये शोक करता है सो मैं तुझे उसका यथावत् रहस्य बतलाता हूँ ॥ ७० ॥ अष्टावकः पुरा विप्रो जलवासरतोऽभवत् ।
बहून्वर्षगणान्पार्थ गृणन्ब्रह्म सनातनम् ॥ ७१ ॥ एक बार पूर्वकालमें विप्रवर अष्टावक्रजी सनातन ब्रह्माकी स्तुति करते हुए अनेकों वर्षतक जलमें रहे ॥ ७१ ॥ जितेष्वसुरसङ्घेषु मेरुपृष्ठे महोत्सवः ।
बभूव तत्र गच्छन्त्यो ददृशुस्तं सुरस्त्रियः ॥ ७२ ॥ रम्भातिलोत्तमाद्यास्तु शतशोऽथ सहस्रशः । तुष्टुवुस्तं महात्मानं प्रशशंसुश्च पाण्डव ॥ ७३ ॥ उसी समय दैत्योंपर विजय प्राप्त करनेसे देवताओंने सुमेरु पर्वतपर एक महान् उत्सव किया । उसमें सम्मिलित होनेके लिये जाती हुई रम्भा और तिलोत्तमा आदि सैकड़ों-हजारों देवांगनाओंने मार्गमें उन मुनिवरको देखकर उनकी अत्यन्त स्तुति और प्रशंसा की ॥ ७२-७३ ॥ आकण्ठमग्नं सलिले जटाभारवहं मुनिम् ।
विनयावनताश्चैनं प्रणेमुस्तोत्रतत्पराः ॥ ७४ ॥ वे देवांगनाएँ उन जटाधारी मुनिवरको कण्ठपर्यन्त जलमें डूबे देखकर विनयपूर्वक स्तुति करती हुई प्रणाम करने लगीं ॥ ७४ ॥ यथा यथा प्रसन्नोऽसौ तुष्टुवुस्तं तथा तथा ।
सर्वास्ताः कौरवश्रेष्ठ तं वरिष्ठं द्विजन्मनाम् ॥ ७५ ॥ हे कौरवश्रेष्ठ ! जिस प्रकार वे द्विज श्रेष्ठ अष्टावक्रजी प्रसन्न हों उसी प्रकार वे अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं ॥ ७५ ॥ अष्टावक्र उवाच
प्रसन्नोऽहं महाभागा भवतीनां यदिष्यते । मत्तस्तद्व्रियतां सर्वं प्रदास्याम्यतिदुर्लभम् ॥ ७६ ॥ अष्टावक्रजी बोले-हे महाभागाओ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वही वर माँग लो; मैं अति दुर्लभ होनेपर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा ॥ ७६ ॥ रम्भातिलोत्तमाद्यास्तं वैदिक्योऽप्सरसोब्रुवन् ।
प्रसन्ने त्वय्यपर्याप्तं किमस्माकमिति द्विज ॥ ७७ ॥ तब रम्भा और तिलोत्तमा आदि वैदिकी (वेदप्रसिद्ध) अप्सराओंने उनसे कहा- "हे द्विज ! आपके प्रसन्न हो जानेपर हमें क्या नहीं मिल गया ॥ ७७ ॥ इतरास्त्वब्रुवन्विप्र प्रसन्नो भगवान्यदि ।
तदिच्छामः पतिं प्राप्तुं विप्रेन्द्र पुरुषोत्तम ॥ ७८ ॥ तथा अन्य अप्सराओंने कहा"यदि भगवान् हमपर प्रसन्न हैं तो हे विप्रेन्द्र ! हम साक्षात् पुरुषोत्तमभगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करना चाहती हैं" ॥ ७८ ॥ व्यास उवाच
एवं भविष्यतीत्युक्त्वा ह्युत्ततार जलान्मुनिः । तमुत्तीर्णं च ददृशुर्विरूपं वक्रमष्टधा ॥ ७९ ॥ श्रीव्यासजी बोले-तब 'ऐसा ही होगा'- यह कहकर मुनिवर अष्टावक्र जलसे बाहर आये । उनके बाहर आते समय अप्सराओंने आठ स्थानोंमें टेढ़े उनके कुरूप देहको देखा ॥ ७९ ॥ तं दृष्ट्वा गूहमानानां यासां हासः स्फुटोऽभवत् ।
ताः शशाप मुनिः कोपमवाप्य कुरुनन्दन ॥ ८० ॥ उसे देखकर जिन अप्सराओंकी हँसी छिपानेपर भी प्रकट हो गयी, हे कुरुनन्दन ! उन्हें मुनिवरने क्रुद्ध होकर यह शाप दिया- ॥ ८० ॥ यस्माद्विकृतरूपं मां मत्वा हासावमानना ।
भवतीभिः कृता तस्मादेतं शापं ददामि वः ॥ ८१ ॥ मत्प्रसादेन भर्तारं लब्ध्वा तु पुरुषोत्तमम् । मच्छापोपहताःसर्वा दस्युहस्तं गमिष्यथ ॥ ८२ ॥ "मुझे कुरूप देखकर तुमने हंसते हुए मेरा अपमान किया है, इसलिये मैं तुम्हें यह शाप देता हूँ कि मेरी कृपासे श्रीपुरुषोत्तमको पतिरूपसे पाकर भी तुम मेरे शापके वशीभूत होकर लुटेरोंके हार्थोंमें पड़ोगी" ॥ ८१-८२ ॥ व्यास उवाच
इत्युदीरितमाकर्ण्य मुनिस्ताभिः प्रसादितः । पुनःसुरेन्द्रलोकं वै प्राह भूयो गमिष्यथ ॥ ८३ ॥ श्रीव्यासजी बोले-मुनिका यह वाक्य सुनकर उन अप्सराओंने उन्हें फिर प्रसन्न किया, तब मुनिवरने उनसे कहा "उसके पश्चात् तुम फिर स्वर्गलोकमें चली जाओगी" ॥ ८३ ॥ एवं तस्य मुनेः शापादष्टावक्रस्य चक्रिणम् ।
