शिवमहापुराण - प्रस्तावना
पुराण वाङ्मयमें श्रीशिवमहापुराणका अत्यन्त महिमामय स्थान है । पुराणोंकी परिगणनामें वेदतुल्य, पवित्र और सभी लक्षणोंसे युक्त यह पुराण चौथा है । शिवके उपासक इस पुराणको शैवभागवत मानते हैं । इस ग्रन्थके आदि, मध्य तथा अन्तमें सर्वत्र भूतभावन भगवान् सदाशिवकी महिमाका प्रतिपादन किया गया है । वेद-वेदान्तमें विलसित परमतत्त्व-परमात्माका इस पुराणमें शिव नामसे गान किया गया है ।
प्रतिपाद्य-विषयकी दृष्टिसे शिवमहापुराण अत्यन्त उपयोगी महापुराण है। इसमें भक्ति, ज्ञान, सदाचार, शौचाचार, उपासना, लोकव्यवहार तथा मानवजीवनके परम कल्याणकी अनेक उपयोगी बातें निरूपित हैं । शिवज्ञान, शैवीदीक्षा तथा शैवागमका यह अत्यन्त प्रौढ़ ग्रन्थ है । साधना एवं उपासना-सम्बन्धी अनेकानेक सरल विधियाँ इसमें निरूपित हैं । कथाओंका तो यह आकर ग्रन्थ है । इसकी कथाएँ अत्यन्त मनोरम, रोचक तथा बड़े ही कामकी हैं। मुख्य रूपसे इस पुराणमें देवोंके भी देव महादेव भगवान् साम्बसदाशिवके सकल, निष्कल स्वरूपका तात्त्विक विवेचन, उनके लीलावतारोंकी कथाएँ, द्वादश ज्योतिर्लिंगोंके आख्यान, शिवरात्रि आदि व्रतोंकी कथाएँ, शिवभक्तोंकी कथाएँ, लिंगरहस्य, लिंगोपासना, पार्थिवलिंग, प्रणव, बिल्व, रुद्राक्ष और भस्म आदिके विषयमें विस्तारसे वर्णन है । यह पुराण उच्चकोटिके सिद्धों, आत्मकल्याणकामी साधकों तथा साधारण आस्तिकजनों-सभीके लिये परम मंगलमय एवं हितकारी है ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्यमें तो इस पुराणके अध्ययन एवं मनन तथा इसके उपदेशोंके अनुसार चलनेकी विशेष आवश्यकता प्रतीत होती है । शिवपुराणका पठन-पाठन सच्ची सुख-शान्तिके विस्तारमें परम सहायक सिद्ध हो सकता है । आस्तिकजन इस महापुराणको पढ़कर लाभ उठायें और लोक-परलोकमें सुख-शान्ति तथा मानवजीवनके परम लक्ष्यको प्राप्त करें, भगवान् सदाशिवसे यही प्रार्थना है ।