भर्तारं प्राप्य ता याता दस्युहस्तं सुराङ्गनाः ॥ ८४ ॥ इस प्रकार मुनिवर अष्टावक्रके शापसे ही वे देवांगनाएँ श्रीकृष्णचन्द्रको पति पाकर भी फिर दस्युओंके हाथमें पड़ी हैं ॥ ८४ ॥ तत्त्वाय नात्र कर्तव्यः शोकोऽल्पोपि हि पाण्डव ।
तेनैवाखिलनाथेन सर्वं तदुपसंहृतम् ॥ ८५ ॥ हे पाण्डव ! तुझे इस विषयमें तनिक भी शोक न करना चाहिये क्योंकि उन अखिलेश्वरने ही सम्पूर्ण यदुकुलका उपसंहार किया है ॥ ८५ ॥ भवतां चोपसंहार आसन्नस्तेन पाण्डव ।
बलं तेजस्तथा वीर्यं माहात्म्यं चोपसंहृतम् ॥ ८६ ॥ तथा तुमलोगोंका अन्त भी अब निकट ही है इसलिये उन सर्वेश्वरने तुम्हारे बल, तेज, वीर्य और माहात्म्यका संकोच कर दिया है ॥ ८६ ॥ जातस्य नियतो मृत्युः पतनं च तथोन्नतेः ।
विप्रयोगावमानस्तु संयोगः सञ्चये क्षयः ॥ ८७ ॥ विज्ञाय न बुधाः शोकं न हर्षमुपयान्ति ये । तेषामेवेतरे चेष्टां शिक्षन्तःसन्ति तादृशाः ॥ ८८ ॥ 'जो उत्पन्न हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है, उन्नतका पतन अवश्यम्भावी है, संयोगका अन्त वियोग ही है तथा संचय (एकत्र करने) के अनन्तर क्षय (व्यय) होना सर्वथा निश्चित ही है'-ऐसा जानकर जो बुद्धिमान् पुरुष लाभ या हानिमें हर्ष अथवा शोक नहीं करते उन्हींकी चेष्टाका अवलम्बन कर अन्य मनुष्य भी अपना वैसा आचरण बनाते हैं ॥ ८७-८८ ॥ तस्मात्त्वया नरश्रेष्ठ ज्ञात्वैतद्भ्रातृभिः सह ।
परित्यज्याखिलं तन्त्रं गन्तव्यं तपसे वनम् ॥ ८९ ॥ इसलिये हे नरश्रेष्ठ ! तुम ऐसा जानकर अपने भाइयोंसहित सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर तपस्याके लिये वनको जाओ ॥ ८९ ॥ तद्गच्छ धर्मराजाय निवेद्यैतद्वचो मम ।
परश्वो भ्रातृभिः सार्धं यथा यासि तथा कुरु ॥ ९० ॥ अब तुम जाओ तथा धर्मराज युधिष्ठिरसे मेरी ये सारी बातें कहो और जिस तरह परसों भाइयोसहित वनको चले जा सको वैसा यत्न करो ॥ ९० ॥ इत्युक्तोऽभ्येत्य पार्थाभ्यां यमाभ्यां च सहार्जुनः ।
दृष्टं चैवानुभूतं च सर्वमाख्यातवांस्तथा ॥ ९१ ॥ मुनिवर व्यासजीके ऐसा कहनेपर अर्जुनने [इन्द्रप्रस्थमें] आकर पृथा-पुत्र (युधिष्ठिर और भीमसेन) तथा यमजों (नकुल और सहदेव)-से उन्होंने जो कुछ जैसा-जैसा देखा और सुना था, सब ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥ ९१ ॥ व्यासवाक्यं च ते सर्वे श्रुत्वार्जुनमुखेरितम् ।
राज्ये परीक्षितं कृत्वा ययुः पाण्डुसुता वनम् ॥ ९२ ॥ उन सब पाण्डु-पुत्रोंने अर्जुनके मुखसे व्यासजीका सन्देश सुनकर राज्यपदपर परीक्षित्को अभिषिक्त किया और स्वयं वनको चले गये ॥ ९२ ॥ इत्येतत्तव मैत्रेय विस्तरेण मयोदितम् ।
जातस्य यद्यदोर्वंशे वासुदेवस्य चेष्टितम् ॥ ९३ ॥ हे मैत्रेय ! भगवान् वासुदेवने यदुवंशमें जन्म लेकर जो-जो लीलाएँ की थीं, वह सब मैंने विस्तारपूर्वक तुम्हें सुना दी ॥ ९३ ॥ यश्चैतच्चरितं तस्य कृष्णस्य शृणुयात्सदा ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ९४ ॥ जो पुरुष भगवान् कृष्णके इस चरित्रको सर्वदा सुनता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर अन्तमें विष्णुलोकको जाता है ॥ ९४ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चम अंशे अष्टत्रिंशोऽध्यायः (३८)
इति पञ्चमांशः समाप्तः । इति श्रीविष्णुपराणे पञ्चमेंऽशे अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे पञ्चमोऽशः समाप्तः ॥ |